Wednesday, December 21, 2016

चर्चा प्लस ... अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे - डॉ.शरद सिंह

A tribute to Environmentalist Anupam Mishra ....
Dr (Miss) Sharad Singh
" अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे " - मेरे कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 20.12. 2016) .....My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper
 


चर्चा प्लस ..
अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे
-डॉ.शरद सिंह
हर शहर, हर कस्बे, हर गांव में पानी के ऐतिहासिक स्रोत यानी तालाब और बावड़ियां जब एक-एक कर के दम तोड़ रही थीं और लोग पेयजल संकट के आसन्न खतरे की ओर डरी हुई दृष्टि से देख रहे थे, उस समय पर्यावरणविद् #अनुपम_मिश्र ने लोगों का ध्यान जलस्रोतों के पुनर्जीवन की ओर खींचा। उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘‘ #आज_भी_खरे_हैं_तालाब ’’। इस पुस्तक ने मानो क्रांति ला दी। सबका ध्यान मरते हुए तालाबों और बावड़ियों की ओर गया और उन्हें बचाने के लिए लोग सक्रिय हो उठे। पर्यावरण के प्रति अनुपम मिश्र का यह जादुई योगदान सदा याद रखा जाएगा।


अनुपम मिश्र जाने माने गांधीवादी पर्यावरणविद् एवं पत्रकार के रूप में जाने जाते रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिए उन्होंने उस समय अपने प्रयास आरम्भ कर दिए थे जब देश में पर्यावरण का कोई विभाग नहीं खुला था। बिना किसी ठोस आर्थिक आधार के अनुपम मिश्र ने पर्यावरण के संरक्षण की दिशा में आकलन करते हुए जिस तरह संरक्षण के उपाय सुझाए वह करोड़ों रुपए बजट वाले विभाग और परियोजनाओं द्वारा भी संभव नहीं हो सका था। वे पर्यावरण के प्रति सजगता का विस्तार करना चाहते थे इसीलिए उन्होंने अथक प्रयास के के गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली में पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। उल्लेखनीय है कि वे गांधी शांति प्रतिष्ठान की पत्रिका ‘‘गांधी मार्ग’’ के संस्थापक और संपादक भी रहे। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्वपूर्ण काम किया। वे 2001 में दिल्ली में स्थापित सेंटर फार एनवायरमेंट एंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के ‘‘चिपको आंदोलन’’ में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में हुआ था। इनके पिता कवि भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के सुप्रसिद्ध रहे हैं। अनुपम मिश्र को बाल्यावस्था से ही साहित्य से जुड़ाव था किन्तु साहित्य से अधिक उन्हें प्रकृति लुभाती थी। उनके बचपन की एक घटना जो उन्होंने स्वयं एक बार गांधी शांति प्रतिष्टान में बालते समय सुनाई थी कि जब वे पांच वर्ष की आयु के थे तो एक दिन वे प्रतिदिन की भांति पिता के साथ मंदिर गए। मंदिर के पास चम्पा के एक पेड़ लगा था। पेड़ के नीचे फूल गिरे रहते थे। वे खेल-खेल में फूल उठा लिया करते थे। उस दिन भी उन्होंने फूल उठाया और अपने घर ले आए। उस दिन उनका ध्यान गया कि शाम तक फूल मुरझा गए हैं। उन्होंने अपने पिता से इसका कारण पूछा। पिता ने बालक की आयु के अनुसार सरल शब्दों में समझाया कि इस फूल को खाना-पानी नहीं मिला इसलिए यह मुरझा गया है। पिता की यह बात बालक अनुपम के दिल-दिमाग पर अपना छाप छोड़ गई। उसने सोचा कि जब पानी न मिलने से फूल का यह हाल हो गया तो यदि उसे स्वयं को भी पानी नहीं मिलेगा तो वह मर जाएगा। अनुपम मिश्र की आयु बढ़ी किन्तु यह विचार उनके मन में किसी भित्तिचित्र की भांति छपा रहा। समय और समझ के विकास के साथ-साथ अनुपम मिश्र ने पानी की महत्ता को और अधिक बारीकी से समझा। वे राजेन्द्र सिंह के बनाये तरूण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। सन् 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च ‘इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। सन् 2007-2008 में उन्हें मध्यप्रदेश सरकार के चंद्रशेखर आज़ाद राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें 2009 में उन्होंने टेड (टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन) द्वारा आयोजित सम्मेलन को संबोधित किया। 2011 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। विकास की अंधी दौड़ में दौड़ते समाज को प्रकृति की क़ीमत समझाने वाले अनुपम ने देश भर के गांवों का दौरा कर रेन वाटर हारवेस्टिंग के गुर सिखाए।
अनुपम मिश्र ने पर्यावरण पर महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं-‘‘राजस्थान की रजत बूंदें’’, ‘‘हमारा पर्यावरण’’ ‘साफ माथे का समाज’ और आज भी खरे हैं तालाब। इनमें से ‘‘आज भी खारे हैं तालाब’’ सबसे अधिक चर्चित एवं प्रभावकारी रही।
देश के जल स्रोतों के मर्म को दर्शाती इस पुस्तक ने भी देश को हज़ारों कर्मठ कार्यकर्ता दिए। अनुपम मिश्र द्वारा लिखित तथा गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक का पहला संस्करण 1993 में छपा था। सन् 2004 में प्रकाशित पांचवे संस्करण की कुल 23000 प्रतियां प्रकाशित हुई थीं। इस पुस्तक की ब्रेल सहित 13 भाषाओं में प्रकाशित हुई जिसकी अब तक लगभग दो लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। पुस्तक के पहले संस्करण के बाद देशभर में पहली बार अपने प्राचीन जल स्रोतों को बचाने की बहस चली, लोगों ने जगह-जगह स्थित तालाबों की सुध लेनी शुरू की। मैगासेसे पुरस्कार से सम्मानित राणा राजेंद्र सिंह बताते हैं कि राजस्थान की उनकी संस्था तरुण भारत संघ के पानी बचाने के बड़े काम को सफल बनाने में इस पुस्तक का बहुत बड़ा हाथ है। मध्यप्रदेश के सागर जिले के कलेक्टर बी. आर. नायडू इस पुस्तक पढ़ने के बाद इतना प्रभावित हुए कि जगह-जगह लोगों का आह्वान किया कि ’अपने तालाब बचाओ, तालाब बचाओ, प्रशासन आज नहीं तो कल अवश्य चेतेगा।’ उन पर इस पुस्तक का अत्यंत प्रभाव पड़ा जबकि वे अहिन्दी भाषी थे। कलेक्टर नायडू की ये मामूली अलख मध्यप्रदेश के सागर जिले के 1000 तालाबों का उद्धार कर गई। ऐसी ही एक और अलख के कारण शिवपुरी जिले के लगभग 340 तालाबों की सुध ली गई। मध्यप्रदेश के ही सीधी और दमोह के कलेक्टरों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में इस पुस्तक की सौ-सौ प्रतियां बांटी।
पानी के लिए तरसते गुजरात के भुज के हीरा व्यापारियों ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपने पूरे क्षेत्र में जल-संरक्षण की मुहिम चलाई। पुस्तक से प्रेरणा पाकर पूरे सौराष्ट्र में ऐसी अनेक यात्राएं निकाली गईं। पानी बचाने के लिए सबसे दक्ष माने गए राजस्थान के समाज को भी इस पुस्तक ने नवजीवन दिया। राजस्थान के प्रत्येक कोने में पुस्तक के प्रभाव के कारण सैकड़ों जल-यात्राओं के साथ-साथ हज़ारों पुरातन जल-स्रोत पुनर्जीवित किए गए।
जयपुर जिले के ही सालों से अकालग्रस्त लापोड़िया गांव ने इस पुस्तक से प्रेरणा ली और अपने जलस्रोतों के साथ ही चारागाहों को भी बचाया। लापोड़िया के सामूहिक प्रयासों का नतीजा यह रहा कि आज लगभग 300 घरों का लापोड़िया, जयपुर डेयरी को लगभग चालीस लाख वार्षिक का दूध दे रहा है। पुस्तक का प्रभाव उत्तरांचल में भी हुआ। यहां पौड़ी-गढ़वाल के उफरेखाल क्षेत्र के दूधातोली लोक विकास संस्थान के श्री सच्चिदानंद भारती ने पुस्तक से प्रेरणा पाकर पहाड़ी क्षेत्रों की विस्तृत चालों (पानी बचाने के लिए पहाड़ी तलाई) को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया। इस दौरान पिछले 13 सालों में उन्होंने 13 हज़ार चालों को जीवन प्रदान किया। गैर हिंदी भाषी राज्य कर्नाटक में इस पुस्तक का सीधा प्रभाव राज्य सरकार पर पड़ा। कर्नाटक सरकार ने तालाब बचाने का काम सीधे अपने ही हाथ में ले लिया और वहाँ एक जलसंवर्धन योजना संघ’ बनाया गया तथा विश्व बैंक की मदद से पूरे राज्य के तालाब बचाने की योजना तैयार की गई है। इसी राज्य की ही इंफोसिस कंपनी के मालिक श्री नारायणमूर्ति की पत्नी सुधा मूर्ति ने इस पुस्तक का कन्नड़ में अनुवाद किया और 50 हज़ार प्रतियां छपवाकर कर्नाटक की प्रत्येक पंचायत में भिजवाईं।
पंजाबी में इस पुस्तक का अनुवाद मालेरकोटला से प्रकाशित ’तरकश’ नामक पत्रिका में शुरू हुआ। फिर इसका एक संक्षिप्त पंजाबी संस्करण छपा जो मुफ्त में बांटा गया। कुछ वर्षों बाद इसके अनुवाद के साथ पंजाब के सुख-दुख जोड़कर एक पुस्तक बनाई गई। इस नए अनुवाद का व्यापक प्रभाव रहा। पंजाब के साहित्यकारों, आलोचकों, लोकगायकों, सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं के साथ-साथ प्रमुख संतों, यहां तक कि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्यों पर भी इसका खासा प्रभाव पड़ा। पंजाब के लोकगायकों ने इस पुस्तक को पढ़ने के बाद अपने तरीके से जलस्रोतों को बचाने की मुहिम शुरू की है।
जाने-माने गांधीवादी, पत्रकार, पर्यावरणविद् और जल संरक्षण की अलख जगाने वाले 68 वर्षीय अनुपम मिश्र ने नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में 19 दिसम्बर 2016 को अंतिम सांस ली। वे कई वर्ष से प्रोटेस्ट कैंसर से जूझ रहे थे फिर भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनके प्रयासों में कोई कमी नहीं आई थी। अनुपम मिश्र के व्यक्तित्व को वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के इन शब्दों के द्वारा बेहतर समझा जा सकता है कि “हमारे समय का अनुपम आदमी। ये शब्द प्रभाष जोशीजी ने कभी अनुपम मिश्र के लिए लिखे थे। सच्चे, सरल, सादे, विनम्र, हंसमुख, कोर-कोर मानवीय। इस ज़माने में भी बग़ैर मोबाइल, बग़ैर टीवी, बग़ैर वाहन वाले नागरिक। दो जोड़ी कुर्ते-पायजामे और झोले वाले इंसान। गांधी मार्ग के पथिक. ’गांधी मार्ग’ के सम्पादक। पर्यावरण के चिंतक। ’राजस्थान की रजत बूंदें’ और ’आज भी खरे हैं तालाब’ जैसी बेजोड़ कृतियों के लेखक।“
हर शहर, हर कस्बे, हर गांव में पानी के ऐतिहासिक स्रोत यानी तालाब और बावड़ियां जब एक-एक कर के दम तोड़ रही थीं और लोग पेयजल संकट के आसन्न खतरे की ओर डरी हुई दृष्टि से देख रहे थे, उस समय पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र ने लोगों का ध्यान जलस्रोतों के पुनर्जीवन की ओर खींचा, उन्हें उनकी गलतियों के प्रति सचेत किया, उन्हें रास्ता भी सुझाया। पर्यावरण के प्रति अनुपम मिश्र का यह जादुई योगदान सदा याद रखा जाएगा। निःसंदेह अनुपम के प्रयासों के तालाब हमेशा खरे रहेंगे।
------------------

No comments:

Post a Comment