Wednesday, April 20, 2022

चर्चा प्लस | प्रथम पुण्यतिथि (20 अप्रैल) : साहित्य की मौन साधिका डाॅ. विद्यावती ‘मालविका | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
प्रथम पुण्यतिथि (20 अप्रैल) :
साहित्य की मौन साधिका डाॅ. विद्यावती ‘मालविका
           - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ एक ऐसा नाम है जिसे हिन्दी साहित्य जगत में आज भी सम्मान से लिया जाता है। उनका शोधग्रंथ ‘‘हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव’’ आज भी वि़द्वानों एवं शोधार्थियों के लिए मार्गदर्शक का काम करता है। वे अपने समय की एक बड़ी लेखिका थीं। स्वयं राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें पीएच डी में गाईड किया था। वे चाहती तो एक शोहरत और दिखावे वाला जीवन जी सकती थीं लेकिन उन्होंने चुना सादगी भरा जीवन और ख़ामोशी से रह कर लेखन कार्य करने का मार्ग।  
मैं हूं मालव कन्या मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।
शिप्रा मेरी बहिन सरीखी, सागर झील सहेली।।
उज्जैयिनी ने सदा मुझे स्नेह दिया
विक्रम की धरती ने मेरा मान किया,
बुंदेली वसुधा ने मुझे दुलार दिया
गौर-भूमि ने मुझे सदा सम्मान दिया,
सदा लुभाती मुझको सुंदर ऋतुओं की अठखेली।
मैं हूं मालव कन्या मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।।
महाकाल के चरणों में बचपन बीता
रहा न मेरा अंतस साहस से रीता,
यहां बुंदेली संस्कृति को अपनाने पर
हुई समाहित मेरे मन में ज्यों गीता,
ऋणी रहूंगी मैं नतमस्तक, बांधे युगल हथेली।
मैं हूं मालव कन्या मुझको, प्रिय है धरा बुंदेली।।
          -यह कविता मात्र एक कविता नहीं है वरन संक्षिप्त काव्यात्मक जीवन परिचय है जो डाॅ. विद्यावती ‘मालविका’ ने स्वयं अपने बारे में लिखा था। डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ सागर नगर की एक ऐसी साहित्यकार थीं जिनका साहित्य-सृजन अनेक विधाओं, यथा- कहानी, एकांकी, नाटक एवं विविध विषयों पर शोध प्रबंध से ले कर कविता और गीत तक विस्तृत रहा है। लेखन के साथ ही चित्रकारी के द्वारा भी उन्होंने अपनी मनोभिव्यक्ति प्रस्तुत की। सन् 1928 की 13 मार्च को उज्जैन में जन्मीं डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ ने अपने जीवन के लगभग 60 वर्ष बुन्देलखण्ड में व्यतीत किए हैं, जिसमें 30 वर्ष से अधिक समय से वे मकरोनिया, सागर में निवासरत रहीं। डॉ. ‘मालविका’ को अपने पिता संत ठाकुर श्यामचरण सिंह एवं माता श्रीमती अमोला देवी से साहित्यिक संस्कार मिले। पिता संत श्यामचरण सिंह एक उत्कृष्ट साहित्यकार एवं गांधीवादी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ क्षेत्र में अस्पृश्यता उन्मूलन एवं नशाबंदी में उल्लेखनीय योगदान दिया था। संत श्यामचरण सिंह को अपनी गतिविधियों को अंग्रेज शासन से बचाए रखने के लिए एक नाम और धारण करना पड़ा। छत्तीसगढ़ के दुर्ग और उसके आसपास के क्षेत्र में जहां उन्होंने गांधीवादी आंदोलन चलाया, उन्हें पीलालाल चिनौरिया के नाम से भी जाना जाता रहा है। डॉ. विद्यावती अपने पिता के विचारों से अत्यंत प्रभावित रहीं और उन्होंने 12-13 वर्ष की आयु से ही साहित्य सृजन आरम्भ कर दिया था। बौद्ध धर्म एवं प्रणामी सम्प्रदाय पर उन्होने विशेष अध्ययन एवं लेखन किया।

डॉ. विद्यावती ‘मालविका’ का जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा। जैसी कि उन समय परंपरा थी, एक पारिवारिक परिचित की मध्यस्थता से उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले के ठाकुर रामधारी सिंह जी के साथ उनका विवाह हुआ। ठाकुर रामधारी सिंह सुलझे हुए व्यक्ति थे और वे भी गांधीवादी विचारों के समर्थक थे। वे अपने परिवारजन की भांति पुरातनपंथी भी नहीं थे। वे बेटियों के जन्म को अभिशाप नहीं समझते थे। किन्तु वे विद्यावती ‘मालविका’ जी का अधिक साथ नहीं दे सके। दो बेटियों के जन्म के कुछ समय बाद ही विद्यावती जी को वैधव्य का असीम दुख सहन करना पड़ा, किन्तु वे अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुईं। ससुराल पक्ष से कोई सहायता न मिलने पर उन्होंने शिक्षिका के रूप में आत्मनिर्भरता पूर्वक अपने वृद्ध पिता को सहारा दिया और अपने अनुज कमल सिंह को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाया। जो कि आदिम जाति कल्याण विभाग मघ्यप्रदेश शासन के हायर सेकेंडरी स्कूल के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए। वे प्रसन्न थीं कि अपने छोटे भाई का जीवन संवार सकी थीं। किन्तु उन्हें अपने छोटे भाई कमल सिंह के उस दुख को देखना पड़ा जो उन्हें वर्षों तक भीतर ही भीतर उन्हें सालता रहा। समयापूर्व प्रथम प्रसव के दौरान कमल सिंह जी की जीवन साथी एवं अजन्मे शिशु का निधन हो गया। वे अकेले रह गए। एक बार फिर डॉ. विद्यावती जी ने अपने छोटे भाई को सम्हलने में मदद की। यद्यपि वे अपने भाई को पुनर्विवाह के लिए मना नहीं सकीं। लेकिन बहन-भाई का आपसी स्नेह जीवन भर रहा। सेवानिवृत्ति के उपरांत कमल सिंह विद्यावती जी के पास सागर आ गए तथा सन् 2017 में हृदयाघात से मृत्यु के उपरांत ही अपनी बड़ी बहन की स्नेहिल छांव से अलग हुए।
                डॉ. विद्यावती ने अपने बलबूते पर अपनी दोनों पुत्रियों वर्षा सिंह और शरद सिंह का लालन-पालन कर उन्हें उच्च दिलाई। उन्होंने व्याख्याता के रूप में मध्यप्रदेश शासन के शिक्षा विभाग में उज्जैन, रीवा एवं पन्ना आदि स्थानों में अपनी सेवाऐं दीं और सन् 1988 में पन्ना के मनहर शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से सेवानिवृत्त हुईं। डॉ. विद्यावती शासकीय सेवा के साथ ही लेखन एवं शोध कार्यां में सदैव संलग्न रहीं। स्वाध्याय से हिन्दी में एम.ए. करने के उपरांत सन् 1966 में आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने ‘‘मध्ययुगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव’’ विषय में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। पीएच.डी. में उनके शोध निर्देशक (गाइड) हिन्दी तथा बौद्ध दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान राहुल सांकृत्यायन एवं पाली भाषा तथा बौद्ध दर्शन के अध्येता डॉ. भिक्षु धर्मरक्षित थे। उनका यह शोध प्रबंध आज भी युवा शोधकर्ताओं के लिए दिशानिर्देशक का काम करता है। डॉ. विद्यावती की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो हुईं, जिनमें प्रमुख हैं - कामना, पूर्णिमा, बुद्ध अर्चना (कविता संग्रह) श्रद्धा के फूल, नारी हृदय (कहानी संग्रह), आदर्श बौद्ध महिलाएं, भगवान बुद्ध (जीवनी) बौद्ध कलाकृतियां (पुरातत्व), सौंदर्य और साधिकाएं (निबंध संग्रह), अर्चना (एकांकी संग्रह), मध्ययुगीन हिन्दी संत साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव, महामति प्राणनाथ-एक युगान्तरकारी व्यक्तित्व (शोध ग्रंथ) आदि। ‘‘आदर्श बौद्ध महिलाएं’’ पुस्तक का बर्मी एवं नेपाली भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुआ।
                डॉ. विद्यावती जहां रहीं वहां उन्होंने अपनी साहित्यिक प्रतिभा से सबको प्रभावित किया। जब वे उज्जैन में थीं तो डाॅ. श्याम परमार ने उन्हें ‘‘मालव कन्या’’ कहते हुए ‘‘मालविका’’ उपनाम दिया। जब वे अपने पिताजी के साथ छत्तीसगढ़ में रहीं तो वहां उनकी प्रतिभा को सभी ने सराहा। इस संबंध में जानकारी मिलती है उस लेख से जिसे दुर्ग (छत्तीसगढ़) के साहित्यकार अरुण कुमार निगम ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर लिखा था और जिसका शीर्षक है - ‘‘दुर्ग जिले की सुप्रसिद्ध महिला साहित्यकार: डॉ. विद्यावती ‘‘मालविका’’। उनके लेख का एक अंश साभार यहां दे रही हूं-
दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन, पाटन के अध्यक्ष श्री पतिराम साव ‘‘विशारद’’ के अभिभाषण दिनांक 23 अप्रैल 1961 के एक अंश में ‘‘नारी समाज और साहित्य चेतना’’ शीर्षक के अंतर्गत उल्लेखित है -‘‘हर्ष की बात है कि अपने दुर्ग जिले में श्रीमती मनोरमा पाटणकर और श्रीमती सुधा राजपूत कविता लिखती हैं तथा कवि सम्मेलनों में भाग लेती हैं। महिला समाज को साहित्य क्षेत्र में उतरने का नेतृत्व प्राप्त है। ‘‘श्रीमती विद्यावती मालविका’’ भी दुर्ग जिले की हैं, उन्होंने अपनी कम अवस्था में ही अनेक पुस्तकें लिखी हैं। आप श्री पीलालाल चिनौरिया की सुपुत्री हैं।’’
इसी प्रकार दुर्ग जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन पंचम अधिवेशन में बालोद के अध्यक्ष श्री दानेश्वर शर्मा ने अपने भाषण (गुरुवार दिनांक 21 जून 1962) में ‘‘हमारे गौरव’’ शीर्षक के अन्तर्गत कहा था -‘‘श्री पीला लाल चिनौरिया (संत श्यामा चरण सिंह ), शिशुपाल सिंह यादव उदय प्रसाद ‘‘उदय’’ व पतिराम साव ने तो दुर्ग में साहित्य की ज्योति ही जलाई है।’’ इसी भाषण में ‘‘जगमगाते नक्षत्र’’ शीर्षक के अंतर्गत उल्लेखित है - ‘‘श्रीमती मनोरमा पाटणकर, विद्यावती मालविका तथा विद्यावती खंडेलवाल इस जिले की महिला साहित्यकार हैं जिन्होंने अच्छी रचनाओं का सृजन किया है।’’
विशेष उल्लेखनीय है कि जनकवि कोदूराम ‘‘दलित’’ के शिक्षा गुरु तथा काव्य गुरु सन्त श्यामचरण सिंह उर्फ श्री पीलालाल चिनौरिया जी थे। श्री श्यामाचरण सिंह उर्फ पीलालाल चिनौरिया का विवाह सुमित्रा देवी ‘‘अमोला’’ से सन् 1925 में हुआ था। वे उन दिनों भिलाई, छत्तीसगढ़ में प्रधान-अध्यापक हुआ करते थे। उसी वर्ष उनका स्थानांतरण अर्जुन्दा में हुआ था। 13 मार्च सन् 1928 में विद्यावती मालविका का जन्म हुआ। श्री श्यामाचरण सिंह जी अध्यापक होने के साथ-साथ आशुकवि, एक उत्कृष्ट साहित्यकार, समाज सुधारक एवं गांधीवादी विचारधारा के थे। विद्यावती की माता श्रीमती सुमित्रा देवी ‘‘अमोला’’ भी विदुषी महिला थीं। वे गृहणी होने के साथ भक्तिभाव की रचनाएं लिखती थीं। विद्यावती ‘मालविका’ जी को अपने पिता श्यामाचरण सिंह एवं माता श्रीमती सुमित्रा देवी ‘अमोला’ से साहित्यिक संस्कार मिले थे। उन्होंने 12-13 वर्ष की आयु अर्थात चालीस के दशक से ही साहित्य सृजन आरम्भ कर दिया था। शालेय शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने साहित्य रत्न तथा एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। तत्पश्चात ‘‘हिन्दी सन्त-साहित्य पर बौद्ध धर्म का प्रभाव’’ विषय में आगरा विश्वविद्यालय से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की। इस दौरान पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनका वाईवा लिया था। वे 1944 में धरमजयगढ़ (छत्तीसगढ़) में अध्यापिका बनीं। 1945 में बौद्ध धर्म संबंधित उनकी पहली रचना ‘धर्मदूत’’ में प्रकाशित हुई थी।
            - उपरोक्त लेख से डॉ. विद्यावती जी के छत्तीसगढ़ में प्रभाव का पता चलता है। वहीं, वे जब सेवानिवृत्ति के बाद सागर की निवासी बनीं तो उन्होंने दैनिक भास्कर के सागर संस्करण में ‘‘सागर संभाग की कवयित्रियां’’ शीर्षक से धरावाहिक लेख लिखे। बुंदेलखंड के साहित्य जगत को समृद्ध करने में भी अपने मौलिक लेखन से उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। अजयगढ़ के सुप्रतिष्ठित कवि एवं साहित्यकार अंबिका प्रसाद ‘दिव्य’’ उन्हें ‘‘बुंदेलखंड की साहित्य ज्योति’’ कहा करते थे। आचार्य त्रिलोचन शास्त्री उन्हें ‘‘विदुषी बहन’’ कह कह पुकारा करते थे। शिवमंगल सिंह सुमन, पं. सूर्यनारायण व्यास, ब्रजभूषण सिंह आदर्श आदि सुप्रतिष्ठित साहित्यकारों ने सदा उनकी प्रशंसा की। वे चाहती तो एक शोहरत और दिखावे वाला जीवन जी सकती थीं लेकिन उन्होंने चुना सादगी भरा जीवन और ख़ामोशी से रह कर लेखन कार्य करने का मार्ग।  
डॉ. ‘मालविका’ को हिन्दी साहित्य सेवा के लिए अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए। जिनमें उल्लेखनीय हैं- सन् 1957 में स्वतंत्रता संग्राम शताब्दी सम्मान समारोह में मध्यप्रदेश शासन का साहित्य सृजन सम्मान, सन् 1958 में उत्तरप्रदेश शासन का कथा लेखन सम्मान, सन् 1959 में उत्तरप्रदेश शासन का जीवनी लेखन सम्मान, सन् 1964 में मध्यप्रदेश शासन का कथा साहित्य सम्मान, सन् 1966 में मध्यप्रदेश शासन का मीरा पुरस्कार प्रदान किया गया। सेवानिवृत्ति के बाद भी डॉ. विद्यावती ने अपना लेखन सतत् जारी रखा। उनके इस साहित्य के प्रति सर्मपण को देखते हुए उन्हें सन् 1998 में महारानी लक्ष्मीबाई शास. उ.मा. कन्या विद्यालय क्रमांक-एक, सागर द्वारा ‘‘वरिष्ठ साहित्यसेवी सम्मान’’, सन् 2000 में भारतीय स्टेट बैंक सिविल लाइनस् शाखा सागर द्वारा ‘‘साहित्यसेवी सम्मान’’, वर्ष 2007 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन सागर द्वारा ‘‘सुंदरबाई पन्नालाल रांधेलिया स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान’’ एवं सन् 2016 में हिन्दी दिवस पर श्यामलम् संस्था सागर द्वारा ‘‘आचार्य भगीरथ मिश्र हिन्दी साहित्य सम्मान’’ से सम्मानित किया गया। जुलाई 2020 में सागर के यूट्यूबर साहित्यकार वरुण प्रधान ने अपने प्रधाननामा चैनल में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर एक एपीसोड प्रसारित किया था जिसे आज भी यूट्यूब पर देखा जा सकता है।

           20 अप्रैल 2021 को हृदयाघात से डाॅ विद्यावती ‘‘मालविका’’ ने इस संसार से विदा ले ली। उनके निधन से व्यथित उनकी बड़ी पुत्री डाॅ. वर्षा सिंह ने ‘‘छोड़ गईं मां हमें अकेला.’’ शीर्षक से यह भावभीना गीत लिखा था-
दीपक जल कर फैलाता है
यादों का उजियाला।
मां ने किस ममता से हमको
संघर्षों में पाला।

लगा हुआ है जग का मेला
छोड़ गईं मां हमें अकेला
पल-पल भारी सी लगती है
आज कठिन यह दुख की बेला
भूख-प्यास सब गायब जैसे
भाता नहीं निवाला।

माना यह दुनिया है फानी
सबकी लगभग एक कहानी
किन्तु ये मन है नहीं मानता
सुनना चाहे मां की बानी
आएं कितनी ‘‘वर्षा’’ ऋतुएं
बुझे न मन की ज्वाला।
उस समय डाॅ विद्यावती जी की छोटी पुत्री डाॅ शरद सिंह को यह पता नहीं था कि मां के दुख में व्यथित उसकी वर्षा दीदी भी कोरोना संक्रमित हो कर जल्दी ही उसे छोड़ कर जाने वाली हैं।

हर बेटी को अपनी मां पर गर्व होता है, मुझे भी है। मेरे जीवन की सार्थकता यही है कि मैं डाॅ विद्यावती ‘‘मालविका’’ जी की बेटी और डाॅ. वर्षा सिंह जी की बहन हूं। मां की प्रथम पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करती हूं और प्रर्थना करती हूं कि प्रत्येक जन्म में वे ही मेरी मां रहे।
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(20.04.2022)
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1 comment:

  1. डाॅ. विद्यावती ‘मालविका,जी को विनम्र श्रद्धांजलि ! उनके जीवन के बारे में बहुत प्रेरणादायक विवरण आपने दिया है, आप की लेखनी भी अपनी माँ तथा बहन की तरह साहित्य की अविराम सेवा कर रही है.

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