लेख
- डॉ. शरद सिंह
‘ये किसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं? कि तुमसे बच्चे पैदा करना चाहती हूं? तुम्हें पसंद करती हूं.....बस, इसीलिए तुम्हारा साथ चाहती हूं।’ मैंने कहा था।
‘फिर पसंद? प्रेम नहीं?’
‘हां-हां, वहीं...प्रेम....प्रेम करती हूं तुमसे।’
‘मेरे साथ रहोगी...बिना शादी किए? लिव इन रिलेशन?’ रितिक ने चुनौती-सी देते हुए पूछा था और मैं रितिक के जाल में फंस गई थी। कारण कि मैं अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहती थी और ‘लिव इन रिलेशन’ वाला फंडा मुझे अपने ढंग जैसा लगा था। बिना विवाह किए किसी पुरुष के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की कल्पना ने मुझे रोमांचित कर दिया था। इसमें मुझे अपनी स्वतंत्रता दिखाई दी। मैं जब चाहे तब मुक्त हो सकती थी....वस्तुतः मुझे तो मुक्त ही रहना था....बंधन तो वहां होता जहां किसी नियम का पालन किया जाता।
बंधन!...... बंधन के जो रूप मैंने अब तक देखे थे उनमें स्त्री को ही बंधे हुए पाया था। पुरुष तो बंध कर भी उन्मुक्त था...पूर्ण उन्मुक्त। वह पत्नी के होते हुए भी एक से अधिक प्रेमिकाएं रख सकता था, रखैलें रख सकता था, यहां-वहां फ्लर्ट कर सकता था...फिर भी समाज की दृष्टि में वह क्षमा योग्य ही बना रहता। सच तो यह है कि मैंने अपने बचपन में ही बंधन को तार-तार होते देखा था। वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही तो था वह जो किसी फॉसिल के समान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित।
- यह एक छोटा-सा अंश है ‘कस्बाई सिमोन’ उपन्यास का। जो अनेक प्रश्न सामने रख जाता है।
‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्राता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्रा पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री यदि ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है?... और वह क्या खोती है?....क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है? उस किन-किन स्तरों पर समझौते करने पड़ते हैं? बड़ा ही कठिन विमर्श है यह।
यह माना जाता है कि स्त्री को आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। लेकिन यदि वह आर्थिक रूप से समर्थ हो, स्वयं कमाती हो तो क्या उसे समाज में सम्मान मिल सकता है? यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की एक पीढ़ी का बहुमुखी विकास हो चुका होता तो आज देश में महिलाओं की दशा का परिदृश्य कुछ और ही होता। उस स्थिति में न तो दहेज हत्याएं होतीं, न मादा-भ्रूण हत्या और न महिलाओं के विरुद्ध अपराध का ग्राफ इतना ऊपर जा पाता। उस स्थिति में झारखण्ड या बस्तर में स्त्रियों को न तो ‘डायन’ घोषित किया जाता और न तमाम राज्यों में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो पाती। महिलाओं को कानूनी सहायता लेने का साहस तो रहता।
स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है। घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। अभी स्त्रियों को अपना भविष्य संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना है। उन्हें अभी पूरी तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मातृत्व का अधिकार प्राप्त करना है जिस दिन उसे अपने सारे अधिकार मिल जाएंगे जो कि देश की नागरिक एवं मनुष्य होने के नाते उसे मिलने चाहिए, उस दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी साकार हो सकेगी। जिसमें स्त्री और पुरुष सच्चे अर्थों में बराबरी का दर्जा रखेंगे।
हर औरत अपने अस्तित्व को जीना चाहती है, पुरुष के साथ किन्तु अपने अधिकारों के साथ। पुरुष से अधिक नहीं तो पुरुष से कम भी नहीं। क्योंकि कम होने की पीड़ा सदियों से झेलती आ रही है और अब बराबर होने का सुख पाना चाहती है। यही ललक उसे ‘लिव इन रिलेशन’ के प्रति आकर्षित करती है। किन्तु यह तो जांचना आवश्यक है कि इसमें भी स्त्री क्या-क्या खोती है और क्या-क्या पाती है? ‘लिव इन रिलेशन’ वस्तुतः प्रेम और अधिकार का द्वन्द्व है जिसकी तह तक पहुंचना हर स्त्री के लिए आवश्यक है।
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(साभार- दैनिक ‘नेशनल दुनिया’ में 04.11.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)
- डॉ. शरद सिंह
‘ये किसने कहा कि मैं तुमसे शादी करना चाहती हूं? कि तुमसे बच्चे पैदा करना चाहती हूं? तुम्हें पसंद करती हूं.....बस, इसीलिए तुम्हारा साथ चाहती हूं।’ मैंने कहा था।
‘फिर पसंद? प्रेम नहीं?’
‘हां-हां, वहीं...प्रेम....प्रेम करती हूं तुमसे।’
‘मेरे साथ रहोगी...बिना शादी किए? लिव इन रिलेशन?’ रितिक ने चुनौती-सी देते हुए पूछा था और मैं रितिक के जाल में फंस गई थी। कारण कि मैं अपने जीवन को अपने ढंग से जीना चाहती थी और ‘लिव इन रिलेशन’ वाला फंडा मुझे अपने ढंग जैसा लगा था। बिना विवाह किए किसी पुरुष के साथ पति-पत्नी के रूप में रहने की कल्पना ने मुझे रोमांचित कर दिया था। इसमें मुझे अपनी स्वतंत्रता दिखाई दी। मैं जब चाहे तब मुक्त हो सकती थी....वस्तुतः मुझे तो मुक्त ही रहना था....बंधन तो वहां होता जहां किसी नियम का पालन किया जाता।
बंधन!...... बंधन के जो रूप मैंने अब तक देखे थे उनमें स्त्री को ही बंधे हुए पाया था। पुरुष तो बंध कर भी उन्मुक्त था...पूर्ण उन्मुक्त। वह पत्नी के होते हुए भी एक से अधिक प्रेमिकाएं रख सकता था, रखैलें रख सकता था, यहां-वहां फ्लर्ट कर सकता था...फिर भी समाज की दृष्टि में वह क्षमा योग्य ही बना रहता। सच तो यह है कि मैंने अपने बचपन में ही बंधन को तार-तार होते देखा था। वैवाहिक बंधन का विकृत रूप ही तो था वह जो किसी फॉसिल के समान मेरे मन की चट्टानों के बीच दबा हुआ था, एकदम सुरक्षित।
- यह एक छोटा-सा अंश है ‘कस्बाई सिमोन’ उपन्यास का। जो अनेक प्रश्न सामने रख जाता है।
‘लिव इन रिलेशन’ महानगरों में एक नई जीवनचर्या के रूप में अपनाया जा रहा है। यह माना जाता है कि स्त्री इसमें रहती हुई अपनी स्वतंत्राता को सुरक्षित अनुभव करती है। उसे जीवनसाथी द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना सहने को विवश नहीं होना पड़ता है। वह स्वयं को स्वतंत्रा पाती है। लेकिन महानगरों में अपरिचय का वह वातावरण होता है जिसमें पड़ोसी परस्पर एक-दूसरे को नहीं पहचानते हैं। कस्बों में सामाजिक स्थिति अभी धुर पारंपरागत है। ऐसे वातावरण में एक स्त्री यदि ‘लिव इन रिलेशन’ को अपनाती है तो उसे क्या मिलता है?... और वह क्या खोती है?....क्या एक कस्बाई औरत ‘लिव इन रिलेशन’ में मानसिक सुकून पा सकती है? उस किन-किन स्तरों पर समझौते करने पड़ते हैं? बड़ा ही कठिन विमर्श है यह।
यह माना जाता है कि स्त्री को आर्थिक अधिकार पुरुषों के बराबर न होने के कारण विवाहिताएं अपने पति द्वारा छोड़ दिए जाने से भयभीत रहती हैं। वे जानती हैं कि परितक्त्या स्त्री को समाज सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता है। लेकिन यदि वह आर्थिक रूप से समर्थ हो, स्वयं कमाती हो तो क्या उसे समाज में सम्मान मिल सकता है? यदि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महिलाओं की एक पीढ़ी का बहुमुखी विकास हो चुका होता तो आज देश में महिलाओं की दशा का परिदृश्य कुछ और ही होता। उस स्थिति में न तो दहेज हत्याएं होतीं, न मादा-भ्रूण हत्या और न महिलाओं के विरुद्ध अपराध का ग्राफ इतना ऊपर जा पाता। उस स्थिति में झारखण्ड या बस्तर में स्त्रियों को न तो ‘डायन’ घोषित किया जाता और न तमाम राज्यों में बलात्कार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो पाती। महिलाओं को कानूनी सहायता लेने का साहस तो रहता।
स्त्री की शिक्षा पर उसका परिवार उसका दस प्रतिशत भी व्यय नहीं करता है जितना वह उस स्त्री के विवाह में दिखावे और दहेज के रूप में व्यय कर देता है। परिवार के लिए पुत्र का महत्व पुत्री की अपेक्षा आज भी अधिक है। स्त्री का दैहिक शोषण आज भी आम बात है। घर, कार्यस्थल, सड़क, परिवहन, चिकित्सालय, मनोरंजन स्थल आदि कहीं भी स्त्री स्वयं को पूर्ण सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती है। अभी स्त्रियों को अपना भविष्य संवारने के लिए बहुत संघर्ष करना है। उन्हें अभी पूरी तरह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मातृत्व का अधिकार प्राप्त करना है जिस दिन उसे अपने सारे अधिकार मिल जाएंगे जो कि देश की नागरिक एवं मनुष्य होने के नाते उसे मिलने चाहिए, उस दिन एक स्वस्थ समाज की कल्पना भी साकार हो सकेगी। जिसमें स्त्री और पुरुष सच्चे अर्थों में बराबरी का दर्जा रखेंगे।
हर औरत अपने अस्तित्व को जीना चाहती है, पुरुष के साथ किन्तु अपने अधिकारों के साथ। पुरुष से अधिक नहीं तो पुरुष से कम भी नहीं। क्योंकि कम होने की पीड़ा सदियों से झेलती आ रही है और अब बराबर होने का सुख पाना चाहती है। यही ललक उसे ‘लिव इन रिलेशन’ के प्रति आकर्षित करती है। किन्तु यह तो जांचना आवश्यक है कि इसमें भी स्त्री क्या-क्या खोती है और क्या-क्या पाती है? ‘लिव इन रिलेशन’ वस्तुतः प्रेम और अधिकार का द्वन्द्व है जिसकी तह तक पहुंचना हर स्त्री के लिए आवश्यक है।
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(साभार- दैनिक ‘नेशनल दुनिया’ में 04.11.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)
‘लिव इन रिलेशन’ वस्तुतः प्रेम और अधिकार का द्वन्द्व है जिसकी तह तक पहुंचना हर स्त्री के लिए आवश्यक है।
ReplyDeleteबहुत सही निष्कर्ष है आपका।
सादर
bilkul hakikat ka varnan kiya hai apne
ReplyDeleteMera manana hai ki, live-in-relation is ridiculous, is relation me purush jan bujh kar rahna chahta hai taki at least parivarik aur samajik bandhano se ajad rahun aur yahi sonch striyon ki hai, par kya hamaro samaj aisa sonchta hai, nahi. yahan ultimately nooksan striyon ka hi hota hai. mai tamam aisi sonch rakhnewali striyon se aagrah hai ki isse bache, otherwise nooksan aapka hi hai. Isme striyon ko jagrit karne ki jaroorat hai, Ajadi sabko pasand hai par ye hame sonchna jaroori hai ki ham kis samaj me rahte hai, mai to ye bhi dekha hoon ki striyan videshon me ja kar aisa karti hain aur iska ant bhi bara bhyavah hua hai. hame foreign me aisa karne walon ka pata nahi chalta hai kyonki hame jankari nahi hoti aur yahan ki jankari easily ho jati hai, par situation same hai. Jeans, chhote kapde aur maximumum body expose kar ham apne aap ko ek alag class ka sonch lete hai par under jhank kar dekhenge to unki situation hamari un bahne jise aise class haye dristi se dekhte hai usse bhi buri hoti hai. Bhrun hatya mere samaj ka kodh hai, ise badlna jaroori hai, time lagega par ab mai dekh rahan hoon dhire2 badal rahan hai, isme phi hamare so called elite class hi doshi hain, isme doctoron ki bhumika aham hai, unki mansikta ko badlne ki jarurat hai, bahoot kuchh sudhar ho jayega...
ReplyDeleteरिश्तों में नए-नए प्रयोग करना कहाँ तक जायज है?
ReplyDeleteमुझे फिल्म "हम-तुम" के एक गीत की एक पंक्ति याद आती है --
"ये गोरे-गोरे से छोरे... हर लड़की प्यारी, बिन जिम्मेदारी...!"
नमस्कार !
ReplyDeleteमुक्त सहजीवन में भी नारी को पूर्ण स्वाय्त्तता नही मिल पाती. जैविक असमानता का क्या किया जाय?
अब लड़कियों की पढाई में पाले जैसी स्थिति नहीं है. काफी परिवर्तन हो चुका है. सरकार सभी के लिए समान शिक्षा केंद्र खोल दे तथा व्यावसायिक शिक्षा केन्द्रों की स्थापना कर दे तो स्थिति बदल जायेगी.
नमस्कार.
विचारपरक लेख...
ReplyDeleteमेरे लिए मुश्किल है लिव इन रिलेशनशिप स्वीकार कर पाना, हो सकता है मैं अभी दक़ियानूस हूं
ReplyDeleteलिव इन रिलेशनशिप में क्या स्त्री और पुरुष स्वतंत्र है? यदि हां तो यह खूबसूरत है।
ReplyDeleteलिभ इन रिलेसनशिप समयिकता से दो दो हाथ करने का अस्थायी समझौता है जिसमे वासना का पुट अधिकता में है ,जो चिरायु नहीं है l
ReplyDeleteमैं समझ नहीं पाती हूँ अक्सर की जब सब अधिकार विवाह वाले ही चाहिए तो लिव इन में रहने की आवश्यकता क्या !!!
ReplyDeleteदोनों का स्वतंत्र होना ही क्या पर्याप्त है? कुछ अधिकार और कुछ कर्तव्य ,परिवार और समाज के प्रति दायित्व ,इनका विचार कौन करेगा !
ReplyDeleteमानव जाति को ही जरा रुक कर सोचना होगा कि वे कहाँ जा रहे हैं..
ReplyDeleteहमारे समाज में स्त्री के विवाह के लिए व्याप्त रीती रिवाज और उनका स्थान महिलाओं को स्वतंत्रता के लिए लिव इन की तरफ आकर्षित कर रहा है. पर क्या वहाँ वे स्वतंत्र हैं? सोचना तो होगा जरा ठिठक कर.
ReplyDeletekya kaha jay es nayee paripati ko, bura kaho to paramprabadi aur sath do to aadhunikta aur khulepan ki gandi pratha, yah jivan ka kaisa such hai,
ReplyDeleteसम्बन्धों की आड़ में, वासनाओं का खेल।
ReplyDeleteस्वरथ के कारण यहाँ, होता तन का मेल।।
सहजीवन पर सहज टिपण्णी की है आपने ,इससे आगे है डबल इनकम नो किड्स बोले तो "डिंक ",ये नया दौर है .
ReplyDeleteAADARNIY ,
ReplyDeleteJAB TAK HAMARI DAKIYANUSI SOCH HAMARE SAATH RAHEGI , IS RISHTE KO HUM YA HAMARA SAMAAJ SAHI NAHIN THAHRAYEGA
Mai apna koi mat nai dunga mera mem se bas ek swal hai ki jab manav jaati ki utpatti hui tab stree purush kuchh isi tarah se rahte the fir vivah vyavastha aai .aaj hum fir isi vyabastha me jana chahte hai to 1.kya itihaas khud ko duhra raha hai 2.kya tab live in relationship logo ko jyada asabhya laga jo sabhyata k kram me id vyavastha ko apnaya 3 agar itihaas ki yah purnavriti hai tab to jaroor kuch sau varsh baad hum vivah vyavastha me lautenge
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