Dr (Miss) Sharad Singh |
मेरा कॉलम "चर्चा प्लस" "दैनिक सागर दिनकर" में (13. 06. 2016) .....
My Column Charcha Plus in "Dainik Sagar Dinkar" .....
चर्चा प्लस
दालों पर विदेश नीति से उपजते प्रश्न
- डॉ. शरद सिंह
दाल
उत्पादन की जो कृषि नीति मोजाम्बीक के लिए तय की गई है वह हमारे अपने देश में लागू
क्यों नहीं की जा सकती है? भारत
में किसानों के नेटवर्क तैयार क्यों नहीं किया जा सकता है? भारतीय
किसानों को वह बीज व उपकरणों सहित उचित टेक्नोलॉजी मुहैया क्यों नहीं कराई जा सकती
है जो मोजाम्बीक के किसानों को भारत उपलब्ध कराने वाला है। जब मोजाम्बीक के किसानों
को खेती शुरू करने के पहले आश्वस्त किया जाएगा कि उनकी उपज को भारत सरकार खरीदेगी जो
भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होगा, तो भारतीय
किसानों की खरीदी मूल्य में बढ़त क्यों नहीं की जा सकती है?
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper |
भारत
हमेशा से कृषि प्रधान देश रहा है। फिर भी अनेक कृषि उत्पाद ऐसे हैं जिनके लिए हमें
आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। गेंहू की प्रचुर उत्पादक क्षमता वाली कृषि भूमि के होते
हुए भी हमें कई बार मैक्सिको से तीसरे दर्जे का गेंहू आयात करना पड़ा है। प्राकृतिक
विविधता भरे इस देश में कृषि को ले कर तरह-तरह के संकट अकसर हमारे सामने आते रहे हैं।
कभी सूखा तो कभी अतिवृष्टि। इन संकटों का दुष्परिणाम झेलने वाले किसानों में आत्महत्या
की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। इस तरह की घटनाएं किसी मानसिक रोग के कारण नहीं बल्कि कृषि
की परिस्थितियों में असंतुलन एवं कृषिनीति की कमजोरियों के कारण घटित हुई हैं। ऐसी
स्थिति में देश के कृषकों की समस्याओं पर समुचित ध्यान देने और उनका स्थायी हल निकालने
के बजाए किसी दूसरे देश को खेती करने में मदद करने और उससे उसका उत्पाद खरीदने की नीति
एक ऐसी कंट्रास्ट तस्वीर दिखाती है जिसमें विदेश नीति की सफलता के चटख रंगों के साथ
आंतरिक नीति की कमजोरी के धूसर रंग भी प्रभावी हैं।
प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत की विदेश नीति ने अंतर्राष्ट्रीय पटल पर जितने ग्लैमर
के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ की है वह प्रशंसनीय है। देश का सर्वशक्तिमान कहा जाने वाला
देश अमरीका भी भारत की नीतियों का समर्थन करता दिखाई देता है। अपनी विदेशनीति के आर्थिक
समझौतों के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दालों की नीति पर सभी को चैंका
दिया है। देश में दालों की कमी के संकट का स्थायी समाधान ढूंढ़ने के प्रयास में सरकार
ने अफ्रीकी देश मोजाम्बीक के साथ अरहर एवं उड़द दालों के उत्पादन और खरीद के एक करार
को हाल ही में मंजूरी दे दी। इस करार को वर्ष 2016 की अब तक की विदेश नीति का सबसे
बड़ा जोखिम कहा जा रहा है। इस नीति के अंतर्गत सरकार ने 2020 तक दाल का आयात एक लाख
टन से बढ़ा कर दो लाख टन करने का लक्ष्य तय किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की
अफ्रीका के चार देशों की यात्रा आरम्भ होने से पूर्व संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी
मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दिल्ली में मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में
लिये गये फैसलों की जानकारी देते हुए बताया था कि देश में दालों की कमी को देखते हुए
बाहर से खासकर म्यांमार से दाल का आयात किया जाता है मगर उसका स्वाद भारत की दाल जैसा
नहीं होता है। इसे देखते हुए मोजाम्बीक को दालों की खेती में मदद करने और उससे सरकार
के स्तर पर दाल की खरीद के लिये करार करने का फैसला किया गया है जिसके मसौदे को मंत्रीमंडल
ने स्वीकृति दे दी है। प्रसाद ने बताया था कि अभी दाल का आयात एक लाख टन है जिसे
2020 तक दो लाख टन किया जायेगा। उन्होंने कहा कि मोजाम्बीक में जो दाल पैदा होगी, वह
भारत की दाल के स्वाद वाली होगी। इससे पूर्व वर्ष 2015 में नई दिल्ली में आयोजित किये
गये भारत-अफ्रीका मंच शिखर सम्मेलन में भाग लेने आये मोजाम्बीक के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री
मोदी के साथ द्विपक्षीय बैठक में कृषि के क्षेत्र में समझौते का प्रस्ताव रखा था।
दाल
उत्पादन की मोजाम्बीक योजना
केंद्रीय
खाद्य एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय द्वारा यहां जारी एक बयान के मुताबिक, प्रतिनिधिमंडल
में वाणिज्य मंत्रालय, कृषि तथा मेटल्स एंड
मिनरल्स ट्रेडिंग कॉरपोरेश ऑफ इंडिया (एमएमटीसी) के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं, जो सरकार
से सरकार के आधार पर मोजाम्बीक से दालों के
आयात के अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक उपायों पर चर्चा करेंगे। भारत स्थानीय एजेंटों के
माध्यम से मोजाम्बीक में किसानों के नेटवर्क
का पता लगाएगा और उन्हें बीज व उपकरणों सहित उचित टेक्नोलॉजी मुहैया कराएगा। खेती शुरू
करने के पहले इन किसानों को आश्वस्त किया जाएगा कि उनकी उपज को भारत सरकार खरीदेगी
और खरीदी मूल्य भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होगा।
दालों को ले कर कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए हैं, जैसे
-दालों का बफर स्टॉक 1.5 लाख से बढ़ाकर आठ लाख टन कर दिया जाएगा, बफर
स्टॉक बढ़ाने के लिए दाल आयात की जाएगी तथा अफ्रीकी देशों से अरहर जैसी दालों को आयात
किया जाएगा। इस दिशा में देश के उच्चस्तरीय अधिकारियों का एक दल दालों के आयात और ठेके
पर जमीन लेकर दालों की खेती की व्यवहार्यता जांचने के लिए दक्षिणी अफ्रीका के देश मोजाम्बीक
जाने वाला है।
दालों
की आयात स्थिति
भारत
की दालों की घरेलू मांग लगभग दो से ढाई करोड़ टन सालाना है। वर्ष 2015-16 में देश में
1.8 करोड़ टन दलहन उत्पादन का अनुमान है, कमी
को पूरा करने को अब तक पांच लाख 70 हजार टन दलहन आयात हो चुका है फिर भी दामों पर लगाम
नहीं लग रही है। मोजाम्बिक कोई पहला देश नहीं जिससे भारत दालें आयात करेगा, लंबे
समय से देश 40 से भी ज्यादा अलग-अलग देशों से दालें आयात करता रहा है। भारत सबसे ज्यादा
दालें कैनेडा से आयात करता है। देश में दालों के संकट से निपटने के लिए सरकार का लगातार
आयात की ओर बढ़ता रुझान भी जानकारों की राय में नया संकट लाएगा। बाज़ार विशेषज्ञों की
राय में दालों का आयात करने वाले देशों की संख्या बहुत कम है, ऐसे
में अगर भारत आयात पर निर्भरता बढ़ाता रहेगा तो दालों के ग्लोबल ट्रेडर भारत के लिए
दालों के भाव बढ़ा सकते है।
एक ओर
देश नीति निर्धारक अफ्रीका में दालों और तिलहन की खेती को बढ़ावा देकर वहां से सस्ते
में आयात करने की सलाह दे रहे हैं, जबकि
देश के कृषि वैज्ञानिक मानते हैं कि अगर देश में ही इन फसलों को बढ़ावा दिया जाए तो
अगले पांच वर्षों में संकट ही खत्म हो जाएगा। जरूरत को पूरा करने के लिए दाल और खाने
का तेल आयात करते हैं, जो अरबों रुपए इनके आयात
पर खर्च किए जाते हैं, अगर वो देश में इनकी
खेती को बढ़ावा देने में उपयोग हो तो अगले पांच वर्षों में आयात की जरूरत ही नहीं होगी।
दालनीति
में कालापन
यह सच
है कि दलहल व तिलहन की कुछ समस्याओं को वैज्ञानिक नहीं सुलझा पाए-उदाहरण के तौर पर
चने के पॉड बोरर (दाने में छेद करने वाला कीड़ा) का अभी तक समाधान नहीं कर पाए हैं लेकिन
दलहन उत्पादन की एक बड़ी समस्या यह भी है कि ज्यादातर खेती उन इलाकों में होती है जो
सिंचाई के लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर हैं। इससे किसानों की कठिनाइयां बढ़ जाती हैं।
फिर भी जो किस्में और तकनीक हमारे पास है, उनके
आधार पर परिदृश्य इतना निराशाजनक भी नहीं है कि समस्याओं से उबरा न जा सके। विचारणीय
है कि जो कृषि नीति मोजाम्बीक के लिए तय की गई है वह हमारे अपने देश में लागू क्यों
नहीं की जा सकती है ? भारत
में किसानों के नेटवर्क तैयार क्यों नहीं किया जा सकता है ? भारतीय
किसानों को वह बीज व उपकरणों सहित उचित टेक्नोलॉजी मुहैया क्यों नहीं कराई जा सकती
है जो मोजाम्बीक के किसानों को भारत उपलब्ध कराने वाला है। जब मोजाम्बीक के किसानों
को खेती शुरू करने के पहले आश्वस्त किया जाएगा कि उनकी उपज को भारत सरकार खरीदेगी जो
भारत सरकार द्वारा दिए जा रहे न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम नहीं होगा, तो भारतीय
किसानों की खरीदी मूल्य में बढ़त क्यों नहीं की जा सकती है? इन्हीं
प्रश्नों से जूझ रहे हैं इस समय भारत के बाज़ार और कृषि विशेषज्ञ। इस पर भी विचार किया
जा रहा है कि दालों की मोजाम्बीक नीति कहीं मात्र अफ़सरशाही की देन तो नहीं है ? यह भी विचारणीय है कि मोजाम्बीक नीति के चलते
दालनीति में कुछ कालापन है या पूरी दाल ही काली होने जा रही है ?
इस ओर
भी ध्यान देना होगा
दलहन
प्रोटीन का एक सस्ता स्रोत है जिसको आम जनता भी खाने में प्रयोग कर सकती है, लेकिन
भारत में इसका उत्पादन आवश्यकता के अनुरूप नहीं है। यदि प्रोटीन की उपलब्धता बढ़ानी
है तो दलहनों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इसके लिए उन्नतशील प्रजातियां और उनकी उन्नतशील
कृषि विधियों का विकास करना होगा। पिछलै 15-20 सालों में न तो दलहन के शोध पर ज्यादा
पैसा खर्च किया गया न ही उसके बाजारों को विकसित करने पर। विशेषज्ञों के अनुसार अभी
सरकार बफर स्टाक बना रही है पर वह पर्याप्त नहीं उसका और विस्तार जरूरी है। दलहन खरीद
को देश भर में गेहूं और चावल की खरीद जितना ही विस्तार देना होगा। दलहन की उन्नत किस्में
तैयार करनी होंगी, जो मौजूद है उनकी जानकारी
किसानों तक पहुंचानी होगी। साथ ही वैज्ञानिकों, गैर
सरकारी संस्थाओं और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भागीदारी तय करनी होगी। अन्यथा दाल उत्पादक
तो हतोत्साहित होंगे ही, आमजनता को आयातित दाल
खानी पड़ेगी और जिसके सस्ते होने की संभावना कम ही है।
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वाह बहुत ही अच्छी जानकारी ....
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