Friday, September 27, 2024

शून्यकाल | मध्यप्रदेश ये शुरू हुआ था बीड़ी का पहला औद्योगिक निर्माण | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर


दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम -          

शून्यकाल

ध्यप्रदेश ये शुरू हुआ था बीड़ी का पहला औद्योगिक निर्माण

  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह


    बीड़ी सेहत के लिए हानिकारक है। उनके लिए भी जो बीड़ी पीते हैं और उन श्रमिकों के लिए भी जो बीड़ी बनाने का काम करते हैं। एक तम्बाखू पी कर फेफड़े गलाता है और दूसरा अनजाने में तम्बाखू के महीन पार्टिकल्स के कारण अपनी सेहत गवां देता है। फिर भी यह रेवेन्यू के लिए लाभप्रद रहा है इसीलिए इसे स्वविवेक पर छोड़ दिया गया है, सेहत की चेतावनी के साथ। यह जानना दिलचस्प है कि देश में मध्यप्रदेश में शुरू हुआ था बीड़ी का पहला औद्योगिक निर्माण।

      सन 2018 में सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से मेरी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी जिसका नाम है- ‘‘पत्तों में कैद औरतें’’। मेरी यह पुस्तक बुंदेलखंड में तेंदू पत्ता संग्रहण करने वाली और बीड़ी बनाने वाली औरतों के जीवन पर आधारित है। इस पुस्तक को लिखने के दौरान मैंने बीड़ी उद्योग के इतिहास को खंगाला तथा मई-जून की तपती गरमी में तेंदू पत्ता तोड़ने वाली महिलाओं के बीच भी गई। मैंने बीड़ी बनाने वाली महिलाओं के दुख-दर्द को निकट से देखा और उनसे बीड़ी बनाने की कला सीखने का प्रयास भी किया। इस दौरान मैंने उस पक्ष को भी देखा और महसूस किया जो बीड़ी श्रमिकों स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक थे। पूरे विस्तार से मेरी पुस्तक में पढ़ा जा सकता है। फिलहाल एक छोटा-सा अंश बीड़ी उद्योग के इतिहास का यहां दे रही हूं।

        भारत में बीड़ी का औद्योगिक निर्माण सन् 1902 ई. में मध्यप्रदेश के जबलपुर नगर में आरम्भ हुआ था। इसके पूर्व बीड़ी में प्रयुक्त होने वाले तम्बाकू का सेवन अन्य प्रकार से किया जाता था, जिसमें हुक्का प्रमुख था। तम्बाकू की खोज सर्वप्रथम कोलम्बस ने क्यूबा में बहंा के आदिवासियों की मदद से की थी। इसीलिए तम्बाकू का जन्म स्थान दक्षिण अमेरिका माना जाता है। तम्बाकू अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘टुबेको’ से बना है। सन् 1558 ई. में स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय के चिकित्सक फ्रांसिस्को फर्नान्डीज़ ने यूरोप को तम्बाकू से परिचित कराया। भारत में इसका सर्व प्रथम उल्लेख सोलहवीं शताब्दी में मिलता है। सन् 1605 ई. में पुर्तगाली व्यापारियों ने दरबारी असदबेग के माध्यम से तम्बाकू और हुक्का मुगल बादशाह अकबर को भेंट किया था। यद्यपि अकबर ने अपने जीवनकाल में एक ही बार हुक्के का प्रयोग किया क्योंकि अकबर के राजवैद्य हाकिम अली ने हुक्के का उपयोग करने से उन्हें मना कर दिया था। जहंागीर के काल में सर टाॅमस रो ने इंग्लैण्ड के राजा की ओर से जो उपहार दिए थे, उनमें तम्बाकू भी था।


       बुन्देलखण्ड में बीड़ी का औद्योगिक निर्माण इस क्षेत्र की विकट आर्थिक मंदी के कारण विकसित हुआ। पुराने दस्तावेज़ों और मौखिक इतिहास से पता चलता है कि बुन्देलखण्ड में ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा आगे चल कर अंग्रेजी शासन का सशस्त्र विरोध किए जाने के कारण बुन्देलखण्ड अराजकता और आर्थिक अव्यवस्था के एक लम्बे दौर से गुज़रा। इस क्षेत्र में कई छोटी-छोटी रियासतें एवं राज्य थे। उनमें परस्पर झड़पें तथा युद्ध होते ही रहते थे। सन् 1842 ई. में हुए ‘बुन्देला विद्रोह’ के  दौरान कई रियासतें अंग्रेजों से टकराने के साथ ही आपस में भी युद्धरत् रहीं। इसके बाद सन् 1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र बुन्देलखण्ड ही रहा। इस संग्राम में समूचा बुन्देलखण्ड संघर्षरत रहा। इस संग्राम में सम्मिलित होने वाली रियासतों एवं राज्यों का राजकोष युद्ध की भेंट चढ़ गया तथा संग्राम समाप्त होने पर अंग्रेजों ने अपनी दमनकारी नीतियों के अंतर्गत् बुन्देलखण्ड की आर्थिक स्थिति को रसातल में पहुंचा दिया। गरीबी और भुखमरी के कारण यह क्षेत्र डाकुओं, ठगों और पिण्डारियों का गढ़ बन गया।
        अंग्रेजी शासन स्थापित हो जाने के बाद लम्बे समय तक बुन्देलखण्ड को कारखानों एवं उद्योगों से वंचित रखा गया। अंग्रेजी शासन के पास तर्क था अस्थिरता के वातावरण का, जबकि इस क्षेत्र के लोग मानते थे कि तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी व्यक्तिगत चिढ़ के कारण उन क्षेत्रों में कोई भी उद्योग, धंधा पनपने नहीं देना चाहते हैं जिन क्षेत्रों के निवासियों ने उनका सशस्त्र विरोध किया था।
जिस समय बुन्देलखण्ड में गरीबी अपनी चरम सीमा पर पहुंच रही थी, बीड़ी उद्योग ने अपने पैर जमाए। जिन पूंजीपतियों के पास पूंजी बची हुई थी उन्होंने ‘काम से बदले अनाज’ की भांति बीड़ी लपेटने का काम कराना शुरू किया। अपने आरम्भिक चरण में इस उद्योग ने अनेक परिवारों को भूखों मरने से बचाया। आज भी यह उद्योग ‘आड़े वक़्त में काम आने वाला’ साबित होता है। यद्यपि गुटखा पाउच ने बीड़ी उद्योग को तगड़ा झटका दिया है। बीड़ी के मुकाबले गुटखा का सेवन एक फैशन के रूप में उभरा और कुछ ही समय में इसने प्रत्येक पान-बीड़ी की दूकान पर अपना राज स्थापित कर लिया। मूल्य के आधार पर भी सिगरेट की अपेक्षा गुटका पाउच ने बीड़ी को पीछे धकेला है। विडम्बना यह है कि गुटखा हो या बीड़ी, स्वास्थ्य के लिए दोनों ही हानिकारक हैं किन्तु राज्यों को इनसे राजस्व मिलता है और लोगों को रोजगार मिलता है। विशेष रूप से औरतों के लिए बीड़ी बनाने का काम घर के बाहर जा कर किए जाने वाले कामों से बेहतर माना जाता है।
        देश में लगभग 50 लाख श्रमिक बीड़ी श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं जिनमें अधिकांश महिला श्रमिक हैं। आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, बिहार, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में पंजीकृत श्रमिकों द्वारा बीड़ियां बनाई जाती हैं। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकांश क्षेत्रों के श्रमिक अपना व्यवसाय बदलने को उत्सुक हैं। बीड़ी बनाने के काम को वे विवशता में स्वीकार करते हैं। पूछे जाने पर यही कहते हैं कि ,‘बीड़ी नहीं बनाएंगे तो भूखों न मर जाएंगे?’ बाल श्रम संरक्षण 1986 के अंतर्गत बच्चों को खतरनाक उद्योगों में काम नहीं कराया जा सकता है। किन्तु बीड़ी बनाने का काम घरों में होता है तथा उन धरों में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को माता-पिता की निगरानी में सहायक के रूप में काम करने को आपत्तिजनक नहीं माना गया है। इन बच्चों को तम्बाकू के कणों और तेंदू पत्तों की कतरनों की सड़ी गन्ध के बीच जीवन बिताना पड़ता है जिससे उनमें दमा और तपेदिक होने की संभावना सर्वाधिक रहती है। इन बच्चों की माताएं जो मूल बीड़ी श्रमिक होती हैं, कंधे, गरदन, पीठ, पेट में दर्द तथा ऐंठन के साथ-साथ रक्ताल्पता की शिकार रहती हैं। आराम अथवा अवकाश के बिना काम, उचित पोषण आहार की कमी के कारण इन महिलाओं को गर्भावस्था के समय विशेष कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। धरेलू वातावरण भी धूल और गंदगी से भरा रहता है।  
       बीड़ी बनाने का काम देश के विभिन्न प्रदेशों में किया जाता है। कर्नाटक, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार राज्य इनमें प्रमुख हैं।  बीड़ी बनाने के लिए बुनियादी कच्चामाल अर्थात् तेंदू पत्ता सबसे अधिक मध्यप्रदेश में पाया जाता है अतः बीड़ी उद्योग का केन्द्र मध्यप्रदेश का होना स्वाभाविक है। मध्यप्रदेश में बीड़ी एवं सिगार अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत संस्थान तथा श्रमिक इंदौर, उज्जैन, भोपाल, जबलपुर, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, रीवा, सागर, होशंगाबाद, तथा चम्बल संभाग में हैं।
          बुन्देलखण्ड को बीड़ी उद्योग का गढ़ माना जाता है। यह क्षेत्र स्वतंत्रतापूर्व घोर अस्थिरता के दौर से गुज़रा, जिससे इस क्षेत्र में आर्थिक गिरावट तो आई ही, वहीं रूढ़िगत परम्पराओं ने भी अपनी जड़ें और गहरी कर लीं। लूटपाट और अशांति के कारण औरतों के लिए घर से बाहर निकलना उचित नहीं माना जाने लगा। जिस क्षेत्र में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने घोड़े पर सवार हो कर युद्ध भूमि में अपने साहस का प्रदर्शन किया था, उसी क्षेत्र में औरतों को लम्बे घूघंटों और ढेर सारे प्रतिबंधों में रहने के लिए विवश कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि इस क्षेत्र की औरतें अपने परिवार और अपने क्षेत्र के आर्थिक उत्थान में सहभागी नहीं बन सकीं। बहुसदस्यीय परिवार अकेले पुरुष सदस्यों के बल पर जीवन जीने के लिए विवश हो गया। जिस परिवार में कमाने वाले पुरुषों की संख्या अन्य सदस्यों की अपेक्षा बहुत कम थी, उस परिवार की आर्थिक स्थिति रसातल में जा पहुंची। इतनी विकट स्थिति में पहुंचने के बाद यह आवश्यक हो गया कि परिवार की औरतों को धनार्जन की छूट दी जाए किन्तु उस सीमा तक जितने में उन्हें घर की दहलीज न लांघनी पड़े।
बीड़ी महिला श्रमिकों द्वारा समय-समय पर अपनी समस्याओं को ले कर प्रदर्शन एवं आंदोलन किए जाते हैं। ‘सेवा’ जैसे अनेक सामाजिक संगठन तथा श्रमिक संगठन उनके इस प्रयास को सहायता एवं समर्थन देते रहते हैं। 
       बिहार के खैरा (जमुई) प्रखण्ड की महिला बीड़ी श्रमिक समय-समय पर सभाएं आयोजित कर के अपनी समस्याओं के निराकरण की मंाग शासन से करती रहती हैं। उनकी भी वही समस्याएं हैं जो शेष बीड़ी श्रमिकों की हैं, यथा-  परिचयपत्र न दिया जाना, पर्याप्त चिकित्सा सुविधा का अभाव, बोनस का अभाव, तथा श्रम विभाग द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी श्रमिकों को नहीं दिया जाना।
     उत्तर प्रदेश के झांसी जिला मुख्यालय में बीड़ी महिला श्रमिकों द्वारा किए गए प्रदर्शन एवं कामबंद हड़तालों के दौरान यह तथ्य सामने आया कि उत्तर प्रदेश में बीड़ी बनाने के बड़े केन्द्रों इलाहाबाद और गुरसहायगंज में भी शासन द्वारा निर्धारित पारिश्रमिक से कम राशि का भुगतान श्रमिकों को किया जाता है।
      गुजरात के अहमदाबाद में लगभग 15,000-25000 से अधिक श्रमिक बीड़ी उद्योग में संलग्न हैं। इन श्रमिकों की समसयाएं देश के अन्य बीड़ी श्रमिकों की समस्याओं से अलग नहीं है। दिन में लगभग 10 घंटे लगातार बीड़ी बनाने का काम स्त्रियों को थका देता है। कुछ वर्ष लगातार बीड़ियां बनाने का काम करने के बाद नेत्र ज्योति पर विपरीत असर और हाथ, पैरों, कंधों तथा उंगलियों में दर्द स्थाई रूप लेने लगता है।
     अर्थशास्त्रियों का मत है कि आर्थिक विपन्नता साहूकार को भी बढ़ावा देती है। जहां-जहां निर्धनप्राय बीड़ी श्रमिक थे, वहां-वहां साहूकारी तेजी से फूली-फली। बीड़ी श्रमिक अर्थतंत्र के विचित्र चक्र में फंस गए। जहां से उन्हें काम करने पर पारिश्रमिक मिला, वहीं से उन्हें ऋण भी लेना पड़ा। इस तरह उनकी नाममात्र की आमदनी भी कर्ज के बही-खाते पर चढ़ी रहती थी।
        अब सरकार बीड़ी श्रमिकों की ओर ध्यान दे रही है किन्तु उनमें स्वास्थ्य संबंधी सजगता लाना बेहद जरूरी है। क्यों खतरों के खिलाड़ी बन कर कमाया गया रेवेन्यू मानवता पर खरा नहीं उतरता है।
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