- डॉ. शरद सिंह
जनगणना 2011 के जारी आंकड़ों ने जोर का झटका जोर से ही दिया। इसने पढ़े-लिखे वर्ग की मानसिकता को भी बेनकाब कर दिया। इन आंकड़ों ने बता दिया कि बालिकाओं का अनुपात तेजी से घटता जा रहा है और गर्भ में ही स्त्री-भ्रूण को कालकवलित करा देने में शिक्षित वर्ग पीछे नहीं है। 10 साल में महिलाओं की प्रति 1000 पुरूषों पर संख्या 933 से बढ़कर 940 जरूर हुई, किन्तु छह साल तक के बच्चों के आंकड़ों में यह अनुपात घटकर 927 से 914 हो गया। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1961 की जनगणना में छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार लड़के पर लड़कियों की संख्या 976 थी। वर्ष 1971 में 964, 1981 में 962, 1991 में 945, 2001 में 927 और अब 2011 में 914 है। इस सिक्के का एक और पहलू है। वह है प्राणहर प्रसव का दुर्भाग्य जिसे स्त्री सदियों से झेलती आ रही है।
तीसरी दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा भारत अधिक विकास कर चुका है किन्तु प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के मामले में अन्य पिछड़े देशों से बहुत अलग नहीं है। भारत में असुरक्षित प्रसव के कारण होने वाली मृत्यु के आंकड़े भयावह हैं। इस प्रकार के प्रसव को ‘प्राणहर प्रसव’ कहना उचित होगा। प्रसव के दौरान होने वाली विश्व में होने वाली मातृ-मृत्यु की संख्या में भारत का आंकड़ा 20 प्रतिशत का है। देश में प्रतिवर्ष गर्भावस्था एवं प्रसव के दौरान 78 हजार महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। यहां प्रसव के दौरान 48 में से एक महिला की मौत का खतरा रहता है इसी आकड़े का एक और रूप देखें तो रांगटे खड़े हो जाएंगे कि देश में गर्भावस्था से संबन्घित कारणों से प्रत्येक आठ मिनट में एक गर्भवती की मौत हो जाती है। उल्लेखनीय है कि सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों में 1990 एवं 2015 के बीच गर्भवती-मृत्यु दर के अनुपात को तीन-चौथाई तक कम करना एक लक्ष्य के रूप में निर्धारित किया गया है।
प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के सबसे प्रमुख कारण हैं-अशिक्षा और गरीबी। सरकारी आंकड़ों के अनुसार आर्थिक रूप से कमजोर तबके की हर पांच मिनट में एक गर्भवती महिला प्रसवकाल के दौरान मौत के मुंह में चली जाती है। स्त्री के गर्भवती होने पर हर घर में बधाईयां गाई जाती हैं चाहे वह अमीर हो या गरीब। स्त्री का गर्भधारण उसे खाने-कमाने की समस्या से तो छुटकारा दिला नहीं सकता है। एक श्रमिक स्त्री को गर्भधारण के बाद भी वह आराम नहीं मिल पाता है जोकि उसे मिलना चाहिए। सरकार ने श्रमिक गर्भवतियों के लिए अनेक नियम-कानून बनाए हैं लेकिन उसका लाभ उन्हें कितना मिल पाता है इसमें कागजी और ज़मीनी आंकड़ों में बहुत अन्तर है। अच्छे और सुरक्षित प्रसव के लिए ‘अच्छे पैसे’ का समीकरण इन गरीब गर्भवतियों को प्रसव की उचित सुविधाएं उपलब्ध नहीं करा पाता है। 52 प्रतिशत महिलाएं अपने स्वास्थ्य की चिन्ता किए बिना गर्भधारण करती हैं क्यों कि उन्हें गर्भधारण का निर्णय करने का अधिकार नहीं होता है। परिवार के अभिलाषाएं और पति की इच्छा उन्हें इस बात का अधिकार ही नहीं देती हैं कि उन्हें गर्भ धारण करना चाहिए या नहीं? अथवा उन्हें कब और कितने अंतराल में गर्भधारण करना चाहिए? ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में लगभग 70 प्रतिशत महिलाएं घरों में अप्रशिक्षित दाइयों से प्रसव कराती हैं। यह भी उनकी इच्छा और अनिच्छा की सीमा से परे होता है। उन्हंे यह तय करने का अधिकार नहीं होता है कि वे कहां और किससे प्रसव कराएं? अर्थात् एक गर्भवती का गर्भधारण से ले कर प्रसव तक की यात्रा उसकी इच्छा की सहभागिता से परे तय होती है। इसी दुर्भाग्य के चलते प्रतिवर्ष लगभग एक लाख महिलाएं प्रसवकाल में अथवा इससे पूर्व प्रसव संबंधी परेशानियों के कारण अपने प्राण गवां देती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रसव के दौरान गर्भवती की मृत्यु का 24.8 प्रतिशत कारण हैमरेज, 14.9 प्रतिशत कारण संक्रमण और 12. 9 प्रतिशत कारण एक्लैंपसिया है। भारत में सबसे अधिक मृत्यु प्रसव कराते समय बरती जाने वाली असावधानी तथा संक्रमण के कारण होती है।
परिवार खुश होता है कि उनकी बहू उनके परिवार को संतान देने वाली है, पति प्रसन्न होता है कि उसकी पत्नी उसे पिता का दर्जा दिलाने वाली है किन्तु इन खुशियों के बीच गर्भवती की सही देखभाल, स्वास्थ्य-सुरक्षा तथा उसकी इच्छा-अनिच्छा की इस तरह अनदेखी कर दी जाती है कि दुष्परिणाम गर्भवती की मृत्यु के रूप में सामने आता है। जबकि एक गर्भवती सरकार या कानून से कहीं अधिक पारिवारिक दायित्व होती है। गर्भवतियों की मृत्यु के आंकड़े तब तक इसी तरह शोकगान की तरह गूंजते रहेंगे जब तक गर्भवती के प्रति परिवार अपना दायित्व नहीं समझेगा क्यों कि यह एक कटु सत्य है कि मात्र बधाई गाने से खुशियां नहीं पाई जा सकती हैं।
जीवनोपयोगी एवं विचारणीय लेख .....
ReplyDeleteबहुत ही चिंतनीय है....... गर्भवती महिलाओं की ओर न हम सब का ध्यान जाता है और न सरकार की योजनायें ही
सही तरीके से क्रियान्वित हो पाती हैं |
डा० शरद जी ,
ReplyDeleteआपने एक गंभीर मुद्दे को उठाया है ..समस्त आंकड़ों को देखते हुए सच ही दुःख होता है कि चिकित्सा के क्षेत्र में देश बहुत आगे बढ़ चुका है लेकिन फिर भी कितनी गंभीर परिस्थिति है ..सार्थक और जागरूक करने वाला लेख
डॉ. शरद!
ReplyDeleteयह हमारे समाज की बहुत ही गंभीर समस्या है.गरीब और अनपढ़ तो छोडिये .पड़े लिखे संपन्न तबके में ही यह समस्या देखी जाती है.जागरूक करने वाला सार्थक लेख..
आदरणीया डा० शरद जी ,
ReplyDeleteआपने बहुत ही जागरूकता वाली पोस्ट लिखी है ! आंकड़े बहुत ही चौकाने वाले हैं ! इन सब के बावजूद इस देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो ये कहता है ! " अगले जनम मोहे बिटिया ना दीजो " आप समझ सकती हैं वो वर्ग कौनसा है ! गरीब , मजबूर , मजदूर
जागरूकता फ़ैलाने वाली पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार
nari ki peeda ka byan krti post.
ReplyDeletekadva sach
सार्थक आलेख ... सारी परिस्थितियां चिंतनीय हैं..... सरकार, समाज और परिवार सभी अपनी जिम्मेदारी निभाए तो कुछ बात बने......
ReplyDeleteयथार्थ से परिपूर्ण लेख ...
ReplyDeleteएक कड़वा सच ||
वाकई आकड़े और स्थिति काफी सोचनीय है।
ReplyDeleteशरद जी, आंकड़े भयावह और हमारी मानसिकता को दर्शाने वाला आलेख है।
ReplyDeleteविषय के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए तल्ख हक़ीक़त को सामने रख कर लोगों में जागरूकता लाने का जो प्रयास आपने किया है वह निश्चय ही प्रशंसनीय है।
** एक आंकड़ा निश्चय ही रोचक होगा .. बिहार में नितीश शासन काल के पहले प्राणहर प्रसव और उसके शासन के पांच वर्ष बाद की संख्या।
उन्होंने कुछ योजना चलाई है उसका क्या प्रभाव पड़ा वह देखना काफ़ी दिलचस्प होगा। मैं भी खोज रहा हूं, आपको यदि मिले तो शेयर कीजिएगा।
सच में आपका लेख हकीकत ब्यान कर रहा है, जानदार बात सच्ची बात कही है, लेकिन ऐसा ज्यादातर गरीबों के साथ ही होता है
ReplyDeleteविचारणीय आलेख...!
ReplyDeleteसबको अपनी जिम्मेदारी उठानी ही होगी, इनसे निपटने के लिए. सरकार से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं कर सकते.
very thoughtful post !!!
ReplyDeletethis is the biggest problem what India is facing today and India can never become a developed country without solving this.
केवल विचारणीय आलेख नहीं है यह ..आने वाले संकट के प्रति आगाह है..जिसपर ध्यान देना होगा ..
ReplyDeleteजनगणना के आंकड़े दुखद करने वाले तो हैं ही साथ में परेशान करने वाले भी हैं...हम पिछले दस-बारह साल से कन्या भ्रूण हत्या निवारण को लेकर काम कर रहे हैं...sarkari अमला किसी भी रूप में कभी ये मानने को तैयार नहीं था कि आंकड़े इस तरह के होंगे.
ReplyDeleteआपने जो मुद्दा इसके साथ उठाया है वो चिंतनीय है..हम इन्हीं महिलाओं के बारे में चर्चा नहीं करते हैं...आज भी बहुत सी महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है.
हाल ही में एक केस देखने को मिला था जिसमें लड़की की उम्र थी मात्र १९ वर्ष और गर्भवती थी, इस हालत में उसका हीमोग्लोबिन मात्र ५.५ के आसपास था.....अंत आप समझ सकतीं हैं...
लेख आपकी चिंता को दर्शाता है....खुद को परेशान भी करता है.....शायद कुछ लोग इसे पढ़ के जाग जाएँ....
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
विचारपरक लेख...
ReplyDeleteआंकड़ापरक आलेख. मेहनत से लिखा है आपने.विचारणीय बिन्दुओं को उठाया है.वाह.
ReplyDelete"मदर्स वोम्ब चाइल्ड्स टोम्ब"जब तक बनना बंद नहीं होगा जब तक लड़के को बुढापे की लाठी समझने वाली भ्रांत धारणा ,दिल्युश्जन ज़ारी है .अब लड़के के हाथ में लाठी ही होती है भले पकड़ाई उसकी जोरू ने हो .
ReplyDeleteआपके इस लेख से स्पष्ट होता है कि हम कितने पिछड़े हुए हैं और अभी भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमारी स्थिति भयावह ही कही जाएगी । स्त्री तथा स्त्री स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और नजरिए में बदलाव बेहद जरूरी है, स्वाभाविक है कि आर्थिक और सामाजिक स्तर पर इसके लिए विशेष ज़ोर देने की आवश्यकता है । अगर आप देखें तो इस तरह के सामाजिक मूलभूत मुद्दों पर समाजसेवियों का विशेष ध्यान हो ऐसा नहीं लगता । आकड़ों के साथ एक बहुत अच्छा विचारणीय लेख। धन्यवाद ।
ReplyDeletedarasal ye anupaat purush kee dayneey dashaa kaa anupaat hai....jise shaayad hi kabhi vo dekh paaye.....!!!
ReplyDeleteye anupat samanupat ban jaye rab se meri dua hai ,
ReplyDeleteisamen striyon ka sahyog jyada apekshit hai .soch badalani hogi. vishisth lekh prabhavit karta hai .
abhar ji
बहुत गंभीर मुद्दा...
ReplyDeleteअशिक्षा और गरीबी का इलाज ही खोजना होगा सर्वप्रथम...
सचमुच, अभी बहुत सी रूढियों को तोडना होगा।
ReplyDelete---------
बाबूजी, न लो इतने मज़े...
चलते-चलते बात कहे वह खरी-खरी।