Thursday, September 5, 2024

चर्चा प्लस | बलिहारी गुरु आपने ! : शिक्षक जब खुद को ऐसा बना पाते हैं | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
बलिहारी गुरु आपने ! : शिक्षक जब खुद को ऐसा बना पाते हैं 
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                          
           भारतीय संस्कृति में शिक्षक का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। पुरातनकाल में शिक्षक गुरुकुल में निवास करते थे और वहीं विद्यार्थियों को शिक्षादान किया करते थे। समय के साथ शिक्षा के क्षेत्र में जो परिवर्तन हुए उन्होंने क्रमशः इसे व्यवसाय में परिवर्तित कर दिया। आज शिक्षा धनार्जन का साधन और व्यवसाय बन गया है। किन्तु वास्तविक पूंजी उसी शिक्षक के पास होती है जो अपने कर्म के प्रति ईमानदार रहता है। ऐसे शिक्षकों का स्थान समाज और विद्यार्थियों के हृदय में सदा रहता है। अब यह शिक्षक को स्वयं तय करना है कि वह किस तरह की पूंजी कमाना चाहता है?     
    भारतीय संस्कृति में गुरु अर्थात शिक्षक विद्यार्थियों के जीवन का निर्माता माना गया है। पौराणिक ग्रंथों एवं महाकाव्यों में अनेक ऐसे प्रसंग है जिनमें शिक्षक ने अपने शिष्य के जीवन को महत्वपूर्ण दिशा दिखाई। श्रीराम और श्रीकृष्ण जिन्हें ईश्वर का अवतार माना गया है, वे भी गुरुकुल में रह कर शिक्षा प्राप्त करते रहे। शिक्षा प्राप्त करने के साथ ही शिष्यों का कार्य होता था गुरुकुल परिसर की सफाई करना, चूल्हे के लिए लकड़ियां काट कर लाना और विशेष अवसरों पर भिक्षाटन भी करना होता था। यह सब भावी जीवन के निर्माण की प्रक्रिया थी जिसमें आगे चल कर शिष्य श्रम से न डरे, घमंड न करे और मिलजुल कर रहना सीखे। वहीं, शिक्षक अपने शिष्यों के साथ वत्सल भाव रखते थे। सभी शिष्य उनके लिए संतान की भांति होते थे जिनके जीवन को संवारना उनका दायित्व था। आज जब किसी शिक्षक द्वारा अपने विद्यार्थियों के साथ दुर्व्यवहार अथवा आर्थिक शोषण का समाचार सामने आता है तो शिक्षक की परंपरागत प्रतिष्ठा खण्डित होती दिखाई पड़ती है।

एक उत्तम शिक्षक का जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह मैं अपने अनुभव के आधार पर विश्वासपूर्वक बता सकती हूं। मेरे जीवन में कुछ शिक्षक ऐसे आए जिनकी दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति के कारण मुझे कुछ विषयों से अरुचि हो गई थी। किन्तु वहीं स्कूल और काॅलेज जीवन में कुछ ऐसे शिक्षक भी मिले जिनका मेरे जीवन पर सकरात्मक प्रभाव पड़ा। यूं तो मेरी माता जी डाॅ. विद्यावती ‘‘मालविका’’ स्वयं एक उच्चकोटि की शिक्षिका थीं किन्तु विद्यालय में उनसे पढ़ने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला और घर में वे मां पहले थीं, शिक्षिका बाद में। घर में मेरे आरंभिक शिक्षक रहे मेरे नानाजी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संत ठाकुर श्यामचरण सिंह। क,ख,ग,घ से ले कर अखबार पढ़ना तक मैंने उन्हीं से सीखा। फिर जब मैं नौवीं कक्षा में थी तो मेरी दीदी डाॅ वर्षा सिंह ने मुझे एक बार शिक्षा देने का प्रयास किया। वार्षिक परीक्षा के समय उन्होंने रात भर मुझे केमिस्ट्री में बेंजीन फार्मूला रटाया। जब सुबह परीक्षा के लिए निकलने के समय उन्होंने मुझसे वह फार्मूला पूछा तो मेरे दिमाग से वह गोल था। उसी पल दीदी ने घोषणा कर दी कि ‘‘मैं तुम्हें नहीं पढ़ा सकती।’’

उन दिनों मेरी एक टीचर थीं जिनका नाम था शमीम मसीह। अब वे कहां हैं, मुझे ज्ञात नहीं हैं। उनका स्वभाव बहुत मधुर था। वे मुझे अच्छी लगती थीं। वे कभी किसी को डांटती नहीं थीं, बस, प्यार से समझा देती थीं। वे सोशल स्टडीज़ के अलावा हमें क्राफ्ट सिखाया करती थीं। उन्होंने कार्डबोर्ड से चाय की ट्रे बनाना, राखी बनाना आदि बहुत-सी चीजें बनाना सिखाया था। उनके मधुर व्यवहार का मेरे बाल मानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उनकी उस समय की छवि मुझे आज तक याद है। 

दूसरे टीचर मुझे मिले महाविद्यालय में जिनकी शिक्षा पद्धति ने न केवल मुझे भारतीय इतिहास विषय से प्रेम करना सिखा दिया अपितु सही शिक्षण पद्धति भी सिखाई। उनका नाम है आर. डी. दास। कुछ समय पहले तक मुझे पता नहीं था कि वे इन दिनों कहां निवास कर रहे हैं। फिर संयोगवश छत्तीसगढ़ से चिकित्सक साहित्यकार डाॅ चंद्रकांत वाघ सागर आए और उन्हें मैंने चर्चा के दौरान बताया कि दास सर राजनादगांव के रहने वाले थे और शायद अब भी वहीं कहीं हों। सुखद आश्चर्य मुझे तब हुआ जब डाॅ वाघ ने उन्हें ढूंढ निकाला और मुझे उनका फोन नंबर भी उपलब्ध कराया। दास सर इन दिनों बालोद (छत्तीसगढ़) में रह रहे हैं। वर्षों बाद फोन पर उनसे बात करना कितना सुखद था, यह मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती हूं। दास सर के प्रति मेरी श्रद्धा उनकी शिक्षण पद्धति के कारण जागृत हुई थी। वे अपने काम के प्रति समर्पित थे। वे हमारी एक्स्ट्रा क्लासेस भी लिया करते थे। वे हमें इतिहास पढ़ाते थे। बिना किसी किताब या नोट्स के पूरी तारीखों सहित एक-एक घटना को इस तरह समझाते कि लगता कि इतिहास की वे सभी घटनाएं हमारी आंखों के सामने घटित हो रही हैं। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता था। उनकी शिक्षण पद्धति ने इतिहास को याद रखना इतना आसान बना दिया कि मुझे इतिहास विषय से इतना गहरा प्रेम हुआ कि आगे चल कर मैंने पहले मध्यकालीन भारतीय इतिहास में एम.ए. किया। फिर प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व में एम.ए. किया और इसके बाद खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्वों पर पीएच.डी. कर डाली। दास सर के समय याद की हुई ऐतिहासिक तारीखें आज भी मुझे यांद हैं। वे युद्धों की व्यूह रचना ब्लैकबोर्ड पर चित्रित कर के समझाते थे। बाबर और इब्राहिम लोदी की व्यूह रचना आज भी मैं कागज़ पर उतार सकती हूं। 
यदि सच कहा जाए तो दास सर से ही मैंने पढ़ाना भी सीखा। जब मैं स्वयं विद्यालयीन शिक्षिका बनी तो मुझे दास सर की शिक्षण पद्धति याद रही। मैं पूरी तैयारी कर के कक्षा में जाती थी और किसी पुस्तक या नोट्स की सहायता के बिना अध्यापन करती थी। उस दौरान मुझे अनुभव हुआ कि मेरी शिक्षण पद्धति का मेरे छात्र भी आदर करते थे। वस्तुतः छात्र ऐसे शिक्षक को कभी गंभीरता से नहीं लेते हैं जो शिक्षा देने में लापरवाही करते हैं। ईमानदारी से पढ़ाने वाले शिक्षक छात्रों को पसंद आते हैं।

मेरे जीवन में अल्पकालिक रूप से एक और शिक्षक रहे जिनका नाम था अंबिका खरे सर। उनसे स्कूली शिक्षा तो ग्रहण नहीं की लेकिन जब मैं काॅलेज में पढ़ रही थी तो मुझे अपना अंग्रेजी ज्ञान सुधारने की इच्छा हुई। उन दिनों पन्ना जैसी छोटी जगह में इंग्लिश कोचिंग का चलन नहीं था। मेरी मां ने अंबिका खरे सर से बात की तो उन्होंने मुझे सिखाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। मेरी पूरी स्कूली शिक्षा हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूल में हुई थी इसलिए अंग्रेजी की न तो मेरी रायटिंग अच्छी थी और न स्पेंलिंग्स सही रहती थी। ग्रामर की दशा तो पूछिए ही मत। लेकिन खरे सर ने बड़े धैर्य के साथ मुझे सिखाना शुरू किया। रायटिंग सुधरवाने के लिए चार लाईन वाली काॅपी में लिखने का अभ्यास कराने लगे। यह पढ़ कर सभी को हास्यास्पद लगेगा कि काॅलेज में पढ़ने वाली एक लड़की यानी मैं चार लाईन वाली बच्चों की काॅपी में रायटिंग सुधारने का अभ्यास करती थी। उन्होंने मुझे स्पेलिंग और उच्चारण के लिए बोल-बोल कर अखबार पढ़ने का निर्देश दिया। इन सबका काफी अच्छा नतीजा रहा। दुर्भाग्यवश यह सिलसिला अधिक समय तक नहीं चल सका। उन दिनों पत्रकारिता का कीड़ा मुझे काट चुका था अतः धीेरे-धीरे खरे सर के पास जाना छूट गया। आज सोचती हूं तो पछतावा होता है कि काश! कुछ समय और मन लगा कर उनसे पढ़ लिया होता। 

वस्तुतः हर व्यक्ति के जीवन में प्रभावी और कुछ अप्रभावी शिक्षक आते हैं। याद दोनों रह जाते हैं। लेकिन जिन शिक्षकों के कारण जीवन को सही दिशा मिलती है, वे हमेशा सम्मानजनक रूप से स्मृतियों में बने रहते हैं। जो निःस्वार्थ भाव से शिक्षा देते हैं उनके प्रति जीवनपर्यंत श्रद्धाभाव रहता है। क्या कोई ऐसे शिक्षक को सम्मान देना चाहेगा जिसने शिक्षा के बदले भरपूर पैसा वसूला हो। आज कोचिंग में पढ़ने वाले छात्र अपने कोचिंग सेंटर को याद रखते हैं, उसकी चर्चा करते हैं लेकिन वहां पढ़ाने वाले टीचर्स की नहीं। ऐसे टीचर्स पूरी मेहनत करते हैं, बच्चों का भविष्य संवारते हैं किन्तु एक व्यवसायी की भांति, इसलिए वे अपने छात्रों के दिलों में जगह नहीं बना पाते हैं। आज छात्र हों या उनके अभिभावक वे शान से यह तो कहते हैं कि उन्होंने कोटा में कोचिंग ली है, इन्दौर में कोचिंग ली है, बैंगलुरु में कोचिंग ली है लेकिन कोई सिर ऊंचा कर के एक भी नाम नहीं लेता है कि हमने फलां सर या मैडम से शिक्षा ली है। 

कभी सोचा है कि एकलव्य द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु क्यों बनाना चाहता था? या फिर कर्ण जैसा योद्धा परशुराम से ही शिक्षा लेने को इतना आतुर क्यों था कि शिक्षा पाने के लिए उसने झूठ बोला। इन दोनों प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि चाहे द्रोण हो या परशुराम अपनी विद्या में पारंगत थे। उस समय हर योद्धा उन्हीं से शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। इन दो गुरुओं की शिक्षणसंबंधी विशिष्टता को आज के शिक्षिकों को समझना चाहिए। क्योंकि यह तो शिक्षकों को स्वयं ही तय करना होगा कि उन्हें शिक्षा का व्यवसायी बनना है और केवल धन कमाना है अथवा शिक्षणकर्म को ईमानदारी से निभा कर धन के साथ सम्मान भी कमाना है। अर्थात् ‘‘बलिहारी’’ वाले शिक्षक बनना है अथवा दूकानदारी वाले शिक्षक।                   
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2 comments:

  1. सुंदर आलेख, अविस्मरणीय संस्मरण

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    1. हार्दिक धन्यवाद अनिता जी 🙏

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