Tuesday, February 20, 2024

पुस्तक समीक्षा | भक्ति के मर्म को व्याख्यायित करती गुजराती कृति का उत्कृष्ट हिन्दी अनुवाद | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 20.02.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ गौतम पटेल की मूल गुजराती पुस्तक "भक्ति नो मर्म" की डॉ चंचला दवे द्वारा किए गए हिंदी अनुवाद पुस्तक "भक्ति के मर्म"  की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा    
भक्ति के मर्म को व्याख्यायित करती गुजराती कृति का उत्कृष्ट हिन्दी अनुवाद
      - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - भक्ति का मर्म
लेखक      - गौतम पटेल
अनुवादक    - चंचला दवे
प्रकाशक   - लकुलीश योग युनिवर्सिटी, लोटस व्यु, निरमा युनिवर्सिटी के सामने, छारोडी, सरखेज - गांधीनगर हाईवे, अमदावाद, गुजरात
मूल्य        - 300/-
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मूल गुजराती में लिखी गई पुस्तक ‘‘भक्ति नो मर्म’’ एक बहुचर्चित और बहुपठित पुस्तक है। इस पुस्तक की उपादेयता एवं भक्ति को जानने की जनरुचि को देखते हुए अहमदाबाद स्थित लकुलीश योग युनिवर्सिटी ने इसे हिन्दी में भी उपलब्ध कराने का निर्णय लिया। सागर मध्यप्रदेश में निवासरत विदुषी अनुवादिका डाॅ. चंचला दवे को अनुवाद कार्य का दायित्व सौंपा गया। जिसके उपरांत ‘‘भक्ति नो मर्म’’ का हिन्दी में ‘‘भक्ति का मर्म’’ नाम से अनुवाद प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व इस पुस्तक का अंग्रेजी और मराठी में अनुवाद हो चुका है। पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का आमुख लिखा है प्रो. बलवंत राय जानी, कुलाधिपति, डाॅ. हरीसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर ने तथा डाॅ सुरेश आचार्य एवं नरेन्द्र दुबे ने पुस्तक के कलेवर तथा अनुवाद पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। पुस्तक के लेखक डॉ. गौतम पटेल ने डाॅ. चंचला दवे के अनुवाद कार्य पर टिप्पणी करते हुए मूल पुस्तक के आकार में आने के संबंध में संक्षिप्त विवरण दिया है- ‘‘मैंने परम श्रद्धेय मित्रवर आचार्यश्री कानजीभाई पटेल के अनुरोध पर अहमदाबाद की सुप्रसिद्ध संस्था एल. डी. इंडोलाजिकल इंस्टीट्यूट में भक्ति विषयक तीन प्रवचन किये। शिमला स्थित ‘इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ एडवान्स स्टडीझ’ ने मुझे एक समर वेकेशन में ‘रिसोर्स परसन’ के रूप में आमंत्रण दिया। उसी समय श्रीमती डॉ. भुवन चन्देल वहाँ डायरेक्टर के रूप में सेवा प्रदान करती थी। वहाँ भी भक्ति विषय को केन्द्र में और कर्णाटक की ‘संशोधन’ नामक संस्था द्वारा आयोजित सेमिनार में तिरुपति में ‘श्रीमद् वल्लभाचार्य के मतानुसार भक्ति’ इस विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत किया। इन सभी की जो शोध (खोज) मेरे पास थी उसके अनुसार गुजराती में ‘भक्तिनो मर्म’ नामक ग्रंथ संस्कृत सेवा समिति ने प्रकाशित किया। उसकी भूमिका विश्ववंद्य संत मोरारी बापू ने लिखी एवं आशीर्वाद प्रदान किया।’’
‘‘भक्ति नो मर्म’’ की हिन्दी में उपलब्धता वर्तमान में और अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आज भक्ति की भावना सभी के हृदय में हिलोरें ले रही है लेकिन हर व्यक्ति नहीं समझ पाता है कि वस्तुतः भक्ति क्या है? किसी गुरु का स्तुततिगान करना, किसी मंदिर की चैखट में माथा टेकना, किसी विशेष रंग का वस्त्र पहना लेना अथवा जोश में भर कर जयकारे लगाना- क्या यही भक्ति है? यदि नहीं, तो भक्ति क्या है? भक्ति एक बहुत गहरा विचार है, एक ऐसी अनुभूति भरा विचार जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को परिवर्तित करके ‘स्व’ को भुलाने की क्षमता रखता है। भक्ति का तात्पर्य है-स्वयं के अंतस को ईश्वर के साथ जोड़ लेने की प्रक्रिया ही भक्ति है। सांसारिकता के मोहपाश में बंधे रहना अथवा आडंबर ओढ़ लेना भक्ति नहीं है। भक्ति का अर्थ है पूर्ण समर्पण। सरल शब्दों में कहें तो आत्मा की डोर का परमात्मा से बंध जाना भक्ति है। ईश्वर के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला सच्चा साधक ही भक्त है। भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति ‘‘भज’’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘‘सेवा करना’’ या ‘‘भजना’’ है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति। महर्षि व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है।
डाॅ गौतम पटेल ने अपनी पुस्तक में सम्पूर्ण कलेवर को उपसंहार संहित पांच अध्यायों में विभक्त किया है-1 भक्ति की उत्पत्ति एवं विकास, 2. भगवद् गीता में भक्ति 3. श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति, 3. श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति 4. शुद्धाद्वैत सिद्धांत में भक्ति तथा 5. उपसंहार।
प्रथम अध्याय ‘‘भक्ति की उत्पत्ति एवं विकास’’ के अंतर्गत लेखक ने भक्ति की उत्पत्ति के बारे में विवरण दिया है तथा भक्ति के विकास को व्याख्यायित करते हुए सात उपशीर्षकों के अंतर्गत उद्धरण सहित विविध विचारों को प्रस्तुत किया है। इसके अंतर्गत हैं- वेदों में भक्ति, शांडिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति, नारद भक्ति सूत्र में भक्ति, नारद पंचरात्र में भक्ति की व्याख्या, भक्ति रसायन के अनुसार भक्ति, भक्तिरसामृतसिन्धु में भक्ति, शरणागति अथवा प्रपत्ति।
दूसरे अध्याय ‘‘भगवद् गीता में भक्ति’’ के अंर्तगत ‘‘भगवद् गीता’’ पर आधारित भक्ति के स्वरूप को रेखांकित ेिकया है। इस अध्याय में है- भगवद् गीता में भक्ति, आदि शंकराचार्य के मतानुसार भक्ति तथा श्री रामानुजाचार्य के मतानुसार भक्ति।
तीसरे अध्याय ‘‘श्रीमद् भागवत पुराण में भक्ति’’ में लेखक ने भक्ति के उस स्वरूप का विवरण दिया है जिसका उल्लेख भागवत पुराण में मिलता है-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् ।
पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः।।
- ‘‘यहाँ श्रीमद्भागवत पुराण को ‘वेदरूपी कल्पवृक्ष’ का पका हुआ फल कहा गया है। यही भागवत की अद्वितीय विशेषता है। यहाँ व्यास महर्षि ने, रसिको को जीवन के अंतिम क्षण तक, जब तक यह देह पंच-भूतों में विलीन हो, तब तक बारम्बार भागवत रूपी रस का पान करने का आव्हान किया है। क्योंकि यह भागवत वेदरूपी कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है एवं इसका रस शुक (तोता-शुकदेवजी) के मुख से प्रवाहित हो रहा है। ऐसी मान्यता है कि जिस फल को शुक अपनी चोंच मारता है, वह अत्यंत ही मधुर होता है।’’
इसी अध्याय में लेखक ने हिन्दू संस्कृति में मान्य अवतारवाद केा तार्किक ढंग से सामने रखा है। उन्होंने लिखा है कि-‘‘मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नृसिंहो वामन एव च।
रामो रामश्च कृष्णश्च बुद्धः कल्किस्तथैव च।।
- अर्थात दसअवतार के रूप में ईश्वर धरती पर अवतरित हुए। ये दस अवतार हैं- ‘‘1. मत्स्य 2. कूर्म 3. वराह 4. नृसिंह 5. वामन 6. परशुराम 7. राम 8. कृष्ण 9. बुद्ध एवं 10. कल्कि।’’
लेखक डाॅ. गौतम पटेल ने आगे लिखा है कि ‘‘भारत में मत्स्यावतार के बाद कूर्मावतार की बात है, यहाँ सूक्ष्म उत्क्रांति हैं। मछली केवल पानी में रहती है। जब कछुआ अर्थात् कूर्म पानी में अधिक पृथ्वी पर कम रहता है। तीसरा अवतार वराह है। वराह पृथ्वी ऊपर अधिक, पानी में कीचड़ में कम रहता है। इसके पश्चात् नृसिंह अर्थात् आधी देह प्राणी की, आधी देह मनुष्य की, प्राणी में से मानव की तरफ उत्क्रांति हुई। उसके बाद वामन अवतार हुआ। वामन अर्थात् लघु मानव, तदनंतर परशुराम-पूर्ण मानव । परंतु उसमें पशुकी तरह हिंसा, क्रोध, बैर जैसे लक्षण रह गये हैं। इसके पश्चात् राम आये-संपूर्ण मानव के रूप में, आदर्श मानव के रूप में। मानव में अपेक्षित सभी सद्गुण इनके अंदर पाये गये। डार्विन मानव से आगे नहीं बढ़े, परंतु भारतीय अवतारवाद में राम में मानवीय गुणों की पराकाष्ठा है, जबकि कृष्ण में दैवीय गुणों की चरम सीमा है। इन दोनों की तुलना, समरसता भी रसप्रद है।’’
इसके बाद लेखक ने राम और कृष्ण अवतारों की परस्पर तुलना की है जोकि अपने आप में अत्यंत रोचक है।
चैथे अध्याय ‘‘शुद्धाद्वैत सिद्धांत में भक्ति’’ में शुद्ध अद्वैत मत के अनुसार भक्ति की व्याख्या करते हुए लेखक ने उपनिषद का उद्धरण दिया है कि -‘‘इस प्रकार वेद की संहिताओं में भक्ति का आरम्भ हुआ है-
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।
तस्य होते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।
- जिन्हें ईश्वर में पराभक्ति हो वैसी ही गुरु में भी हो तो उस महात्मा को यह अर्थ प्रकाशित होता है। भक्ति के प्रति विचार एवं सिद्धांत बहुत ही प्राचीन हैं। शुद्धाद्वैत सिद्धांत पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य के मतानुसार भक्ति प्रभु की कृपा हे प्राप्त होती है एवं वह पुष्टि-भक्ति कहलाती है। पुष्टि अर्थात् पोषण, प्रभु का अनुग्रह ‘‘पोषणं तदनुग्रहः ’’। यह पुष्टि-भक्ति प्रभु की कृपा से पुष्टि-जीवों को ही प्राप्त होती है। प्रभु के विग्रह से विलग होकर ये जीव पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। प्रभु स्वयं इनमें भक्ति के बीज का रोपण करते हैं एवं मनन, श्रवण रूपी जल से सिंचन करते हैं। ब्रह्म-संबंध की दीक्षा प्रदान कर उसमें भागवत भक्ति का पुष्प खिलता है। भगवद् व्यसनरूपी फल की प्राप्ति होती है। ऐसा पुष्टि-भक्त प्रभु की भक्ति के बिना एक सांस भी नहीं ले सकता है। ऐसी इस सिद्धांत की मान्यता है।’’
वस्तुतः जिसके विचारों में शुचिता (पवित्रता) हो, जो अहंकार से दूर हो, जो किसी वर्ग-विशेष में न बंधा हो, जो सबके प्रति सम भाव वाला हो, सदा सेवा भाव मन में रखता हो, ऐसे व्यक्ति विशेष को हम भक्त का दर्जा दे सकते हैं। नर सेवा में नारायण सेवा की अनुभूति होने लगे, ऐसी अनुभूति ही सश्ची भक्ति कहलाती है। भक्त के लिए समस्त सृष्टि प्रभुमय होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-जो पुरुष आकांक्षा से रहित, पवित्र, दक्ष और पक्षपातरहित है, वह सुखों का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है, परंतु अफसोस यह कि इस दौड़ती-भागती और तनावभरी जिंदगी में हम कई बार प्रार्थना में भगवान से भगवान को नहीं मांगते, बल्कि भोग-विलास के कुछ संसाधनों से ही तृप्त हो जाते हैं।
‘‘मैं भगवान नारायण या भगवान शिव या भगवान कृष्ण को प्रणाम करता हूँ।’’ यह भक्ति योग है. ‘‘सबमें मैं ही आत्मा हूँ।’’ यह ज्ञान योग है. अद्वैत वेदांती के अनुसार, भक्ति इस सूत्र पर निरंतर विचार करना है, ‘‘मैं वह हूं’’ या ‘‘मैं ब्रह्म हूं।’’ भक्ति मार्ग में पांच चीजें अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। (1) भक्ति निष्कामया प्रकार की होनी चाहिए। (2) अव्याभिचारिणी भी होनी चाहिए। (3) यह सादात (निरंतर) होना चाहिए. (4) साधक का सदाचार पूर्ण होना चाहिए। (5) अभ्यर्थी को बहुत गंभीर होना चाहिए और सही ढंग से अभ्यास करना चाहिए। तब बोध शीघ्र हो जाता है।
लेखक गौतम पटेल भारतीय भक्ति दर्शन के मर्मज्ञ हैं। उन्होंने गहन अध्ययन, चिंतन, मनन के साथ मूल गुजराती में जो पुस्तक ‘‘भक्ति नो मर्म’’ लिखी है, उसका उतना ही श्रमसाध्य अनुवाद डाॅ. चंचला दवे ने किया है। अनुवादकार्य अपने-आप में ही एक पूर्ण सर्तकता भरा कार्य होता है क्योंकि इसके लिए आवश्यक होता है कि अनुवादक मूल कृति के मर्म को आत्मसात करे ताकि वह अनुवाद हेतु उचित शब्दों का चयन कर सके। डाॅ. चंचला दवे को गुजराती एवं हिन्दी का समुचित ज्ञान है अतः उन्हें शब्द चयन में कठिनाई नहीं हुई होगी। मूल गुजराती पुस्तक मैंने नहीं पढ़ी है किन्तु अनुवाद के संबंध में लेखक गौतम पटेल के आश्वस्ति भरे शब्द ‘‘यह अनुवाद माता गंगा की तरह पावन’’ लिखा जाना इस बात का द्योतक है कि लेखक संतुष्ट है अपनी कृति के अनुवाद के प्रति। जिसके आधार पर कह जा सकता है कि डाॅ चंचला दवे ने एक उत्कृष्ट अनुवाद कार्य कर के हिन्दी साहित्य को एक ऐसी गंभीर विषय की कृति से परिचित कराया है जिसकी वर्तमान में महती आवश्यकता है। भक्ति के स्वरूप एवं प्रकृति को जानने में रुचि रखने वालों के लिए यह कृति निश्चित रूप से पठनीय है।   
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