बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
दुनिया कैसी ? मोए जैसी !
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
‘भैयाजी, आज भुनसारे मोरी नींद खुली, तभईं से मोए एक किसां याद आ रई। कओ तो सुना दई जाए।’’ मैंने भैयाजी से पूछी। मोए पतो के भैयाजी कभऊं मोय मनो ने करहें, चाए मैं उने किसां सुनाऊं चाए गारी गाऊं।
‘‘हऔ सुनाओ!’’ जैसी मैंने सोची रई, भैयाजी ने तुरतईं ‘हौ’ बोल दओ।
‘‘भैयाजी ऐसो आए के हिन्दी में कही जात के साउन के अंधरा खों सबई कछू हरीरो-हरीरो दिखात आए। सो, जेई टाईप की किसां बुंदेली में सोई कही जात आए। सुनो किसां!’’ मैंने कई।
‘‘हऔ तो सुनाओ अब। का भूमिकई बांधत रैहो?’’ भैयाजी चिड़कात भए बोले।
‘‘का भओ भैयाजी के एक हतो भगुंता नाई। ऊकी बड़े-बड़े घरों में पौंच हती। काए से के भगुंता हाथ-पांव की मालिश करबे में अव्वल हतो। एक दिना भगुंता को दूर-दराज को नातेदार गुजर गओ। ऊ मरबे के पैले भगुंता के लाने सोने की दो मोहरें छोड़ गओ। इके पैले भगुंता के पास एकऊ मोहरें ने हतीं, सो दो-दो मोहरें पा के ऊकी बांछें खिल गईं। पर इके संगे ऊको फिकर भई के जे मोहरन खों लुका के राखने परहे, ने तो कऊं कोनऊं छिना ने ले। कऊं कोनऊ चोर चुरा ने ले जाए। भगुंता ने सोची के घर की किवरियां खो कौन भरोसो, जा तो एकई लात की आए। इसे तो मोहरन खों संगे राखने में भलाई कहानी। सो, मोहरें राखने के लाने भगुंता को कोऊ जागां ने सूझी सो ऊने एक डबिया लई, ऊमें दोई मोहरे राखी औ डबिया खों अफ्नी मालिस की पेटी में धर लई।
‘‘अब ठीक आए। अब मोरी मोहरन खों कोनऊ हाथ ने लगा पैहे।’’ भगुंता ने सोची। काए से के पेटी तो बरहमेस ऊके संगई बनी रैत्ती। अब तो भगुंता अपनी पेटी खों औरई अपने कलेजे से चिपटाए रहन लगो।
एक दिना भगुंता सरपंच की मालिश कर रओ हतो। दोई जनों में कछू-कछू बतकाव सोई चल रई हती। सरपंच ने भगुंता से पूछी-‘‘काए रें, भगुंता। तोये तो पतो हुइये के गांव में का चल रओ?’’
‘‘आप मालक की किरपा! सब ठीकई चल रओ।’’ भगुंता बोलो।
‘‘कोनऊ खों कोई तकलीफ-परेसानी तो नइयां?’’ सरपंच ने पूछी।
‘‘तकलीफ परेसानी काए की? अपने तो गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरे राखत आएं।’’ भगुंता ऐंड़ के बोलो।
सरपंच ताड़ गओ के दाल में कछु कारो आए। सरपंच ने जा खबर तो सुन रखी हती के भगुंता खों अपने नातेदार के मरबे पे दो मोहरे मिली रईं। हो न हो, जा भगुंता ऊ मोहरन के लाने कै रओ। फेर सरपंच ने सोची के, बा मोहरे जा अफ्नी जेई पेटी में राखत हुइए, तभईं तो जा पेटी कलेजे से चिपटाए फिरत आए।
‘‘जारे, भगुंता! जा के भीतरे से तनक बिजना तो उठा ला। तनक गरमी सी लग रई।’’ सरपंच ने भगुंता से कई औ ऊको उते से टरका के, ऊकी पेटी थथोल डारी। सरपंच के हाथ बा डबिया लग गई जा में भगुंता ने मोहरे रखी हतीं। सरपंच ने सोची के जा भगुंता बड़ो ऐंड रओ आए, जा के लाने भगुंता खो सबक सिखाओ जाए। औ सरपंच ने डबिया से मोहरे निकार लई। तब लो मगुंता भीतरे से बिजना उठा लाओ। भगुंता समझई ने पाओ के ऊके पाछूं सरपंच ने ऊकी मोहरे निकार लई आएं।
सरपंच के इते से लौट के भगुंता ने अपनी पेटी जांची। ऊने डबिया में से मोहरे नदारत पाई। ऊको जी धक से रै गओ। ऊने पूरो घर छान मारो, मोहरें कहूं ने मिली। ऊने सोची के पेटी खोलत-करत में मोहरे कहू गैल में हेरा गई हुइएं। बा जे तो सोचई ने सकत्तो के सरपंच ऊकी मोहरे निकार सकत आए।
ऊ दिनां से भगुंता उदास रैन लगो।
ऊकी उदासी देख के एक दिनां सरपंच ने ऊसे पूछी- ‘‘काए रे भगुंता! तोये तो पतो हुइए के गांव में का चल रओ?’’
‘‘रामधई, बड़ो बुरओ चल रओ आए। मालक की किरपा नई रई, मालक रूठे कहाने। ’’ भगुंता ने मों लटका के कई।
‘‘काए? ऐसो का हो गओ? कौन-सी विपदा आन परी? अपने तो गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरें राखत आए।’’ सरपंच ने पूछी।
‘‘हजूर, अब कहां धरीं दो मोहरें।’’ भगुंता खिसियानो सो बोलो।
‘‘काए? तुमई तो कहत्ते के अपने गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरें राखत आएं।’’ सरपंच ने चुटकी लई।
‘‘अरे हजूर, ने पूछो। मोय तो कछु समझई में नई आत। जब लो मोरे ऐंगर दो मोहरे रईं सो मोये सबई के ऐगर मोहरें दिखात रईं। अब मोरी मोहरे हिरा गई सो मोये लगत आए के ई गांव में सबई के सब कंगला हो गएं। सो मोसेे से कछू ने पूछो, हजूर!’’ भगुंता की आंखन से टप-टप अंसुआं झरन लगे।
जा देख के सरपंच को जी पसीज गओ।
‘‘वाह रे भगुंता। तेरी तो बोई किसां ठैरी के दुनिया कैसी, मोए जैसी। जो मैं दुखी, सो दुनिया दुखी। जो मैं खुशी तो दुनिया खुशी। अरे मूरख, जे दुनिया खों अफ्नो घाई ने देखो कर। तू, तू आए औ दुनिया, दुनिया आए। सबई की अपनी खुशी औ अपने दुक्ख होए आएं। समझ परी कछू?’’ सरपंच ने भगुंता से कई और ऊकी सोने की दोई मोहरें ऊकी गदेली पे धर दईं।
भगुंता अपनी मोहरें देख के भौतई खुश हो गओ। बाकी ऊको समझ ने परी के सरपंच के लिंगे ऊकी मोंहरें कां से आई। पर ऊको ईसे का? कऊं से आई होय? मिल तो गईं। फेर सरपंच से पूछो बी नई जा सकत्तो।
ऊको खुश देख के सरपंच ने फेर ऊसे पूछी-‘‘काए भगुंता, अब गांव को का हाल-चाल आए?’’
‘‘मालिक की किरपा! अब सब ठीक हो गओ।’’ भगुंता पैले घाई चहक के बोलो।
‘‘सो अब कोनऊ खों कोऊ तकलीफ-परेसानी नइयां?’’ सरपंच ने फेर के पूछी।
‘‘काए की परेसानी, अपने गांव में भिखमंगा सोई सोने की दो-दो मोहरे राखत आए।’’ भगुंता पैलई घांईं बोलो।
जा सुन के सरपंच ने अपनो मूंड़ पीट लओ। औ मनई मन सोचन लगो के जे भगुंता तो मोहरन को अंधरा आए। जा नईं सुधर सकत।
‘‘सो भैयाजी, जा हती किसां।’’ किसां खतम करत भई मैंने कई।
‘‘हऔ, नोनी किसां हती। जा सो बई बात भई के दुनिया कैसी? मोय जैसी!’’ भैयाजी हंस के बोले।
‘‘हऔ भैयाजी! जेई तो सोचबे की बात आए के जब लों कछू पार्टी वारे जेई सोचत रैहें के दुनिया उनई के जैसी आए, तबलौं बे कभऊं ने जीते पाहें। अबे बी टेम आए के बे अपनी सोच बदल लेंवें, ने तो राम नाम सत्त हो जैहे।’’ मैंने कई।
‘‘ठीक कई बिन्ना!’’ भैयाजी ने मोरी बात की समर्थन कीे।
आप ओरें सोई सोचियो, जो मैंने झूठ कई होय! बाकी, बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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