Wednesday, September 18, 2024

चर्चा प्लस | पितृपक्ष का महत्व पुराणों से ले कर पर्यावरण तक | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
पितृपक्ष का महत्व पुराणों से ले कर पर्यावरण तक 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
           पितृपक्ष हमें अतीत का सम्मान करना सिखाता है, अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ होना सिखाता है। अपने पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करना सिखाता है। साथ ही सिखाता है प्रकृति के तत्वों के साथ मिल कर रहने की कला। पितृपक्ष जीवन और भावनाओं के लिए पर्यावरण की आवश्यकता को भी सिखाता है। क्योंकि यदि जल नहीं होगा तो हम तर्पण कहां और किससे करेंगे? कौवे नहीं होंगे तो हम श्राद्ध-भोग किसे खिलाएंगे? पुराणों के अनुसार कौवों के माध्यम से ही तो आते हैं हमारे पितर हम तक। यही तो है पितृपक्ष का महत्व पुराणों से ले कर पर्यावरण तक।  
      पितृपक्ष की शुरुआत भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि से होती है और आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को समापन होता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पितर पितृपक्ष में पृथ्वी लोक पर अपने परिवार के सदस्यों से मिलते हैं। इसके बाद पितरों के नाम का दान, तर्पण और श्राद्ध कर्म किया जाता है। पितृपक्ष में शादी-विवाह, गृह-प्रवेश, मुंडन संस्कार और सगाई समेत सभी मांगलिक कार्यों की मनाही होती है। शास्त्रों में देवी-देवताओं की पूजा के साथ पूर्वजों की पूजा वर्जित है। स्वाभाविक रूप से अनेक लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि पितृपक्ष के श्राद्धकर्म का आरम्भ कब से हुआ? तो पुराणों और महाकाव्य में इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में तो इसके मनाए जाने के आरम्भ का भी उल्लेख है। महाभारत काल से शुरु हुई पितृपक्ष की परंपरा जो आज तक है चल रही है। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को महाभारत के युद्ध के दौरान पितृपक्ष में श्राद्ध और उसके महत्व के बारे के बताया था। जिसका उल्लेख गरुड़ पुराण में भी है। 

कथा के अनुसार महर्षि निमि ने पुत्र की अचानक मृत्यु से दुखी होकर पूर्वजों का आह्वान करना शुरू कर दिया। इसके बाद पूर्वज उनके सामने प्रकट हुए और कहा कि ‘‘हे निमि, आपका पुत्र पहले ही पितृ देवों के बीच स्थान ले चुका है। चूंकि आपने अपने दिवंगत पुत्र की आत्मा को खिलाने और पूजा करने का कार्य किया है। इसलिए आज से यह श्राद्ध अनुष्ठान विशेष माना जाएगा।’’ उस समय से श्राद्ध को सनातन धर्म का महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना जाने लगा। इसके बाद से महर्षि निमि ने भी श्राद्ध कर्म शुरू कर दिया जो वर्तमान में भी पितृ पक्ष के तौर आज भी जारी है।

पितृपक्ष या श्राद्धपक्ष, 16 दिन की यह अवधि होती है इसमें हिन्दू अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं और उनके लिये पिण्डदान करते हैं। इसे सोलह श्राद्ध, महालय पक्ष, अपर पक्ष आदि नामों से भी जाना जाता है। गीता के अध्याय 9 श्लोक 25 के अनुसार पितर पूजने वाले पितरों को, देेव पूजने वाले देवताओं को और परमात्मा को पूजने वाले परमात्मा को प्राप्त होते हैं। मार्कण्डेय पुराण में भी श्राद्ध के विषय मे एक कथा मिलती है जिसमे रूची नाम का ब्रह्मचारी साधक वेदों के अनुसार साधना कर रहा था। वह जब 40 वर्ष का हुआ तब उसे अपने चार पूर्वज जो अपने अनुचित आचरण पितर बन कर भी कष्ट भोग रहे थे। तब पितरों ने रूची से कहा कि हमारा श्राद्ध कर के हमें मोक्ष दिलाओ। तब रूची ने अलग से पितरों का श्राद्ध किया और उन्हें मोक्ष दिला कर मुक्ति दिलाई।

18 पुराणों में पितृपक्ष का उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में पितरों के श्राद्ध और तर्पण का महत्व बताया गया है. इसमें कहा गया है कि पितरों को अर्पित जल और अन्न से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। ब्रह्म पुराण में पितरों के लिए श्राद्ध की विधियों का विवरण है। शिव पुराण में श्राद्ध की प्रक्रिया और इसके लाभों का उल्लेख है। भागवत पुराण में पितरों के तर्पण और श्राद्ध की विधियां और उनका महत्व वर्णित है। इसमें पितरों को अर्पित सामग्री की विधि भी बताई गई है। मत्स्य पुराण में पितरों के श्राद्ध की विभिन्न विधियों, जैसे एकोदिष्ट और नित्य श्राद्ध, का विवरण है। नारद पुराण में पितरों के प्रति श्राद्ध की विधियां और इसके महत्व का विस्तृत वर्णन किया गया है। वामन पुराण में पितरों के श्राद्ध और तर्पण की प्रक्रिया का उल्लेख इस पुराण में है। इसमें पितरों को शांति देने के उपाय बताए गए हैं। कूर्म पुराण में पितरों की आत्मा को शांति देने के लिए श्राद्ध की प्रक्रियाओं का वर्णन है। लिंग पुराण में पितरों के श्राद्ध और तर्पण की विधियों का वर्णन है। गरुड़ पुराण, श्रीभगवत पुराण, सत्यम्बुधि पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्मृति पुराण, प्रदीप पुराण, अग्नि पुराण, श्री भागवत पुराण और कालिक पुराण में भी पितरों के श्राद्ध की विधियां, आत्मा को शांति देने के लिए प्रक्रियाओं और धार्मिक महत्व के बारे में बताया गया है।
पितृपक्ष का धार्मिक एवं भावनात्मक महत्व तो है ही, साथ ही इसका पर्यावर्णीय महत्व भी है। पितृपक्ष सीधे प्रकृति से जोड़ता है। यह पक्ष प्रकृति और मानव के अंतर्संबंधों को मजबूत करता हुआ प्रकृति के महत्व को बताता है। प्रकृति के जड़ और चेतन मानव जीवन के लिए आधारभूत तत्व हैं। श्राद्ध के दौरान नदी अथवा जलाशय में तर्पण किया जाता है। तर्पण जल से किया जाता है। अर्थात जल के बिना तर्पण संभव ही नहीं है। अतः यदि हम अपने पितरों अर्थात पूर्वजों की आत्मा को शांत करने के लिए श्राद्ध करना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें जल को संरक्षित करना आवश्यक है।    
पितृपक्ष के दौरान कौवे को भोजन करने का विशेष महत्व बताया गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, कौवा यम के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। इस दौरान कौवे का होना पितरों के आस पास होने का संकेत माना जाता है। मान्यता है कि पितृपक्ष में पूरे 15 दिन कौवे को भोजन करना चाहिए। पितृपक्ष में कौए का घर या आंगन में आना शुभ संकेत माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पितृपक्ष के दौरान पितर कौओं के रूप में धरती पर आते हैं। शास्त्रों में इस बात का वर्णन किया गया है कि देवताओं के साथ ही कौवे ने भी अमृत को चखा था। जिसके बाद से यह माना जाता है कि कौवों की मौत कभी भी प्राकृतिक रूप से नहीं होती है। कौए बिना थके लंबी दूरी की यात्रा तय कर सकते हैं। ऐसे में किसी भी तरह की आत्मा कौए के शरीर में वास कर सकती है और एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकती है। इन्हीं कारणों के चलते पितृ पक्ष में कौवों को भोजन कराया जाता है। ण्क मान्यता और भी है कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसका जन्म कौवा योनि में होता है। इस कारण कौवों के जरिए पितरों को भोजन कराया जाता है। पितृ पक्ष के दौरान कौवों के अलावा गाय, कुत्ते तथा अन्य पक्षियों को भी भोजन कराया जाता है। माना जाता है कि अगर इनकी ओर से भोजन को स्वीकार नहीं किया जाता है तो इसे पितरों का रुष्ट होना माना जाता है।

पौराणिक कथा के अनुसार, इंद्रदेव के बेटे जयंत ने कौवे का रूप धारण किया था। उस जयंत ने एक दिन सीता माता के पैर में चोंच मार दी, इस पूरी घटना को श्रीराम देख रहे थे। श्रीराम ने जयंत को मारने के लिए धनुष पर तीर चढ़ा लिया। जयंत घरा कर श्रीराम के चरणों पर गिर पड़ा। श्रीराम ने कहा कि उनका तीर व्यर्थ नहीं जा सकता। तब श्रीराम ने उसकी एक अंाख पर तीर चला दिया। साथ ही उसे क्षमा करते हुए आशीर्वाद दिया कि पितृ पक्ष में कौए को दिए गया भोजन पितृ लोक में निवास करने वाले पितर देवों को प्राप्त होगा।

कौवों को पितृपक्ष में भोजन कराने के यदि वैज्ञानिक पक्ष को देखें तो इसकी आवश्यकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। भादो माह में पितृ पक्ष आता है और यह ऐसा समय होता है जब मादा कौवा अंडे देती है। इस दौरान मादा कौवा बच्चों को छोड़कर ज्यादा दूर नहीं जा सकती और उसे बच्चों के लिए अतिरिक्त भोजन की जरूरत भी होती है। ऐसे में पितृपक्ष के दौरान कौवों को भोजन कराकर कौवों की प्रजाति को संरक्षित किया जाता है। इसके साथ ही दूसरा पक्ष है कि कौवा बरगद और पीपल के फल खाता नहीं बल्कि निगलता है। कौवे का शरीर फल के गूदे को तो पचा लेता है, लेकिन उसके बीज को बीट के रूप में बाहर निकाल देता है। ऐसे में कौवे जहां बीट करते हैं, वहां यह पेड़ उग जाते हैं। बरगद और पीपल के पेड़ हमारे वातावरण के लिए बहुत उपयोगी हैं। इसलिए कौवों का संरक्षण बहुत जरूरी है। तीसरा पक्ष है कि कौवे ऊंचे वृक्षों की ऊंची डालियों पर अपना घोंसला बनाते हैं। अतः यदि हमें कौवों की उपलब्धता चाहिए तो अपने आस-पास ऊंचे-ऊंचे वृक्षों को भी बचाए रखना होगा। आज यदि हमें पितृपक्ष में कौवे दिखाई नहीं पड़ते हैं तो इसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं क्योंकि हमने बस्ती और घरों का विस्तार करने के लिए ऊंचे वृ़क्षों को बेरहमी से काट दिया है। यानी हमने उनके घर मिटा दिए हैं। अब यदि हम पौराणिक मान्यताओं को मानें तो यह तय है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के हमारे अपराध से हमारे पितर भी कदापि खुश नहीं होंगे। यूं भी हम जानते हैं कि जिस पर्यावरण को हमारे पूर्वजों ने लाखों वर्ष तक सहेजा, सम्हाला उसे हमने कुछ ही दशकों में संकटग्रस्त कर दिया। अतः इस बार पितृपक्ष में अपने पितरों को प्रसन्न करने और उन्हें मोक्ष दिलाने के साथ ही वाले प्राकृतिक तत्वों के संरक्षण का भी संकल्प लेना चाहिए।
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पुस्तक समीक्षा | साहित्यक इतिहास रचती एवं स्मृतियों को सहेजती पुस्तक | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 18.09.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक त्रयी प्रो. बहादुर सिंह परमार, नीरज खरे, शिवेंद्र शुक्ला की पुस्तक "हमारे नन्ना: रामजी लाल चतुर्वेदी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
साहित्यक इतिहास रचती एवं स्मृतियों को सहेजती पुस्तक
- समीक्षक  डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - हमारे नन्ना: रामजी लाल चतुर्वेदी
लेखक   - प्रो. बहादुर सिंह परमार, नीरज खरे, शिवेंद्र शुक्ला 
प्रकाशक - जे.टी.एस. पब्लिकेशंस, वी-508, गली नं.17, विजय पार्क, दिल्ली- 110053
मूल्य    - 395/-
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स्मृतियों को सहेजना अत्यंत आवश्यक होता है। विशेषरूप से एक ऐसे साहित्यकार की स्मृतियों को जो जनकवि की भांति जिया हो। जिसने अपनी रचनाओं में जनपक्ष को ही रेखांकित किया हो। कवि रामजीलाल चतुर्वेदी एक ऐसे ही व्यक्तित्व थे जो प्रगतिशील विचारों के पोषक थे। वे मंचों पर भी काव्यपाठ करते थे। उन्हें भारत भवन भोपाल में आयोजित प्रथम विश्व कविता सम्मेलन में भी काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे अपने अध्ययनकाल में चतुर्वेदी जी से कई बार मिलने का अवसर मिला। पन्ना में भी और छतरपुर में भी। वे जब भी पन्ना या उसके आस-पास कविसम्मेलन में काव्यपाठ के लिए पहुंचते तो हमारे घर अवश्य आते। भले ही दस-पांच मिनट को ही, किन्तु घर आ कर मां विद्यावती ‘‘मालविका’’ जी और वर्षा दीदी से भेंट अवश्य करते। मेरी दीदी वर्षा सिंह जी को उनके साथ मंच पर काव्यपाठ करने का अवसर भी मिला था। चूंकि व्यक्तिगत रूप से तत्कालीन समझ के अनुसार जितना मैं रामजी लाल चतुर्वेदी और उनके काव्य से परिचित रही वे स्मृतियां भी ताजा हो गईं इस महत्वपूर्ण स्मृति-पुस्तक को पढ़ कर जिसका नाम है -‘‘हमारे नन्ना: रामजी लाल चतुर्वेदी’’। इसके लेखक त्रयी हैं प्रो. बहादुर सिंह परमार, नीरज खरे तथा शिवेंद्र शुक्ल। 
जब कोई संस्मरणात्मक पुस्तक अथवा स्मृति-पुस्तक तैयार की जाती है तो उसका उद्देश्य यही होता है कि संबंधित व्यक्ति का समग्र व्यक्तित्व उसमें समाहित हो सके। ताकि जब कोई उस पुस्तक को पढ़े तो उसे संबंधित व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का पूर्ण बोध हो सके। ‘‘हमारे नन्ना: रामजी लाल चतुर्वेदी’’ पुस्तक को तैयार करने में निश्चित रूप से लेखक त्रयी ने भरपूर श्रम किया है तथा स्व. चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को समग्रता से प्रस्तुत करने का सुंदर प्रयास किया है। इस प्रकार की पुस्तकों का अपना अलग महत्व होता है। ये पुस्तकें तत्कालीन लेखन, विचारधारा, मुखरता का प्रतिनिधित्व करने के साथ ही साहित्यक इतिहास होती हैं। एक और उल्लेखनीय तथ्य कि प्रायः ग्रामीण अंचल के समर्थ से समर्थ साहित्यकार भी जीवनपर्यंत तथा मरणोपरांत भी हाशिए में रह जाते हैं और शनैः-शनैः उनके नाम विलोपित होते चले जाते हैं। रामजी लाल चतुर्वेदी भी मंचीय कवि होते हुए भी आकलन के नेपथ्य में चले गए। अतः प्रो. बहादुर सिंह परमार, नीरज खरे एवं शिवेंद्र शुक्ल ने ऐसे कवि की स्मृतियों एवं रचनाओं को एक पुस्तक के रूप में सहेजने का प्रशंसनीय एवं दस्तावेजी कार्य किया है। 
पुस्तक के संपादकीय में रामजी लाल चतुर्वेदी के व्यक्तित्व की प्रथम झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। लेखक त्रयी ने संपादकीय में लिखा है कि -‘‘हमारे नन्ना यानि छतरपुर के प्रगतिशील कवि, समर्पित कार्यकर्ता रामजी लाल चतुर्वेदी। जिन्होंने पूरा जीवन समाज की सेवा के लिए समर्पित किया। उन्होंने समाज के प्रत्येक उपेक्षित व शोषित वर्ग के लिए काम किया। जातिगत भेदभाव से परे वे समर्पित भाव से सामाजिक समरसता के लिए काम करते रहे।’’
इस पुस्तक में स्व. रामजी लाल चतुर्वेदी के गीत तथा लेख हैं। साथ ही उन्हें जानने वाले लोगो में से कुछ के संस्मरण भी सहेजे गए हैं जो चतुर्वेदी जी के व्यक्ति को समझने में सहायक हैं। रामजी लाल चतुर्वेदी की लेखनी में प्रखरता और स्पष्टवादिता थी। उनकी ये पंक्तियां देखिए-  
मुझे कुचलवा दो हाथी के, पद से पर मैं नहीं झुकूंगा।
सबको छोड़ गंग की कविता, सुनने को मैं यहीं रुकूंगा।
घनानंद आशिक सुजान पर, सुनिए मेरे घर ठहरे हैं।
जिन्हें नहीं व्यापे कवित्त रस, वे तो सबके सब बहरे हैं।  
वर्तमान में मंचों पर साहित्य की जो दशा है, वह किसी से छिपी नहीं है। सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए कथित कवि ओछी से ओछी कविताएं पढ़ते हैं, चुटकुलेबाजी करते हैं और आपसी छेड़-छाड़ का नाटकीय फूहड़ प्रदर्शन तक करते हैं। यह सब उस समय भी शुरू हो चुका था जब रामजी लाल चतुर्वेदी जैसे कवि मंचों पर काव्यपाठ करते थे। एक गंभीर विचारों वाले कवि को ऐसा ओछापन भला कैसे सहन होता? अतः उन्होंने ओछे कवियों पर कटाक्ष करते हुए स्वयं के लेखन के बारे में एक गीत लिखा कि -
सोचा मैंने कभी न ओछा,
उथला लिख शोहरत पा जाऊं। 
गजल कहूं या गीत लिखूं, 
बन कर शायर कवि नाम कमाऊं। 
एक छंद लिखना मुश्किल एक शेर कहना भारी है।
यहां मामला पेचीदा है, चलती नहीं होशियारी है।
रामजी लाल चतुर्वेदी एक फक्कड़ किस्म के व्यक्ति थे। वे सच कहने से झिझकते नहीं थे। इसीलिए आमजन मंचों पर तालियों से उनका स्वागत करता था। उनकी पंक्तियों में यथार्थ का तीखापन रहता था। उदाहरण के लिए उनके एक गीत का यह अंश देखें-
लो हम आ पहुंचे नगरी में, भाटों जैसे बिना बुलाए। 
हमने गीत लिखे हैं ऐसे, जिनमे भरी चाटुकारी है। 
उनको उतना नमन किया है, जो जितना अत्याचारी है। 
जिनके गले रेतने लायक, उनमें मालाएं पहनाई। 
जिन्हें कोसती जनता सारी, उनकी हमने स्तुति गा। 
अरे शहरियों जश्न मनाओ, गांव भले भूखा मर जाए। 
रामजी लाल चतुर्वेदी की एक रोचक रचना है ‘‘इलेक्ट्रिक फैन’’। इसमें उन्होंने इलेक्ट्रिक फैन का व्यंजनात्मक ढंग से अद्भुत प्रयोग किया है-
लक्ष्मी सुत कुबेर दास जेंटिलमैन। 
मैं निरीह प्यून सा इलेक्ट्रिक फैन। 
मुझको आपकी सर्विस बेहद भाती है।
मेरी आत्मा आपके ही गुण गाती है।
चतुर्वेदी जी का गांवों से जुड़ाव था। वे गांवों की समस्याओं को भली-भांति समझते एवं महसूस करते थे। किसानों के प्रति उनकी पीड़ा उनकी कविता ‘‘कवि और किसान’’ में देखी जा सकती है-
कवि जी, राम राम कह, हलवाहे ने जब रस घोला। 
मेरा दिल भर उठा, और उसके कानों में बोला।।
तुम किस हेतु जोतते हो, यह सारा खेत अभागा। 
इतने लगे थपेड़े फिर भी, तुम ना अभी तक जा।। 
रामजी लाल चतुर्वेदी की एक कविता सबसे अधिक लोकप्रिय हुई जिसका शीर्षक था ‘‘चंगेर का शिशु’’। इस कविता का भावपक्ष कवि की संवेदनाओं को भरपूर प्रकट करता है। पंक्तियां देखिए -
तुम्हें नहीं पैदा होना था, पैदा होकर बुरा किया है।
वह तेरा दुश्मन है शायद, जिसने तुझको जन्म दिया है।
तुम को जीवन भर रोना है, मार रहा तू किलकारी?
ऋण से गुथा पिता है तेरा, गुबरारी तेरी महतारी।
तू बीमार पड़ेगा कोई, तुझको कोई नहीं दवा लाएगा।
मां आहें भर रह जाएगी, पिता हल लिए बढ़ जाएगा।
    
 पुस्तक में रामजी लाल चतुर्वेदी के जो लेख रखे गए हैं वे हैं- ‘‘ईसुरी के काव्य में जनपक्षधरता’’, ‘‘इंदिरा गांधी की शहादत’’, ‘‘दलित साहित्य और संत कवि रैदास’’, ‘‘दलित आलोचकों के प्रेमचंद पर आक्षेप और उनके उत्तर’’, ‘‘बुंदेलखंड में दलित उन्नति की संभावनाएं’’ तथा ‘‘आपातकाल की प्रतिनिधि कविताएं’’।
कई महत्वपूर्ण और रोचक संस्मरण भी पुस्तक में हैं। डॉ के. के. चतुर्वेदी का ‘‘स्व. श्री राम जी लाल चतुर्वेदी जी नन्ना’’, बाबूलाल दाहिया का लेख ‘‘मुंह पर ही खरी खरी सुना देने वाले जन कवि श्री राम जी लाल चतुर्वेदी’’ गंगाप्रसाद बरसैंया का लेख ‘‘अद्भुत व्यक्तित्व के धनी रामजीलाल चतुर्वेदी’’, मौलाना हारून अना कासमी का संस्मरण ‘‘रामजीलाल चतुर्वेदी एक मुतजात शख़्सियत’’, वीरेंद्र खरे ‘अकेला’ का लेख ‘‘प्रेरक व्यक्तित्व श्री राम जी लाल चतुर्वेदी नन्ना’’, निदा रहमान का संस्मरण ‘‘हमारी यादों में लंबी दाढ़ी मटमैला कुर्ता वाला फकीर’’  और अंत में आभा श्रीवास्तव का संस्मरण ‘‘बेटी जैसा माना उन्होंने’’ 
पुस्तक को बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से तैयार किया गया है। मुखपृष्ठ पर स्व. रामजी लाल चतुर्वेदी की तस्वीर है तथा अंतिम बाह्य पृष्ठ पर उनकी अद्र्धांगिनी स्व. श्रीमती जानकी देवी चतुर्वेदी का छायाचित्र है। कव्हर के भीतर के पृष्ठों पर उनके साहित्यक आयोजनों की कुछ तस्वीरें हैं। पुस्तक का मुद्रण आकर्षक है। बस, पुस्तक के मूल्य को ले कर उलाहना दिया जा सकता है कि कुल 94 पृष्ठों की पेपरबैक पुस्तक का मूल्य रुपये 395/- बहुत अधिक है। इसे कम रखा जाना चाहिए था। वैसे, निःसंदेह सामग्री की दृष्टि से यह पुस्तक स्मृतियों को सहेजने के अपने उद्देश्य में पूर्णतया खरी उतरती है।   
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Monday, September 16, 2024

डॉ. वर्षा सिंह स्मृति रचनाकार सम्मान 2024 समारोह

मेरी दीदी डॉ. वर्षा सिंह जी की स्मृति में श्यामलम संस्था के तत्वावधान में विगत दो वर्ष से  प्रति वर्ष एक साहित्यकार को *"डॉ. वर्षा सिंह स्मृति रचनाकार सम्मान 2024"*  से सम्मानित किया जाता है। इस वर्ष हिन्दी दिवस पर यह सम्मान साहित्यकार श्रीमती सुनीला सराफ, सागर को प्रदान किया गया। 
     14 सितंबर 2024 को शास. कन्या स्नातकोत्तर उत्कृष्टता महाविद्यालय सागर के सभागार आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे डॉ. अजय तिवारी कुलाधिपति, स्वामी विवेकानन्द वि.वि. सागर, अध्यक्षता की डॉ आनंद तिवारी प्राचार्य शास. उत्कृष्टता कन्या महाविद्यालय, सागर ने तथा प्रमुख वक्ता थीं डॉ. लक्ष्मी पांडे वरिष्ठ लेखिका एवं हिंदी प्राध्यापिका डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर। स्नेहिल उपस्थिति रही श्रीमती मनीषा विनय मिश्रा अध्यक्ष जन भागीदारी समिति शास. कन्या उत्कृष्टता महाविद्यालय, सागर की। कार्यक्रम में स्वागत भाषण दिया श्यामलम अध्यक्ष श्री उमाकांत मिश्रा जी ने तथा कुशल संचालन किया डॉ. अमर कुमार जैन प्राध्यापक आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज ने। 
      इस अवसर पर श्यामलम संस्था की ओर से अहिंदी भाषी डॉ. के. कृष्णराव जी को "हिंदी सेवा सम्मान" से सम्मानित किया गया।
       श्रीमती सुनील सराफ के जीवन परिचय का वाचन किया साहित्यकार डॉ. सुजाता मिश्र ने तथा डॉ के. कृष्णराव के जीवन परिचय का वाचन किया श्यामलम संस्था के श्री रमाकांत शास्त्री जी ने। आभार प्रदर्शन किया डॉ अंजना चतुर्वेदी तिवारी वरिष्ठ प्राध्यापिका शास. कन्या उत्कृष्टता महाविद्यालय, सागर ने।
       सभागार में महाविद्यालय की छात्राओं, विदुषी स्नेहिल प्राध्यापिकाओं एवं शहर के विद्वतजन की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।
🙏आभारी हूं श्यामलम संस्था की ।
🙏आभारी हूं शास. कन्या उत्कृष्टता महाविद्यालय, सागर की।
🙏 आभारी हूं भाई माधव चंद्रा की जिन्होंने पूरे आयोजन को अपने कैमरे के द्वारा स्थायित्व प्रदान किया। 
🙏 उन सभी आत्मीयजन की आभारी हूं जिन्होंने कार्यक्रम में उपस्थित होकर कार्यक्रम की गरिमा बढ़ाई 🙏
     भाई माधव चंद्रा के द्वारा उपलब्ध कराई गई तस्वीरों में से कुछ को मैं यहां साभार साझा कर रही हूं।
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Sunday, September 15, 2024

डॉ (सुश्री) शरद सिंह आत्मरक्षा प्रशिक्षण कार्यशाला में बतौर अतिथि

डॉ (सुश्री) शरद सिंह आत्मरक्षा प्रशिक्षण कार्यशाला में बतौर अतिथि

"आज के माहौल में लड़कियों और महिलाओं को आत्मरक्षा के तरीके सीखना जरूरी है। इस दिशा में शस्त्र कला प्रशिक्षण एवं व्यक्तित्व कार्यशाला द्वारा महिलाओं और लड़कियों को लाठी, तलवारबाजी और कराटे सिखाया जाना एक महत्वपूर्ण शुरुआत है। इससे महिलाओं और बच्चियों में आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।" - कल, 14.09. 2024 को मैंने अपने उद्बोधन में कहा। अवसर था समष्टि वेलफेयर फाउंडेशन एवं सिद्धत्व संस्था द्वारा लाठी एसोसिएशन के सहयोग से संचालित की जा रही शस्त्र कला प्रशिक्षण एवं व्यक्तित्व कार्यशाला का सत्र।  सिटी स्टेडियम में आयोजित की जा रही इस कार्यशाला के सत्र में बतौर अतिथि डॉ (सुश्री) शरद सिंह अर्थात मेरे साथ उल्लेखनीय उपस्थित थी सांसद श्रीमती लता वानखेडे, रीजनल डायरेक्टर हेल्थ डिपार्मेंट डॉ ज्योति चौहान तथा अंत्योदय समिति की अध्यक्ष श्रीमती प्रतिभा चौबे की। इस अवसर पर सांसद श्रीमती लता वानखेडे जी ने कहा कि इस तरह कि आत्मरक्षा कलाओं को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए और इस दिशा वे भी प्रयास करेंगी।
     आयोजनकर्ता डॉ. निवेदिता रत्नाकर, दीपा तिवारी (विधि विशेषज्ञ) एवं डॉ. श्वेता नेमा इस आयोजन के लिए प्रशंसा एवं धन्यवाद की पात्र हैं। 
     हार्दिक आभार एडवोकेट एवं समाजसेवी दीपा तिवारी जी का जिन्होंने मुझे इस आयोजन में आमंत्रित किया 🙏
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