Sunday, April 17, 2022

संस्मरण | बचपन की ठांव, तारों की छांव| डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नवभारत


नवभारत मेंं 17.04.2022 को प्रकाशित
हार्दिक आभार #नवभारत 🙏


संस्मरण
बचपन की ठांव, तारों की छांव
- डॉ (सुश्री) शरद सिंह
          माह अप्रैल और तापमान 43 डिग्री तक जा पहुंचे तो अतीत का वे अप्रैल बड़ी तीव्रता से याद आ रहे हैं जब घने पेड़ों के बीच छोटा-सा शहर था, गर्मी में भी ठंडक सहेजने वाला। वाकई, वे दिन कितने अच्छे थे जब पन्ना के हिरणबाग वाले अपने सरकारी घर में हम रहते थे। छोटे-छोटे दो कमरों, एक भीतरी आंगन और एक छोटे-से बरामदे वाला बहुत छोटा-सा घर। लेकिन मेरे लिए वह राजमहल से कम नहीं था क्योंकि वहीं मैंने आंखें खोली थीं और वहीं रहते हुए मैंने दुनिया को जानना और समझना शुरू किया था।
       मैं और मेरी वर्षा दीदी ! हम गर्मियों में शाम से ही घर के बाहरी आंगन में पानी का छिड़काव करके और नारियल से गुंथी हुई खटियां बिछा दिया करते थे। ज़रा ठंडापन होने पर बिस्तर बिछा देते थे और खाना बनने का इंतज़ार करते हुए बिस्तर पर पड़े-पड़े तारे देखा करते थे। बुधवार की रात को रेडियो सिलोन से 'बिनाका गीतमाला' सुना करते थे और शनिवार की शाम को विविध भारती से 'जयमाला' कार्यक्रम सुना करते थे। कभी-कभी 'हवा महल' कार्यक्रम के नाटक भी सुना करते थे, जब मां भी वहां मौज़ूद होतीं और रेडियो लगा देतीं। यह सब सुना जाता खुले आसमान के नीचे बिस्तर पर लेट कर।
      हम दोनों ही छोटे थे । स्कूल में पढ़ते थे। वैसे, दीदी मुझ से 5 साल बड़ी थीं और मुझसे अधिक समझदार थीं।  उस समय दीदी मुझे तारों के बारे में बताया करती थीं। वे जानती थीं कि कौन सा मेजर उर्सा है यानी बड़ी सप्तऋषि और कौन सा माईनर उर्सा यानी छोटी सप्तऋषि। हम सप्तऋषि तारों को 'बड़ी चोर खटिया' और 'छोटी चोर खटिया' भी कहा करते थे क्योंकि उन तारों के साथ कथाएं भी जुड़ी हुई थीं, जो हमारे नाना जी ने हमें सुनाई थीं। वर्षा दीदी को ध्रुवतारे का भी पता था। मुझको बताया करती थीं कि " वो देखो नीम के पेड़ के ठीक ऊपर जो तारा चमक रहा है वहीं ध्रुवतारा है। देखना, सुबह तक वह वही रहेगा।। वहां से हिलेगा भी नहीं।" सचमुच वह तारा वहां से नहीं हिलता क्योंकि वह ध्रुव तारा जो था। उन्हीं दिनों से मेरी खगोल विज्ञान के प्रति रुचि जागी। उन दिनों हमारे घर वाराणसी से प्रकाशित होने वाला दैनिक "आज" अखबार डाक से आया करता था, जिसमें कभी-कभी रात्रिकालीन आकाश का नक्शा यानी तारों की स्थिति प्रकाशित की जाती थी।  मैं उसकी कटिंग काट के रख लेती थी और बाद में टॉर्च की रोशनी में उसे देखते हुए आकाश की ओर देखकर पहचानने की कोशिश करती थी कि इसमें से वृषभ की आकृति कौन-से तारे बना रहे हैं और सिंह का आकार कौन सितारे बना रहे हैं? बृहस्पति कहां पर स्थित है और मंगल कहां दिपदिपा रहा है? मुझे उन दिनों पता चल चुका था कि शुक्र को भोर का तारा कहा जाता है। वैसे वह संध्या का तारा भी कहलाता था क्योंकि संध्या होने के समय ही वह क्षितिज पर दिखाई देने लगता था जबकि सुबह होने के समय भी वह क्षितिज पर दिखता था। बृहस्पति सबसे अधिक चमकने वाला तारा और मंगल हल्की लालिमा लिए हुए। इन सबके बीच चमकता शुक्र अपने आप में बड़ा खूबसूरत लगता था। तब पता नहीं था कि शुक्र यानी वीनस गर्म और जहरीली गैसों से भरा हुआ है। उस समय बस, मंगल के बारे में पता था कि वह एक गर्म ग्रह है।  
        आज जब गर्मी के दिन आते हैं और रात को कमरे के अंदर पंखा, कूलर चलाकर घुटन भरे माहौल में सोना पड़ता है तो खुले आसमान के नीचे गुज़ारी गई वे रातें  बहुत अधिक याद आती हैं। वे निश्चिंत राते़ं। चमकते तारों के नीचे बिस्तर पर लेट कर कल्पनाओं में डूबी हुई रातें। और हां, जब शुक्ल पक्ष होता था तो हम चंद्रमा की स्थिति को गौर से देखा करते थे। पूर्णिमा आते-आते उस पर दिखाई देने वाला धब्बा गहराने लगता था। जिससे कभी चंद्रमा पर चरखा चलाती बुढ़िया तो कभी बड़े क्रेटर का एहसास जाग उठता था। यानी फिक्शन और रियलिटी के बीच एक द्वंद चलता था। जब परस्पर विद्वता दिखानी होती तो हम आपस में क्रेटर्स की बातें करते और जब कल्पना लोक में विचरण करने का मन होता तो चरखा चलाती बुढ़िया की बातें करते। वर्षा दीदी बताती थीं ये जो चांद की किरणें हैं, वे उस बुढ़िया के द्वारा काते जा रहे रेशमी चांदी के धागे हैं जो पृथ्वी तक लटकते रहते हैं। उन्होंने यह कहानी नानाजी से सुनी थी और जिसमें अपनी तरफ से कुछ और काल्पनिकता का समावेश करके मुझे सुना दिया करती थीं। जब मां आकर हमें टोंकती कि "चलो, खाने का समय हो गया है, उठो! खाना खा लो फिर बिस्तर पर पड़े-पड़े बतियाना।" तब हमारी आकाश लोक की यात्रा थम जाती। लेकिन सिर्फ़ रात्रि भोजन करने तक के लिए। उसके बाद फिर हम अपने बिस्तरों पर आ लेटते।
      शुरू से ही मैं और दीदी अलग-अलग खटियों पर सोया करते थे। लेकिन हमारी खटियां परस्पर सटी हुई बिछी रहती थीं। हम आजू-बाजू लेटे हुए ढेर सारी बातें करते रहते थे। दीदी मुझे बहुत-सी कहानियां सुनाया करती थीं। शायद उसी समय से मेरे मन में कहानियों के बीज रोपित हो चुके थे जो धीरे-धीरे प्रस्फुटित, पल्लवित होते गए। दीदी ने तो ग़ज़ल की राह पकड़ी लेकिन मैंने घूम फिर कर उन कहानियों की राह पर ही कदम बढ़ाए जो कहीं मेरे मानस में बहुत गहरे दबी हुई थी।
      काश! वे दिन लौट आते। खुले आसमान के नीचे, तारों की छांव में, खुली हवा में सांस लेते हुए, चांद और तारों वाली वे चमकीली रातें। किसी तरह का कोई भय नहीं। पन्ना के उस छोटे कस्बाई शहर का उस समय का निरपराध-सा वातावरण। यद्यपि हमारी कॉलोनी के अहाते की दीवार से ही सटा हुआ था ज़िला जेल का परिसर। शाम होते ही जहां से कैदियों के सामूहिक प्रार्थना किए जाने का स्वर सुनाई देता। वहां किन अपराधों के कैदी रखे जाते थे यह मुझे ठीक से याद नहीं है लेकिन इतना जरूर याद है कि उन दिनों भी मुझे उन से डर नहीं लगता था। हम बाहर टेबल फैन भी लगाते थे। जब मैं छोटी थी तो घर में नानाजी थे, मां थीं, कमल सिंह मामा थे वर्षा दीदी थीं और मैं थी। फिर मामा जी की नौकरी लग गई और वे ट्राईबल वेलफेयर के हायरसेकंडरी स्कूल में बतौर शिक्षक तत्कालीन शहडोल जिले के बेनीबारी नामक स्थान में पोस्टिंग में चले गए। तब नानाजी, मां, दीदी और मैं - हम चार लोग रह गए। लेकिन उन दिनों स्कूलों में गर्मी की 2 माह की छुट्टी और  दशहरे से दीपावली तक की 1 माह की छुट्टी हुआ करती थी। जिसमें मामाजी पन्ना आ जाया करते थे। वह हमारी छोटी सी सुंदर दुनिया थी जिसमें उस कॉलोनी में रहने वाले शेष पांच परिवार भी शामिल थे। कोई कृत्रिमता नहीं, बस सच्ची आत्मीयता!
         आज घरों में दुबकी गर्मी की रातें, उन दिनों की खुली हवा की रातों के सामने कुछ भी नहीं हैं। हमने बहुत कुछ गवां दिया है पिछले 30-40 वर्षों में।  वह स्वच्छ प्रकृति और वह निर्भयता, शायद तभी लौट सकती है जब हम प्रकृति को उसकी हरियाली लौटा दें और हम इंसानों के परस्पर गहन विश्वास को पुनर्स्थापित कर दें, तभी लौट सकेंगे वो बचपन की ठांव, तारों की छांव वाले दिन।
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