"बतकाव बिन्ना की" अंतर्गत प्रकाशित मेरा लेख प्रस्तुत है- "हनी कऔ, मनी कऔ, उनखों सबई जनी की कऔ" साप्ताहिक "प्रवीण प्रभात" (छतरपुर) के मेरे बुंदेली कॉलम में।
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बतकाव बिन्ना की
हनी कऔ, मनी कऔ, उनखों सबई जनी की कऔ
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
ई दिना गर्मी इत्ती परन लगी के घरे से निकरबे में पसीनो चुअत आए। बाकी निकरने सो परतई आए। कल कछु काम से निकरने परो सो पैले मुतको पनी पी लओ। पुदीना चबा लओ। मनो हल्के में तो मताई संगे प्याज धरा देत्तीं, मनो अब नई धरो जात। काए से के प्याज बसान लगत आए। ने तो प्याज से अच्छो कछु नइयां लू-लपट से बचबे के लाने। मनो अब डियो के आंगू प्याज को ले के को चलहे? बाकी मों पे हुन्ना लपेट लओ रओ। मूंड़ पे कैप सोई लगा लई हती। कारो चस्मा लगा लओ रओ। अब कछु ने कछु तो जतन करनई हतो लपट से बचबे के लाने। जेसई काम निपटो सो मैंने घर के लाने दौड़ लगा दई। पर जाने कहां लों भैयाजी आ टकराने।
‘‘अच्छी मिली बिन्ना! कुल्ल टेम से तुमाए लाने हेर रए हम तो।’’ भैयाजी अकुलाए से बोले।
‘‘ऐसो का हो गओ भैयाजी?’’
‘‘अरे कछु ने पूछो! हमाओ तो मूंड़ पिरा गओ सोंचत लों।’’ भैयाजी अपनो मूंड़ खुजात भए बोले। मोए समझ में आ गई के भैयाजी अपनी सुनाए बिगैर ने मानहें।
‘‘घरे चलो भैयाजी! जो कछु कैने-सुनने है उतई कइयो। इते ठाड़ी रई तो कछु देर में मोरो मूंड़ जरन लगहे। ऊंसई बाल झड़ रए, रए सए और बढ़ा जेहें।’’ मैंने कही औ भैयाजी के संगे घरे बढ़ लई।
कुंडी खोली। कमरा में पोंच के जान में जान आई। जैसई पंखों चलाओ के भैयाजी बोल परे,‘‘चाए तो पंखों ने चलाओ बिन्ना, बिजली मैंगी हो गई आए।’’
‘‘अब कछु हो जाए भैयाजी! गरमी से प्राण निकर जाएं ऊंसे तो भलो के जित्तो को बी आए बिल भर देबी। अभईं तो कूलर चलाने परहे। तब का करबी? बो कहो जात आए ना के मरे बिना स्वरग नईं मिलत, सो बिल भरे बिना हवा नईं मिलत। खैर, आप बैठो, हवा खाओ! जो लो ठंडो पानी ला रई आप के लाने।’’ मैंने कही।
‘‘फ्रिज को ने लाइयो! मटकिया को चल जेहे।’’ भैयाजी अपने माथे को पसीना पोंछत भए बोले।
‘‘मैं सोई फ्रिज को पानी नईं पियत हों। मोए सोई घड़े को पानी पोसात आए।’’ मैंने कही औ चैका में जा के भैयाजी के लाने पानी निकारो, संगे चाय को पानी चढ़ा दओ।
भैयाजी पानी पियत-पियत जो लो सुस्ताए, इत्ते में चाय बन गई।
‘‘अरे, ई की का जरूरत हती बिन्ना?’’ भैयाजी ने जे कहत भए चाय को मग पकर लओ। मनो उनकी बांछे खिल आईं हतीं।
‘‘भैयाजी, बो कहो जात आए ना के गरमी, गरमी को मारत आए, सो मैंने जेई सोच के चाय बना लई।’’ मैंने कही।
‘‘बड़ो अच्छो करो, बिन्ना! सांची कहों, मोए कुल्ल देर से चाय की तलब लग रई हती। तुमाई जैकारें होएं बिन्ना, तुमने हमाए मन की सुन लई।’’ भैयाजी गदगद होत भए बोले।
‘‘हमाई जैकारें की छोड़ो भैयाजी, आप तो जे बताओ के आप मोए से का बात करन चात हो?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ, पूछने तो है मनो कछु सकोंच सो सोई लग रओ आए।’’ भैया जी हिचकत भए बोले।
‘‘सकोंच कैसो? पूछ लेओ जो पूछने होए।’’ मैंने कही।
‘‘तो जे बताओ के जे हनी को कहाउत आएं?’’ भैयाजी ने मनो एकई सांस में पूछ लओ।
‘‘हनी माने शहद। अब इत्तो तो आप सोई जानत हो।’’ मोए ऐसे सवाल की आशा ने हती।
‘‘नईं, नई! बो वारो हनी नईं। बो आजकाल अखबारन में छपत रैत आए ना के ई हनीट्रैप हो गओ, ऊ हनीट्रैप हो गओ! मनो वैसे तो हमने जेई सुनी हती औ फिलम में बी देखी हती के अंग्रेजन घांई लुगाईयां अपने घरवारे खों हनी कै के पुकारत्तीं। हमने सोई तुमाई भौजी खों एक दफा हनी कैहबो सिखान चाओ, पर बे ठैरीं चिकनो घड़ो घांई। एक बेरा बी उन्ने मोए हनी कै के ने पुकारो। अब तो मुतकी साल हो गई ई बात खों। बाकी जे अखबार में हनी-मनी छपत आए, जो का आए?’’ भैयाजी अपनी रामकथा सुनात भए पूछन लगे।
‘‘अरे भैयाजी! आप सोई कहां की ले के बैठे हो। कछु लुगाइयां अपनी ब्यूटी दिखा के, मीठी-मीठी बोल के लुगवा हरन से पईसा ऐंठन के लाने उनखों उल्लू बना लेत आएं। मनो बेई ओरें बनत आएं जो चरित्तर के कच्चे रैत आएं। ने तो कोनऊं ढंग-ढार को ऐसो काए फंसहे? जेई तो हनीट्रेप कहाउत आए।’’ मैंने भैयाजी खों समझाओ।
‘‘हओ, सुनी तो हमने बी जेई हती।’’
‘‘सो मोसे काए पूछी?’’ मोए गुस्सा सी हो आई।
‘‘अरे, बिगड़ो ने! हमने सो ई से पूछी के जब शहद से लेबो-देबो नईयां तो इने हनी काए कहो जाए आए? जे हमाई समझ में ने आई।’’ भैयाजी बोले।
‘‘बो कहनात सुनी आए ना के जनम के आंदरे को नाव नैनसुख। कैबे में का, कछु कै लेओ। जे मीडिया वारन खों तनक तड़क-भड़क वारो नाम चाहने परत है ना, तनक जोन में चटखारे आएं। उनकी टीआरपी जेई में तो बढ़त आए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘हऔ, सही कै रईं बिन्ना! बे पैले जित्ती बी डकैत लुगाईयां होत्तीं, उने सुंदरी कहो जात हतो। चाए बे देखबे में ताड़का काए ने दिखात रईं, मनो दस्युसुंदरी कै के खबरें छपत हतीं। बो एक फिलम वारो हतो ना, शेखर कपूर। ऊके डायरेक्सन में बनी हती ‘बैंडिट क्वीन’। काए की क्वीन? डकैत को मनो डकैत बोलो। काए की सुंदरी, काए की क्वीन? हऔ, मनो अब हमें समझ में आ गई के जे हनी काए कहाउत आएं?’’ भैयाजी चमक के बोले।
‘‘का समझ में आ गई?’’ मोए अचरज भओ के डकैतन की कैत-कैत भैयाजी खों हनी हरन के बारे में का समझ में आ गई?
‘‘बोई जो तुमने पैलऊं कही हती के आंदरे को नाव नैनसुख, ऊंसई ताड़का खों नाव सुंदरी औ अब जे मकड़ियन खों नाव हनी कहानो। बाकी जे सोई मोए समझ में गई के जे हनी ओरें पईसन के लाने मकड़िया घांई जाल बुनत आएं औ लंपट लुगवा हरें खों फंसाउत आएं। सो इने हनी कओ, मनी कओ, उनखों सबई जनी की कओ। जोन के पास पइसा उनई के पांछू लग गईं। नासमिटीं...’’ भैयाजी तैस खात भए बोले।
‘‘जे का कै रए भैयाजी? तनक गम्म खाओ, मोरे आंगू ऐसो-वैसो ने बोलो। साजो नई लगत।’’ मैंने टोंकी।
‘‘काए, हमने का गलत कही? जेई घांई लुगाइयां सो सबई लुगाइन खों नाव खराब करत आएं। इनके बारे में ऐसो सजा-बजा के नई छापो चइए के दस्युसुंदरी घांई दो-चार जनी और हनीसुंदरी बनबे के लाने चल परें।’’ भैयाजी ने बात पते की करी। मनो अब हो चली हती कुल्ल देर सो मैंने भैयाजी से कही,‘‘आप बैठो, मैं तनक बासन मांज लेओं।’’
बे इशारा समझ गए औ बोले,‘‘नई बिन्ना, अब हमें चलन देओ। बाकी आज मजो आ गओ बतकाव कर के। का नाव बनाओ हमने ‘हनीसुंदरी’। अब कोनऊ अखबार या न्यूज चैनल वारे खों पकर के जे नाव बताने है। देखियो, उन ओरन खों पतो परन देओ, फेर जेई नाव चल परहे।’’ भैयाजी मुस्कात भए चले गए। रई बात हनीसुंदरी नाव की, सो जो कल-परों कोनऊ मीडिया में पढ़ो-सुनो सो समझ जइयो के जे भैयाजी की ईजाद आए। मनो मोए लगत आए के हनी हरन खों बी जे नाव पोसाहें।
मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। बाकी हनी जाने, मनी जाने, फंसन वारन की जनी जाने। मोए का करने। बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(07.04.2022)
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