Wednesday, January 9, 2019

चर्चा प्लस ... साहित्य पर भारी पड़ती राजनीति और भयभीत आयोजक - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस ...
साहित्य पर भारी पड़ती राजनीति और भयभीत आयोजक
- डॉ. शरद सिंह
इस समय दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला चल रहा है। साहित्य की दुनिया का महाकुंभ। वहीं दूसरी ओर अखिल भारतीय मराठी साहित्य सभा के आयोजकों ने उद्घाटन कार्यक्रम के लिए लेखिका नयनतारा सहगल को भेजा गया आमंत्रण वापस ले लिया है, जिससे साहित्य जगत में चिंता की लहर दौड़ गई है। याद करना ही होगा कि इससे पहले नसीरुद्दीन शाह, प्रसून जोशी, जावेद अख़्तर, सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन को भी इसी तरह के कड़े विरोधों का सामना करना पड़ चुका है। क्या इस साहित्यकारों और कलाकारों पर राजनीतिक विचारों का दबाव बनाया जाना उचित है? प्रश्न विचारणीय है। 

चर्चा प्लस ... साहित्य पर भारी पड़ती राजनीति और भयभीत आयोजक - डॉ. शरद सिंह  Charcha Plus - Sahitya Pr Bhari Padati Rajniti Aur Bhayabhit Aayojak -  Charcha Plus Column by Dr Sharad Singh

एक ओर देश की राजधानी दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला चल रहा है, वहीं दूसरी ओर अखिल भारतीय मराठी साहित्य सभा के आयोजकों ने उद्घाटन कार्यक्रम के लिए लेखिका नयनतारा सहगल को भेजा गया आमंत्रण वापस ले लिया जाना साहित्यजगत को चिंता में डाल रहा है। अवार्ड वापसी अभियान से चर्चा में आई नयनतारा सहगल को कार्यक्रम में आमंत्रित किए जाने पर एक राजनीतिक संगठन ने इसमें बाधा पहुंचाने की कड़ी चेतावनी दी। जबकि राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की उपस्थिति में नयनतारा सहगल को 11 जनवरी को 92वें साहित्य सभा सम्मेलन का उद्घाटन कार्यक्रम तय किया गया था। सम्मेलन की अध्यक्षता करना है मराठी की विख्यात लेखिका अरुणा ढेरे को। सारा कार्यक्रम तय हो जाने के बाद, नयनतारा सहगल को आमंत्रणपत्र भेज दिए जाने के बाद एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए साहित्य सभा की स्वागत समिति के कार्यकारी अध्यक्ष रमाकांत कोल्टे ने बताया कि एक राजनीतिक संगठन की ओर से कार्यक्रम बाधित करने की धमकी के बाद यह फैसला लिया गया है कि नयनतारा सहगल के आमंत्रण को रद्द कर दिया जाए। यह फैसला इसलिए लिया गया है ताकि कोई अप्रिय घटना ना हो।
नयनतारा सहगल अंग्रेजी भाषा में लिखती हैं। इनका जन्म 10 मई 1927 को हुआ था। वे पहली भारतीय लेखिका हैं जिन्हें अंग्रेजी लेखन के लिए पहचान मिली। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित 91 वर्षीय लेखिका नयनतारा सहगल नेहरू-गांधी परिवार की सदस्य हैं। वे पंडित मोतीलाल नेहरू की बेटी विजयलक्ष्मी पंडित की बेटी हैं और पं. जवाहरलाल नेहरु की भतीजी हैं। उनकी किताबें बेस्ट-सेलर में गिनी जाती हैं। उन्होंने ‘‘द डे इन शेडो’’, ‘‘प्रिजन एण्ड चॉकलेट केक’’, ‘‘लेज़र ब्रीड्स’’, ‘‘रिच लाईक अस’’, ‘‘ए टाईम टू बी हैप्पी’’,‘‘मिस्टेकन आईडेंटिटी’’ जैसी अनेक चर्चित किताबें लिखी हैं।
मराठी साहित्य पर आधारित यह आयोजन 11 से 13 जनवरी तक होना है। ‘‘इंडियन एक्सप्रेस’’ के अनुसार लगभग एक महीने पहले सहगल को इस कार्यक्रम का उद्घाटन करने का निमंत्रण भेज दिया गया था। यह आयोजन अखिल भारतीय मराठी साहित्य महामंडल और यवतमाल के डॉ. वीबी कोलते संशोधन केंद्र अणि वाचनालय द्वारा आयोजित करवाया जा रहा है। आमंत्रण रद्द किए जाने पर लेखिका नयनतारा सहगल ने आयोजक समिति के कार्यवाहक अध्यक्ष रमाकांत कोलते को जवाब दिया है कि, ‘‘मैं समझ सकती हूं कि वर्तमान तनावपूर्ण परिस्थिति में आपको यह आमंत्रण रद्द करना पड़ रहा है। मुझे दुख है कि ऐसा हुआ।’’
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ’’देश में बढ़ रही असहनशीलता’’ के खिलाफ 2015 में चलाई गई ’अवॉर्ड वापसी’ मुहिम की अगुवाई करने वालों में सहगल शामिल रही हैं। उस समय अकेली नयनतारा सहगल ने नहीं अपितु अशोक वाजपेयी, शशि देशपांडे, सारा जोज़ेफ़, सच्चिदानंदन के साथ ही कन्नड़ साहित्यकार अरविंद मालागट्टी और कुम वीरभद्रप्पा ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करने की घोषणा की थी। मालागट्टी का कहना था कि ’’डॉक्टर कलबुर्गी की हत्या की वजह हम जानते हैं। हम इंतज़ार करते रहे कि अकादमी इस बारे में कुछ करेगी लेकिन उसके इस बारे में उसने कोई रुख़ अख़्तियार नहीं किया। दादरी की घटना और कलबुर्गी हत्याकांड इस बात का संकेत हैं कि न केवल संवैधानिक अधिकारों को कुचला जा रहा है बल्कि देश के सामाजिक तानेबाने को भी तोड़ा जा रहा है’’ उनके समर्थन में पंजाबी के नाटककार आतमजीत सिंह और साहित्यकार गुरबचन भुल्लर ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए थे। वीरभद्रप्पा ने भी दादरी हत्याकांड और साहित्य अकादमी की कथित विफलता पर अपना विरोध दर्ज कराया है। इसी तरह पंजाबी के नाटककार आतमजीत सिंह और साहित्यकार गुरबचन भुल्लर ने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए हैं। आतमजीत सिंह पंजाबी के जानेमाने नाटककार, निर्देशक और रंगकर्मी हैं जिन्हें वर्ष 2009 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने पुरस्कार वापसी के संबंध में बताया था कि ’’मेरे देश में जो कुछ हो रहा है, मुझे बहुत बुरा लग रहा है। हमारी सरकार एक्शन लेती हुई नज़र नहीं आ रही है। हम बहुसंस्कृति वाले देश में रहते हैं जहां सब किस्म के लोग हैं। हमें एक-दूसरे के धर्म और संस्कृति की कद्र करना आना चाहिए। कोई अपनी सीमा लांघता भी है तो इसका मतलब उसे मारना नहीं होता है। भारतीय संस्कृति में किसी को जान से नहीं मारा जाता।’’
दिसम्बर 2018 में इंसानियत का रास्ता दिखाने वाले सूफी संत हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के शहर अजमेर में एक कलाकार के विरोध का जो तरीका देखने को मिला वह प्रजातांत्रिक तो हरगिज नहीं कहा जा सकता है। नसीरुद्दीन शाह एक संवेदनशील बेहतरीन कलाकार हैं और अकसर देश एवं समाज के बुनियादी सवालों पर अपनी राय रखते आए हैं। प्रजातंत्र प्रत्येक व्यक्ति को बोलने की स्वतंत्रता देता है। लेकिन भीड़ की हिंसा पर दिए गए उनके बयान से उपजे विवाद ने उन्हें अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल में शामिल नहीं होने दिया। दरअसल, 03 दिसंबर 2018 को उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में कथित गोकशी के बाद हिंसा भड़क गई थी। हिंसा के दौरान किसी ने इंस्पेक्टर सुबोध सिंह को गोली मार दी गई थी जिससे उनकी मौत हो गई थी। नसीरुद्दीन शाह ने इस घअना के बाद एक वीडियो जारी किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘’समाज में जहर फैला हुआ है। मुझे मेरे बच्चों को लेकर चिंता होती है। अगर कभी भीड़ ने घेर कर उन्हें पूछ लिया कि तुम हिंदू हो या मुस्लिम तो वो इसका जवाब नहीं दे पाएंगे। देश में किसी पुलिसवाले की मौत से ज्यादा अहम गाय की मौत है।’’ उनके इस बयान को राजनीतिक रंग दे दिया गया और बीजेपी युवा मोर्चा कार्यकर्ताओं ने कार्यक्रम स्थल के बाहर उनका पुतला फूंककर जबरदस्त विरोध किया और नसीरुद्दीन को पाकिस्तान जाने की सलाह दी, तो कई राजनीतिक दलों ने शाह के बयान को देशविरोधी करार दिया था। कुछ उनके बयान को पाकिस्तान परस्ती से जोडकर देख रहे थे। समाचार एजेंसी ‘टाइम्स नाऊ’ के अनुसार इस तरह के उग्र विरोध से घबरा कर अजमेर से कुछ दूर पुष्कर में बंद दरवाजों के पीछे अज्ञात जगह पर नसीरुद्दीन के लिए एक सेशन का आयोजन किया गया। इसका संचालन उर्दू लेखक सैफ मोहम्मद ने किया। यहां नसीर ने अपनी किताब “नसीर का नजीर फिर एक दिन“ का विमोचन किया।
इससे पहले 19 जनवरी 2018 साहित्य के महाकुंभ के नाम से प्रसिद्ध पांच दिवसीय जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ( जेएलएफ ) में करणी सेना ने ऐलान किया था कि वे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सेंसर बोर्ड के चेयरमैन प्रसून जोशी को नहीं घुसने देंगे। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में प्रसून जोशी बतौर गीतकार बुलाए गए थे। करणी सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुखदेव सिंह गोगामेडी ने विरोध जताते हुए कहा था कि ‘‘प्रसून जोशी ने चंद रुपयों के लिए मां पद्मावती का सौदा किया है और ऐसे इंसान को जयपुर में नहीं आने देंगे।’’ इसके अलावा जावेद अख्तर के नाम पर भी करणी सेना का विरोध था। करणी सेना ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि अगर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में जावेद अख्तर आते हैं तो उनका विरोध किया जाएगा।
तमाम विरोधों के बाद समझौते हुए। फिल्म का नाम बदला गया और कुछ अंश काटने के बाद इसे न केवल सिनेमाघरों में बल्कि टेलीविजन के जरिए घर-घर में दिखाया जा रहा है। यह समझौते हिंसा और अपशब्दों के पूर्व पढ़े-लिखों की तरह किए जा सकते थे। इससे कलाकार की स्वतंत्रता का भी अपमान नहीं होता और संस्कृति के संदर्भ में हुई किसी भी भूल का सौजन्यता भरे वातावरण में सुधार हो जाता। इसी तरह सलमान रुश्दी और तस्लीमा नसरीन का भी विरोध किया गया था।
दरअसल, होना तो यही चाहिए था कि चाहे नयनतारा सहगल हों या नसीरुद्दी शाह या प्रसून जोशी याफिर सलमान रुश्दी, उन्हें मंच पर पहुंचने दिया जाता, अपना पक्ष रखने दिया जाता और फिर उसी मंच से उनके विरोधी उनके सामने अपना दृष्टिकोण भी रखते। यह सच है कि सभी राजनीतिक विचार कट्टर नहीं होते हैं। जैसाकि साहित्यकार रामवचन राय का कहना है कि ‘‘सत्ता का चरित्र हमेशा साहित्यकारों के दमन का नहीं रहा है तथा साहित्य की सत्ता राजनीति की सत्ता से कमतर नहीं होती।’’ वहीं रेवती रमन मानते हैं कि ‘‘साहित्यकार राजनीति के आगे मशाल जैसी जलने वाली सच्चाई है तथा साहित्य और राजनीति का संबंध द्वंद्वात्मक है और साहित्य की अपनी एक सत्ता है। साहित्य की सत्ता राजनीति को मशाल दिखाने का कार्य करती है।’’
वयोवृद्ध लेखिका नयनतारा सहगल का विरोध करने वालों को यह सोचना चाहिए कि आखिर लोग नयनतारा सहगल को जानना-समझना चाहते थे तभी तो आयोजक उन्हें आमंत्रित कर रहे थे। उनका आमंत्रण वापस करा कर उस समुदाय की इच्छा को ठेस पहुंचाई गई जो प्रत्यक्ष हो कर उस लेखिका के विचार सुनना चाहते थे। कोई भी विरोध कट्टरता भरे पूर्वाग्रह वाला हो तो वह उचित नहीं कहा जा सकता है। शास्त्रार्थ की परंपरा वाले इस देश में इस तरह की वैचारिक कट्टरता शोभा नहीं देती। यह संस्कृति को क्षति पहुंचाने वाला तत्व है। साहित्य पर भारी पड़ रही यह राजनीतिक कट्टरता चिन्तनीय है क्योंकि मौकापरस्त इस लाभ बड़ी आसानी से उठा सकते हैं। समय रहते इस कट्टरता को त्यागना जरूरी है।
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(दैनिक ‘सागर दिनकर’, 09.01.2019)

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