Tuesday, April 5, 2022

पुस्तक समीक्षा | 18 समीक्षाएं गोया 18 आख्यान | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


प्रस्तुत है आज 05.04.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखिका डॉ सुजाता मिश्र के समीक्षा संग्रह "18 समीक्षाएं" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
18 समीक्षाएं गोया 18 आख्यान
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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समीक्षा संग्रह - 18 समीक्षाएं
लेखिका     - डाॅ. सुजाता मिश्र
प्रकाशक    - अमन प्रकाशन, डाॅ. पन्नालाल साहित्याचार्य मार्ग, जवाहरगंज वार्ड, सागर (म.प्र.)
मूल्य      - 200 रुपए
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हिन्दी साहित्य के प्रख्यात आलोचक डाॅ नामवर सिंह कहते थे कि ‘‘आलोचना अथवा समीक्षा करते समय कृति के कलेवर पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, कृतिकार के ओहदे पर नहीं।’’ बड़ी मार्के की बात है ये। रचना सृजित करने वाला व्यक्ति किसी भी जाति, धर्म, वर्ग अथवा आर्थिक स्थिति का हो सकता है, महत्व उसका नहीं अपितु उसके लेखकीयकर्म का होता है। कई बार समीक्षक आवश्यकता से अधिक कठोर हो कर पुस्तक की समीक्षा करते हैं, इस बात को भूल कर कि जो उनकी दृष्टि में अनुपयोगी है, उसका महत्व किसी और की दृष्टि में उपयोगी हो सकता है। प्रत्येक नवोदित लेखक एक कोमलतापूर्ण सलाह, उचित मार्गनिर्देशन तथा प्रोत्साहन का भी अधिकारी होता है। नवोदित लेखकों में से ही तो श्रेष्ठ और वरिष्ठ लेखक सामने आते हैं। 
नुक्ताचीं खूब करो, याद रहे ये लेकिन
चांद में दाग, तो सूरज में तपन होती है।
इस जहां में नहीं होता है मुकम्मल कोई
फूल के साथ भी कांटों की चुभन होती है।
- मेरे विचार से यही वह बुनियादी बात है जिसे एक समीक्षक को हमेशा याद रखना चाहिए। उसे याद रखना चाहिए कि वह कोई अंतिम जज नहीं है की पुस्तक पर अपनी समीक्षा रूपी निर्णय सुना कर अपनी कलम तोड़ दे। किसी भी कृति का असली निर्णयाक, असली समीक्षक उसका पाठक वर्ग होता है। समीक्षक तो पुस्तक और पाठक के बीच एक सेतु का कार्य करता है। बस विशेषता यही होती है कि उसमें समीक्षक अपनी निजी टिप्पणी भी शामिल करने की छूट रखता है। यह सारी चर्चा इसलिए समीचीन है कि युवा लेखिका डाॅ सुजाता मिश्र की प्रथम कृति ‘‘18 समीक्षाएं’’ समीक्ष्य पुस्तक के रूप में मेरे सामने है। बड़े जतन से डिज़ाइन किया गया कव्हर पुस्तक के कलेवर की कलात्मक झलक देता है। क्योंकि कव्हर में अंकित ‘‘18’’ के अंक में उन सभी 18 पुस्तकों के नाम हैं जिनकी समीक्षाएं इस पुस्तक में निहित हैं। सादगी भरा किन्तु आकर्षक कव्हर और पुस्तक के भीतर मौज़ूद हैं वे अठारह समीक्षाएं जो डाॅ. सुजाता मिश्र ने की हैं। यह उनकी पहली पुस्तक है और पहली पुस्तक समीक्षाओं की पुस्तक होना सुजाता की साहित्यिक दृष्टि, अपेक्षाएं एवं आग्रह से परिचय कराने के लिए पर्याप्त है। वस्तुतः डाॅ सुजाता ने अपनी मौलिक दृष्टि से समीक्षाएं की हैं। उन्होंने अपना दृष्टिकोण अपनी इस पुस्तक के प्राक्कथन में इन शब्दों में स्पष्ट किया है कि - ‘‘आमतौर पर पुस्तकीय ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान को पृथक-पृथक करके देखा जाता है, लेकिन साहित्य की विद्यार्थी रहते हुए अभी तक मैंने जो कुछ पढ़ा समझा (साहित्य और साहित्येत्तर) है, अपने आसपास के समाज को जितना देखा-जाना है, उसके आधार पर मुझे लगता है कि पुस्तकीय ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं। पुस्तकीय ज्ञान के बिना सामाजिक व्यवहार की समझ विकसित नहीं हो सकती है। आज के इस सिमटते समाज में जहां रिश्ते-नाते विलुप्त से होते जा रहे हैं, बौद्धिक और व्यक्तित्व विकास के लिए अध्ययन आवश्यक शर्त हो जाती है। जितना ज़्यादा हम पढ़ते जाते हैं उतना ही ज़्यादा हम सीखते जाते हैं इतिहास को, राजनीति को, समाज को, व्यक्ति को, तमाम सांसारिक रिश्तों को और सबसे ज्यादा खुद को। जो किताबें हमारे मन को छूती हैं, चेतना को जगाती हैं, वही किताबें हमारे व्यक्तित्व का, हमारे जीवन मूल्यों का निर्माण भी करती हैं। किताबें हमारे अंतर्मन को मांजती हैं, शायद इसीलिए किताबों को सबसे अच्छा मित्र कहा जाता है। लेकिन क्या केवल अच्छी पुस्तकों को पढ़ना ही पर्याप्त है? नहीं! ज़रूरी है कि कुछ भी हमने पढ़ा हो उस पर चिंतन करें, उसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर सोचें जो सीखा उसे अपने भीतर उतार लें और अनावश्यक छोड़ दें।’’
डॉ सुजाता आगे लिखती हैं कि ‘‘यह पुस्तक एक प्रयास है मेरी अब तक की चुनिंदा समीक्षाओं को संकलित करने का। इस संग्रह में मैंने उन 18 पुस्तकों को चुना है जिन्होंने बतौर समीक्षक मुझे प्रभावित किया साथ ही मुझे कुछ नया सीखने के लिए प्रेरित किया।’’
डॉ. सुजाता ने जिन 18 पुस्तकों को समीक्षा के लिए चुना और उनकी समीक्षा की, वे हैं- है प्रो एसएल भैरप्पा की ‘‘आवरण’’, आशुतोष राणा की ‘‘रामराज्य’’, मीनाक्षी नटराजन की ‘‘अपने-अपने कुरुक्षेत्र’’, डॉ मनोहर अगनानी की ‘‘अंदर का स्कूल’’, श्री भगवान सिंह की ‘‘गांव मेरा देश’’, सूर्यनाथ सिंह की ‘‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’’, अरुणेंद्र नाथ वर्मा की ‘‘जो घर फूंके आपना’’, ओम भारती की ‘‘स्वागत अभिमन्यु’’, नीलिमा चैहान एवं अशोक कुमार पांडे की ‘‘बेदाद ए इश्क रुदाद ए शादी’’, राजकुमार तिवारी की ‘‘कुमुद पंचर वाली’’, अग्नि शेखर की ‘‘जलता हुआ पुल’’, आनंद कुमार शर्मा की ‘‘कभी यह सोचता हूं मैं’’ अशोक मिज़ाज बद्र की ‘‘किसी किसी पर गजल मेहरबान होती है’’ तथा ‘‘अशोक मिजाज की चुनिंदा गजलें’’, डॉ मनीषचंद्र झा की ‘‘गीतगीता’’, वीरेंद्र प्रधान की ‘‘कुछ कदम का फासला’’, डॉ प्रतिभा सिंह परमार राठौर की ‘‘शब्द ध्वज विशेषांक’’, चंचला दवे की ‘‘गुलमोहर’’ एवं डॉ वर्षा सिंह की ‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’। यह सभी पुस्तकें विविध विधाओं की हैं। इनमें उपन्यास भी हंै और काव्य संग्रह भी हैं, कहानी संग्रह भी है और ग़ज़ल संग्रह भी हैं। इनमें से अधिकांश पुस्तकें मेरी नज़रों से गुज़री है। मैंने उन्हें पढ़ा है। कुछ की मैंने भी समीक्षा की है तो कुछ की भूमिका लिखी है, कुछ के लोकार्पण की मैं सहभागी बनी हूं। जैसे सूर्यनाथ सिंह की पुस्तक ‘‘नींद क्यों रात भर नहीं आती’’ का विश्व पुस्तक मेले में जब लोकार्पण किया गया था तो उसमें मैत्रेई पुष्पा, गोपेश्वर सिंह, प्रेम जन्मेजय, महेश दर्पण, वीरेन्द्र यादव के साथ मैं भी सहभागी थी। सूर्यनाथ सिंह एक संज़ीदा लेखक हैं और उनकी यह पुस्तक विशेष अर्थवत्ता पूर्ण है। मीनाक्षी नटराजन कि ‘‘अपने-अपने कुरुक्षेत्र’’ महाभारत महाकाव्य पर आधारित है, जबकि ओम भारती की पुस्तक ‘‘स्वागत अभिमन्यु’’ कथा संवाद करती है। डॉ मनोहर अगनानी की पुस्तक ‘‘अंदर का स्कूल’’ एक संस्मरणात्मक पुस्तक है जिसकी भूमिका लिखने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ और जिसके कारण इस पुस्तक का मैंने प्रकाशन पूर्व ही गहराई से अध्ययन किया था। इसी प्रकार राजकुमार तिवारी की ‘‘कुमुद पंचरवाली’’ एक उपन्यास है जो स्त्री विमर्श का आग्रह करता है। आनंद कुमार शर्मा की पुस्तक ‘‘कभी सोचता हूं मैं’’ कविता संग्रह है तो अशोक मिज़ाज की पुस्तकें ‘‘किसी किसी पर ग़ज़ल मेहरबान होती है’’ और ‘‘...चुनिंदा गजलें’’ गजलों के संग्रह हैं। ‘‘गीतगीता’’ श्रीमद्भगवद्गीता का सरल भाषा में काव्यानुवाद अनुवाद है, वहीं ‘‘कुछ कदम का फासला’’ वीरेंद्र प्रधान का काव्य संग्रह है। ‘‘गुलमोहर’’ चंचला दवे का काव्य संग्रह है तो ‘‘ग़ज़ल जब बात करती है’’ डॉ वर्षा सिंह का ग़ज़ल संग्रह है। चूंकि डाॅ. वर्षा सिंह मेरी बड़ी बहन थीं, इसलिए मुझे इस संग्रह के प्रत्येक शेर के सृजन के दौरान उन्हें सृजित होते देखने और महसूस करने का अवसर मिला। यह सभी 18 पुस्तकें मैंने भी पढ़ी हैं इसलिए जब डॉ. सुजाता की ‘‘18 समीक्षाएं’’ पुस्तक मेरे सामने आई तो इन पुस्तकों के प्रति लेखिका के दृष्टिकोण को समझने में मुझे बहुत सुगमता हुई। इस संग्रह में कश्मीर में किए गए अमानवीय व्यवहार पर आधारित अग्नि शेखर की पुस्तक ‘‘जलता हुआ पुल’’ पर भी डाॅ. सुजाता ने अपनी जो समीक्षा शामिल की है उसमें उनके व्यक्तिगत विचार बहुत अर्थपूर्ण हैं।
यह पुस्तक इस बात का स्पष्ट संकेत करती है कि डॉ. सुजाता प्रत्येक उस पुस्तक की कथावस्तु अथवा विषय वस्तु का सूक्ष्मता से आकलन करती हैं, जिसे वे पढ़ती हैं। वे सरसरी तौर पर पुस्तक पढ़ कर उस पर टिप्पणी कर देना वे उचित नहीं समझती हैं। वे पुस्तक में कही गई बातों के मर्म को अपनी विशेष आकलन दृष्टि से देखती हैं तौलती है और तब उस पर गंभीरता से टिप्पणी करती हैं। डॉ. सुजाता की भाषाई पकड़ सुदृढ़ है। वे इस बात को जानती हैं कि कहां किन शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए, जिससे समीक्ष्य पुस्तक पर समुचित प्रकाश पड़ सके। लेखिका के पास एक सशक्त मौलिक विवेचनात्मक दृष्टि है। वे साहित्य क्षेत्र में अभी युवा हैं, इसलिए कहीं-कहीं कुछ अधिक कठोरता से भी तर्क दे प्रस्तुत कर देती हैं। वे स्पष्टवक्ता हैं और अपने निजी विचारों का समावेश करने में वे तनिक भी नहीं हिचकती हैं। जब किसी पुस्तक की समीक्षा की जाती है तो उसमें कई बार समीक्षक के लिए जरूरी हो जाता है कि वह अपने पूर्वाग्रह को, अपने निजी दृष्टिकोण को परे रखकर तटस्थता से यह देखें कि पुस्तक में क्या कहा गया है, क्यों कहा गया है और किस दृष्टिकोण से कहा गया है। अपने निजी विचारों, पूर्वाग्रहों एवं धारणाओं को परे रखकर पुस्तक की समीक्षा करना कठिन कार्य होता है जिसमें सुजाता जल्दी ही निष्णात हो जाएंगी। मुझे विश्वास है कि वे एक प्रखर समीक्षक के रूप में हिंदी साहित्य में अपना स्थान बनाएंगी क्योंकि उनमें साहित्य के प्रति एक विशेष समझ है। साहित्य के प्रति उनका रुझान, उत्सुकता एवं आग्रह रेखांकित किए जाने योग्य है। वे समीक्षा करते हुए मानो आख्यान गढ़ती हैं। इस दृष्टि से सुजाता की इस पुस्तक में उनकी अठारह समीक्षाएं अठारह आख्यान की भांति हैं।
डाॅ. सुजाता मिश्र एक प्रखर दृष्टि रखने वाली अत्यंत संभावनाशील लेखिका हैं। उनकी पुस्तक ‘‘18 समीक्षाएं’’ साहित्य के प्रति उनके गंभीर सरोकार का प्रमाण है। वे किसी परंपरागत फॉर्मेट में पुस्तकों की समीक्षा  नहीं करती हैं वरन अपनी समीक्षा में पुस्तकों की विषयवस्तु का आकलन, विश्लेषण एवं समसामयिकता को भी रेखांकित करती हैं। समीक्षा पुस्तकों में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण है क्यों कि यह एक साथ विविध विधाओं की अठारह पुस्तकों से परिचित कराती है।                
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1 comment:

  1. वाह ! समीक्षाओं की समीक्षा का यह सुंदर आलेख है

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