Dr (Miss) Sharad Singh |
शिवरात्रि पर्व पर विशेष :
खजुराहो के शिव का शिल्पसौंदर्य
- डॉ. शरद सिंह
शिव समस्त संसार का कल्याण करने वाले देवता माने गए हैं। समुद्र-मंथन से निकला हुआ गरल यानी विष स्वर्ग में निवास करने वाले देवताओं को भी भस्म कर सकता था यदि शिव उसे अपने गले में धारण नहीं करते। आदि ग्रंथों एवं पुराणों में शिव के विविध रूपों का वर्णन मिलता है। यहां मैं अपनी पुस्तक ‘खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व’ का वह अंश दे रही हूं जिसमें खजुराहो की शिव प्रतिमाओं की पूर्ण विविधता का विवरण है।
Shivratri Pr Vishesh - Khajuraho Ke Shiv Ka Shilp Saundarya - Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik |
‘शिवपुराण’ के अनुसार जब देवताओं और असुरों ने समुद्र-मंथन किया तो उसमें हलाहल विष निकला। यह इतना घातक था कि देवताओं को भी भस्म कर सकता था। देवता हलाहल विष की विषाक्तता से भयभीत हो उठे तक शिव ने आगे बढ़ कर उस विष का पान कर लिया। लेकिन वे भी उसे यदि अपने गले से नीचे पेट में उतरने देते तो वह विष शिव को भी क्षति पहुंचा सकता था अतः विष को शिव ने अपने गले में ही रोक लिया जिससे शिव का गला नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। विष को गले में धारण करने के बावजूद उसका प्रभाव इतना तेज था कि उनके शरीर में जलन होने लगी और उन्हें गरती का अनुभव होने लगा तब वे हिमालय की ओर आकाशमार्ग से चल पड़े। बीच में विंध्य पर्वत के ऊपर से गुज़रते हुए उन्हें शीतलता का अनुभव हुआ और वे कुछ समय के लिए वहीं रुक गए। वह विश्रामस्थल कालंजर था। उस समय कालंजर में निवास कर रही देवी उमा से शिव ने विवाह किया और दोनों साथ-साथ कुछ समय वहां रहे। इसके बाद देवी उमा कामाख्या चली गईं और शिव हिमालय के लिए निकल पड़े। इस पौराणिक कथानक के आधार पर कालंजर में उमा-महेश्वर की अनेक प्रतिमाओं से ले कर विवाहमंडप तक मिलता है। शिल्पकारों ने जिस सुंदरता से कालंजर में नीलंकठ एवं उमा-महेश्वर के विवाह की कथा को पत्थरों में तराशा है ठीक उसी प्रकार खजुराहो में शिव के विवध रूपों की अनेक प्रतिमाएं हैं जो पौराणिक कथाओं पर आधारित हैं। सन् 2000 में डॉक्टरेट की उपाधि के लिए खजुराहो की मूर्तिकला पर शोध करते समय और उसके बाद ‘खजुराहो की मूर्तिकला के सौंदर्यात्मक तत्व’ पुस्तक लिखते समय मुझे खजुराहो के मंदिरों में मौजूद शिव प्रतिमाओं की सम्पूर्ण विविधता को देखने और जानने का अवसर मिला। मेरी यह पुस्तक सन् 2006 में विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी, उ.प्र. से प्रकाशित हुई। खजुराहो के मंदिर 950 से 1050 ई. के मध्य निर्मित हुए जिनमें मातंगेश्वर मंदिर प्राचीनतम हैं। विश्वनाथ मंदिर, लक्ष्मण और कंदरिया महादेव मंदिर के बीच की कड़ी है। इस मंदिर के मंडप दीवार पर लगे शिलालेख से पता चलता है, कि धंग द्वारा 1002 ई. में शंभु मरकतेश्वर के मंदिरों का निर्माण कराया गया था जिसमें मरकत तथा पाषाण निर्मित दो लिंगों की स्थापना का उल्लेख है। वर्तमान में पाषाण लिंग ही शेष है। इसी मंदिर के ठीक सामने नंदी मंदिर स्थित है। यह विश्वनाथ मंदिर का समकालीन है।
त्रिदेव में तीसरे देवता महेश अर्थात शिव हैं। जिनकी विविधता पूर्ण अनेक प्रतिमाएं खजुराहो के मंदिरों में मिलती है। ये एक ऐसे देव है जिनकी आराधना वैदिक काल से पूर्व सैन्धव युग में की जाती थी। वैदिक काल में शिव कारूद्र रूप अधिक प्रसिद्ध रहा। सांख्यायन तथा कौशितकि उपनिषदों में शिव, रूद्र, महादेव, महेश्वर, ईशान आदि नाम आते हैं। महाभारत में शिव के सहस्त्र नामों का उल्लेख हुआ है। उनके लिये शंकर, ईशान, शर्व, नीलकंठ, त्रयम्बक, धूर्जटि, नंदीश्वर, शिखिन, व्योमकेश, महादेव आदि नाम आये हैं। इन सभी रूपों में आयुध प्रतीकों की भिन्नता पायी जाती है, कभी शिव के हाथ में डमरू, खड्ग, खेटक, पारा तथा त्रिशूल रहता है तो कभी खप्पर, रूद्राक्षमाला, तलवार, धनुष, खट्वांग तथा ढाल आदि आयुध प्रतीक रहते हैं। खजुराहो में निर्मित शिव मूर्तियों में चतुर्भुजी, अष्टभुजी, बारहभुजी, सोलहभुजी रूप मिलते है। जिनमें विविध आयुध प्रदर्शित है।
चतुर्भुजी नटराज - दूला देव मंदिर में चतुर्भुज नटराज की मूर्ति है जिसमें उनकी प्रथम तीन भुजाओं में क्रमशः त्रिशूल, डमरू, खप्पर (कपाल) है जबकि चौथी भुजा भग्नावस्था में है। कुछ प्रतिमाओं में एक भुजा में अग्नि लिये हुये भी प्रदर्शित किया जाता है।
अष्टभुजी नटराज - खजुराहो संग्रहालय में स्थित अष्टभुजी प्रतिमा में उनकी आठों-भुजाओं में क्रमशः त्रिशूल, खड्ग, डमरू, खेटक, खट्वांग तथा खप्पर हैं। एक अन्य प्रतिमा में त्रिशूल, पाश, डमरू, अभय, कपाल अग्नि तथा घंटा प्रदर्शित है।
बारह भुजी नटराज - दूलादेव मंदिर में बारहभुजी नटराज की एक सुन्दर प्रतिमा है जिसमें बायां पैर नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है। भुजाओं में त्रिशूल, पाश, डमरू, खेटक, खट्वांग, खड्ग, खप्पर, दृष्टिगत् है।
कल्याण सुन्दर शिव - शिव का कल्याण सुन्दर रूप शिव पार्वती के विवाह के अवसर का है। खजुराहो संग्रहालय, वामन मंदिर तथा भरत चित्रगुप्त मंदिर में स्थित कल्याण सुन्दर शिव को त्रिशूल के आयुध प्रतीक से युक्त दिखाया गया है।
नीलकंठ - खजुराहो के विभिन्न मंदिरों में नीलकंठ शिव की मूर्तियां हैं। कंदरिया मंदिर में नीलकंठ की भुजाओं में पदम, त्रिशूल, खट्वांग, तथा विषपात्र है। भरत चित्रगुप्त मंदिर में नीलकंठ को विषपात्र, त्रिशूल खट्वांग कमंडलु, डमरू तथा कमल सहित दिखाया गया है। एक अन्य प्रतिमा में नीलकंठ को खप्पर, डमरू, कमल तथा खट्वांग धारी दिखाया गया है। लक्ष्मण मंदिर तथा कंदरिया मंदिर में उन्हें विषपात्र, डमरू, खट्वांग तथा कमंडलु युक्त प्रदर्शित किया है। पार्श्वनाथ मंदिर में आलिंगनबद्ध नीलकंठ की भुजाओं में खट्वांग एवं कमल नाल दिखाया गया है।
अघोर शिव - जगदंबा मंदिर में अघोर शिव की प्रतिमा है। जिसमें उन्हें शूल, डमरू, पाश, दंड, धारण किये हुये बताया गया है। पार्श्वनाथ मंदिर में खट्वांग, पुस्तक तथा नीलकंठ पक्षी धारी अघोर शिव है। पार्श्वनाथ मंदिर में शिव के हाथ में घंटिका है। कंदरिया महादेव मंदिर में अष्टभुजी अघोर प्रतिमा है। जिसमें खप्पर, त्रिशूल, शक्ति डमरू, घंटिका, सर्प, खट्वांग तथा कमंडलु दिखाया गया है। विश्वनाथ मंदिर में अघोर शिव त्रिशूल डमरू घंटिका गदा और कमंडलुधारी हैं। दूलादेव मंदिर में शिव अघोर की वरद् मुद्रा, सर्प, त्रिशूल, डमरू, खट्वांग और कमंडलु धारी हैं।
गज संहार शिव - खजुराहो में गज संहार शिव की विभिन्न प्रतिमायें हैं। कंदरिया महादेव मंदिर में सोलह भुजी गज संहार शिव है। जबकि कुछ अन्य प्रतिमायें बारहमुखी हैं। शिव के इस रूप में उन्हें त्रिशूल वज्र डमरू तथा हाथी का चमड़ा लिये हुये प्रदर्शित किया गया है।
भैरव - खजुराहो में दो प्रकार की भैरव प्रतिमायें है। प्रथम श्वान वाहन सहित तथा दूसरी नग्न प्रतिमा है। एक अन्य प्रकार भी भैरव प्रतिमा का है जिसमें उन्हें भैरवी के साथ आलिंगन मुद्रा में दिखाया गया है। इस प्रतिमा में भैरव चक्र (छल्ला), कमल तथा घंटिका धारी हैं। कंदरिया महादेव, वामन तथा चतुर्भुज मंदिर में नग्न भैरव को पेय पात्र, डमरू, घंटी, नरमुण्ड, सहित दिखाया गया है। विश्वनाथ मंदिर, जगदम्बा मंदिर, भरत चित्रगुप्त मंदिर तथा लक्ष्मण मंदिर में भैरव पेय, डमरू, घंटी, नरमुण्ड, तथा खड्ग लिये हुये हैं। विश्वनाथ मंदिर में भैरव की एक ऐसी प्रतिमा भी है जिसमें उन्हें कमल, सर्प, खट्वांग तथा नरमुण्ड लिये हुये दिखाया गया है। इसी प्रकार लक्ष्मण मंदिर में खड्ग, घंटिका तथा सर्प सहित वामन मंदिर में खड्ग, करबाल तथा खट्वांग सहित हैं। कंदरिया मंदिर की प्रदक्षिणा में खड्ग, जगदम्बा मंदिर में पाश तथा खड्ग तथा विश्वनाथ मंदिर में खेटक, खड्ग तथा सर्प सहित भैरव हैं। श्वान वाहन युक्त भैरव प्रतिमा में गदा, डमरू, घंटिका, खप्पर, कमल तथा सर्प आयुध प्रतीक हैं। आदिनाथ मंदिर में गदा, सर्प के साथ फल प्रदर्शित हैं जबकि विश्वनाथ मंदिर की प्रदक्षिणा में गदा, खड्ग सर्प तथा नरमुण्ड और दूलादेव मंदिर में स्थित प्रतिमा में खड्ग, ढाल तथा नरमुण्ड है। जगदम्बा मंदिर में भैरव की एक ऐसी प्रतिमा भी है जिसमें उनके एक हाथ में पक्षी तथा शेष दो हाथों में घंटिका तथा खट्वांग है।
त्रिपुरान्तक - खजुराहो में आलिंगन मुद्रा की त्रिपुरान्तक प्रतिमा है। जिसमें उन्हें, घट, धनुष, बाण तथा नरमुण्ड धारण किये हुये बताया गया है।
यदि मुद्राओं के आधार पर देखा जाए तो खजुराहो में मौजूद शिव की चतुर्भज प्रतिमाओं को ही तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है - प्रथम श्रेणी में शिव की वे चतुर्भुजी प्रतिमायें है जिनमें शिव वरद मुद्रा में त्रिशूल, घट तथा सर्प धारण किये है। द्वितीय श्रेणी में वे शैव मूर्तियां हैं जिसमें पहली भुजा वरद अथवा अभय मुद्रा में है। तथा दूसरी भुजा में त्रिशूल है। अन्य भुजाओं में पाश, कमल अथवा पुस्तक है। तृतीय श्रेणी में शिव की वे प्रतिमायें है जिनमें शिव के दूसरी अथवा तीसरी भुजा में सर्प प्रदर्शित है जबकि पहली भुजा वरद, अभय अथवा आलिंगन मुद्रा में है। वरद मुद्रा में दूसरे हाथ में पुस्तक अथवा कमल तीसरे में सर्प और चौथे में घट प्रदर्शित है। अभय मुद्रा में दूसरे हाथ में पाश तीसरे में सर्प तथा चौथा कटि पर है।
भारतीय शिल्पकला यूं भी अत्यंत समृद्ध है और जब उसमें कथानक का समावेश हो जाता है तो ऐसा लगता है जैसे प्रतिमाएं जीवंत हो कर उन कथाओं को स्टेज पर मंचित कर रही हों। यूं भी भारत में प्रतिमा निर्माण की परम्परा बहुत प्राचीन है। खजुराहो का मूर्तिशिल्प शिव प्रतिमाओं के बिना पूर्ण हो ही नहीं सकता था। शिव जो संहारक हैं तो कल्याणकर्त्ता भी हैं। भोले हैं लेकिन दुखहर्त्ता हैं। संभवतः खजुराहो का शैव-शिल्प भी यही कहना चाहता है कि -‘शिव सबका कल्याण करें!’
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(दैनिक सागर दिनकर, 14.02.2018 )
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