प्रस्तुत है आज 07.02.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक डाॅ. आर.पी. पाण्डेय की पुस्तक "बुंदेली शब्दकोश" की समीक्षा...
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पुस्तक समीक्षा
बुंदेली के विकास को गति देने वाला एक उत्तम शब्दकोश
- समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - बुंदेली शब्दकोष
लेखक - डाॅ. आर.पी. पाण्डेय
प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन, 4648/1, 21 अंसारी रोड, दरियरगंज, नई दिल्ली -110002
मूल्य - 195/-
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किसी भी विषय या विधा में पुस्तक लिखना उतना कठिन नहीं है जितना कि एक शब्दकोश लिखना। यह बहुत श्रमसाध्य कार्य है। इसके लिए बहुत शोध और धैर्य की आवश्यकता होती है। यह बात भी महत्वपूर्ण है जिस आयु में पहुंच कर लोग आराम से जीवन बिताना चाहते हैं उस उम्र में भी इतने बेहतरीन शब्दकोश का निर्माण करना अपने में ही एक आदर्श और अनुकरणीय बात है।
हम आजकल जब लोग गांव से शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। रोजगार में भाषा का आधार अंग्रेजी तथा अनुसूची में दर्ज़ भारतीय भाषाएं हैं जिसके कारण धीरे-धीरे हम अपनी बोलियों को भूलते जा रहे है। यह शब्दकोश ऐसे तमाम लोगों को एक बार फिर अपनी माटी से जुड़ने में मदद करेगा और अपनी बोली को ले कर उनके मन में गर्व की भावना स्थापित करेगा। यह शब्दकोश युवा पीढ़ी को भाषा का ज्ञान देने में बेहद कारगर और उपयोगी साबित होगा।
यहां मैं एक अपना अनुभव साझा करना चाहती हूं कि एक आईएएस प्रशासनिक अधिकारी से बुंदेली के बारे में मेरी चर्चा हो रही थी और उन्होंने कहा कि उन्हें बुंदेली समझ में नहीं आती है। वे पहले कभी बुंदेलखंड में रहे भी नहीं थे। अतः यह समस्या स्वाभाविक थी। मैंने उनसे मज़ाक में कहा कि मेरा काॅलम ‘‘बतकाव बिन्ना की’’ पढ़ा कीजिए, जल्दी बुंदेली सीख जाएंगे। तो उन्होंने उत्तर दिया कि ‘‘मैं आपका काॅलम पढ़ता हूं, बुंदेली समझने का प्रयास भी करता हूं लेकिन कई शब्दों के अर्थ समझ नहीं पाता हूं। बार-बार किसी से पूछना अच्छा भी नहीं लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हमें अपने प्रशासनिक क्षेत्र की बोली आती हो तो ग्रामीण अंचल के लोगों से संवाद करना आसान हो जाता है, उनकी समस्या जानना आसान हो जाता है। देखा जाए तो अपनी पदस्थापना क्षेत्र की बोली का ज्ञान होना हमारे लिए जरूरी भी है।’’ यह प्रसंग मुझे इस शब्दकोश को पढ़ते समय याद आया और मैं उन्हें इसे मंगाने की सलाह दूंगी ताकि वे आसानी से बुंदेली शब्दों को समझ सकें।
कहने का आशय यह है कि इस प्रकार के शब्दकोश प्रशासनिक अमले के लिए भी उपयोगी होते हैं। ‘‘बुंदेली शब्दकोष ’’ बुंदेलखंड के उन प्रशानिक अधिकारियों के लिए उपयोगी होगा जो बुंदेली से परिचित नहीं है।
वस्तुतः शब्दकोश, एक भाषा के शब्दों का एक संग्रह होता है जिसमें, सूचना, परिभाषाएं, उच्चारण, अनुवाद, अर्थ अन्य जानकारियां उपलब्ध रहती हैं। अर्थात शब्दकोश उस ग्रंथ को कहते हैं जिसमें अक्षरक्रम/वर्णक्रम से शब्द और उनके अर्थ दिए गए होते हैं। ऐसा ग्रन्थ जिसमें किसी भाषा के शब्दों का वर्णक्रम में संग्रह तथा उसी भाषा अथवा अन्य भाषा में विभिन्न शब्दों के उच्चारण व अर्थ दिए गये हों। कुछ शब्दकोशों में शब्दों से सम्बन्धित मुहावरे और प्रयोग भी दिए जाते हैं। संस्कृत में शब्दकोष के लिए निघण्टु, नाममाला, माला शब्दार्णव, अभिधान आदि शब्द प्रचलित रहे हैं। हिंदी भाषा में भी ‘कोश’ और ‘कोष’ शब्द ‘शब्दकोष’ तथा ‘खजाना’ के अर्थ में प्रयुक्त होते थे। परंतु 20वीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते ‘कोश’ शब्द का प्रयोग ‘शब्दकोश’ के लिए और ‘कोष’ का प्रयोग ‘खजाना’ के लिए रूढ़ हो गया है। अमरसिंह के प्रसिद्ध ‘अमरकोष’ का मूलनाम ‘नाम लिगानुशासन’ था जिसे बहुत बाद में ‘अमरकोष’ कहा जाने लगा जब ‘कोश’ का प्रयोग आज के अर्थ में रूढ़ हो गया। अंग्रेजी भाषा में कोश के लिए ‘डिक्शनरी’ शब्द प्रयुक्त होता है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन का ‘‘डेक्स्रे’’ शब्द से हुआ है। लैटिन में इसका अर्थ होता है- कहना या बोलना। इस प्रकार अंग्रेजी में कहे या बोले गए शब्दों के संग्रह को डिक्शनरी कहा गया। शब्दकोश एकभाषीय, द्विभाषिक या बहुभाषिक हो सकते हैं। कुछ शब्दकोशों में चित्रों का सहारा भी लिया जाता है। अलग-अलग कार्य-क्षेत्रों के लिये अलग-अलग शब्दकोश हो सकते हैंय जैसे - विज्ञान शब्दकोश, चिकित्सा शब्दकोश, विधिक (कानूनी) शब्दकोश, गणित का शब्दकोश आदि।
भाषा की भांति ही बोलियों के शब्दकोश भी तैयार किए जाते हैं। इनमें आंचलिक बोली के शब्दों का हिन्दी अथवा अन्य भाषा में अर्थ, समानार्थ, प्रकृति आदि दी जाती है। ‘‘बुंदेली शब्दकोष’’ इसी क्रम का शब्दकोश है जिसमें बुंदेली बोली के शब्दों का हिन्दी में अर्थ दिया गया है। यह वस्तुतः बुंदेली-हिन्दी शब्दकोश है।
प्रत्येक व्यक्ति के अपने भावों और विचारों को व्यक्त करने की अपनी एक अलग शैली होती है। वह अपने मुख से जिस तरह की वाणी का प्रयोग करते हुए अपने विचारों को दूसरों के सामने प्रकट करता है, वह है उसकी ‘‘निज बोली’’ होती है। बोली शब्द अंग्रेजी में ‘‘डायलेक्ट’’ कहा जाता है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से इसे ‘‘उप-भाषा’’ या प्रान्तीय-भाषा भी कहते हैं। एक भाषा के अन्तर्गत कई बोलियां होती हैं। बोली किसी भाषा के एक ऐसे सीमित क्षेत्रीय रुप को कहते हैं, जो ध्वनि, रुप, वाक्य-गठन, अर्थ, शब्द-समूह तथा मुहावरे आदि की दृष्टि से उस भाषा के ‘‘परिनिष्ठित’’ तथा अन्य क्षेत्रीय रुपों से भिन्न होती है, इस तरह बोली ‘‘किसी सीमित क्षेत्र में बोली जाने वाली आंचलिक भाषा का एक रूप होती है, जो प्रायः साहित्य शिक्षा तथा शासन के कार्यों में भी व्यवहृत होती है।’’ बोली लोक साहित्य में प्रयुक्त होती है। यह भाषा का मानक रूप नहीं होता। अनौपचारिक स्थानों में बोली का प्रायः प्रयोग होता है। हमारी हिन्दी भाषा में अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि बोलियां हैं। बुंदेली, ब्रज, अवधी, राजस्थानी अब विभाषा के रुप में प्रयुक्त होती हैं, इसमें काफी व्यापक साहित्य भी मिलने लगा है।
बोली का महत्व लोरी के समान है जो भाषाई ममत्व, संवेदना और अभिव्यक्ति से जोड़ती है। यह उस भौगोलिक मां से भी जोड़ती है जहां व्यक्ति जन्म लेता है। बोली जब तक बोली है तब तक वह मां की लोरी है, वही बोली जब भाषा के संस्कार ग्रहण कर लेती है तब वह व्याकरणीय नियमों में निबद्ध शास्त्रीय गायन बन जाती है।
बोली के शब्दों को प्रायः अपभ्रंश या अपूर्ण कह दिया जाता है किन्तु वास्तविकता में बोली के शब्द पूर्णतः मौलिक होते हैं। इनमें लेशमात्र कृत्रिमता नहीं होती है। किसी भी बोली के शब्द मन में आए विचारों की सहज अभिव्यक्ति होते हैं। इसीलिए हर सौ कोस में बोली के शब्दों का स्वरूप बदल जाता है। बोली का अनगढ़ स्वरूप ही इसकी आंतरिक शक्ति है।
किसी भी बोली के शब्दकोश की आवश्यकता क्यों है? इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि अपने गांव-घर से दूर गए व्यक्ति को शिद्दत से अपने गांव-घर की याद आती है। यदि उसे घर छोड़े वर्षों हो गए हों तो वहां की स्मृतियां परस्पर गड्डमड्ड हो कर उसके भीतर झिझक पैदा करने लगत हैं। ठीक यही स्थिति बुंदेली जैसी बोलियों की है। युवापीढ़ी अपनी बोली से बहुत दूर निकल गई है लेकिन मां, नानी, दादी की बोली की मिठास उसके मन से मिटी नहीं है। वह अपनी उस बोली से एक बार फिर जुड़ना चाहता है लेकिन कई शब्दों के अर्थ उसे पता नहीं हैं और यह समस्या उसे अपनी बोली की ओर लौटने से रोकती है। ऐसी स्थिति में आवश्यक हो जाता है एक शब्दकोश का पाया जाना।
बुंदेली शब्दकोश तैयार कर के डॉ आर.पी.पाण्डेय जी ने सचमुच एक बड़ा और महत्वपूर्ण काम किया है। इसका संपादन श्री टीकराम त्रिपाठी ने किया है। पुस्तक के संपादक श्री टीकाराम त्रिपाठी से जो परिचित हैं, वे उनकी भाषाई निपुणता से परिचित हैं। श्री त्रिपाठी हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत तीन भाषाओं के उपाधि प्राप्त ज्ञाता हैं। बुंदेली बोली और साहित्य से उनका जमीनी जुड़ाव है। अतः पुस्तक के संपादक का भी संक्षिप्त लेखकीय परिचय पुस्तक में दिया जाता तो उत्तम रहता। संपादक के परिचय की कमी खटकती है।
इस शब्दकोश में सहेजे गए शब्दों का जितना महत्व है उतना ही महत्व है कोश के आरंभिक पृष्ठों पर लेखक के प्राक्कथन, संपादक के संपादकीय तथा उस लघुलेख का जो डॉ सुरेश आचार्य ने शुभकामनाएं देते हुए ‘‘बुंदेली शब्दकोश का महत्व’’ के रूप में लिखा है। इनके अतिरिक्त प्रेमनारायण दयाल मलैया और डॉ प्रदीप कुमार बिसेन, कुलपति ज.ला.ने. कृषि वि.वि. जबलपुर के अभिमत भी हैं।
लेखक डॉ रामेश्वर प्रसाद पांडेय जिनका जन्म 15 अगस्त 1940 को सागर जिले के अचलपुर ग्राम में हुआ उन्होंने जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर से स्नातकोत्तर करने के उपरांत रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से विद्यावाचस्पति की उपाधि प्राप्त की। वे उद्यानिकी विभाग के विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए उन्होंने अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में कृषि एवं उद्यानिकी पर अपने शोध पत्र भी प्रस्तुत किए। उन्हें मिर्च, बैंगन, सेम आदि की उन्नत किस्में विकसित करने का भी श्रेय है। उन्होंने शोधात्मक पुस्तक ‘‘द पटैटो’’ (आलू) भी लिखी है और ‘‘बुंदेलखंड संस्कृति और साहित्य’’् नामक पुस्तक भी लिख चुके हैं, जिससे बुंदेलखंड के प्रति उनका लगाव जाहिर होता है। इस प्रकार देखा जाए तो डॉक्टर पांडे वैज्ञानिक दृष्टि के साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति से भी जुड़े हुए हैं। अतः जो व्यक्ति सच्चे अर्थों में भूमि के महत्व को समझता होगा जमीन से जुड़ा हुआ होगा वह गोलियों के महत्व को भली-भांति समझ सकता है और उसे स्थापना प्रदान कर सकता है।
लेखक ने प्राक्कथन में ‘‘बुंदेली भाषा का व्याकरणिक विश्लेषण’’ देते हुए बुंदेली शब्दों के वचन, लिंग, कारक, सर्वनाम, क्रिया के बारे में संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण जानकारी दी है। फिर भी व्यक्ति जहां की बोली में जन्म लेता है वहां के शब्द उसके मानस में अधिक ठहरते हैं। इसीलिए इस शब्दकोश में सागर क्षेत्र के बुंदेली शब्द-स्वरूप अधिक मिलेंगे। इस संबंध में डॉ सुरेश आचार्य का यह वाक्य सटीक है कि ‘‘उनका यह शब्दकोश मूलतः बुंदेली के सागरिया स्वरूप पर केंद्रित है मगर इसमें घटियाखाले और दतिया की बुंदेली के तत्व भी पहचाने जा सकते हैं।’’
अपने संपादकीय में श्री टीकाराम त्रिपाठी ने शब्दकोशों के रचयिता एवं बुंदेली बोली और शब्दों पर किए गए विशेष कार्यों का संक्षिप्त परिचय दिया है। वे लिखते हैं - ‘‘निघंटु के बाद हेमचंद्र, आचार्य रामचंद्र शुक्ल आप टैकोमा, राज बिहारी श्रीवास्तव, डॉ नगेंद्र हरदेव बाहरी प्रवृत्ति अनेक आचार्यों ने संस्कृत अपभ्रंश हिंदी और शब्दकोश ओं का प्रकाशन किया संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और नागरी के साथ-साथ लोक भाषाओं के भी शब्दकोश प्रकाशित हुए। बुंदेलखंड में डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त, आचार्य लोकनाथ सिलाकारी, डॉ. कांति कुमार जैन, डॉ. बलभद्र तिवारी आदि ने बुंदेली भाषा के अब गमन और उन्नयन के लिए अथक प्रयत्न किए। हाल ही में डॉ. सरोज गुप्ता, डॉ. रंजना मिश्रा के बुंदेली शब्दकोश प्रकाशित हुए हैं।’’
कुल 344 पृष्ठों के इस शब्दकोश के हार्डबाउंड का मूल्य स्वराज प्रकाशन द्वारा मात्र 195 रुपये रखा गया है जो इसे पूरी तरह ‘‘बजट मित्र’’ (पॉकेट फ्रेंडली) बनाता है। आर्थिक दृष्टि से यह मूल्य बुंदेली बोली के प्रति प्रेम को बढ़ावा देने वाला है। इस शब्दकोश में मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश दोनों राज्यों में विस्तारित बुंदेलखंड के शब्दों को सम्मिलित किया गया है। जैसे क्रिया वाचक शब्द हुइए, हुइहै, हूहै जिसका अर्थ होता है ‘‘होगा’’। इसमें लेखक ने प्रत्येक शब्द के साथ उसकी प्रकृति अर्थात् शब्द के संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया वाचक होना तो बताया है किंतु शब्दों का लिंग भी यदि बताया जाता तो इसे और संपूर्णता मिलती।
लेखक डाॅ. आर. पी. पाण्डेय तथा संपादक श्री टीकाराम त्रिपाठी प्रशंसा के पात्र है कि उन्होंने ऐसे समय में बुंदेली शब्दकोश को तैयार कर प्रकाशित कराया है जब बोली ही नहीं, स्वयं हिन्दी भाषा के अस्तित्व को ले कर संकट की चर्चाएं होती रहती हैं। यह शब्दकोश ऐसी चिंताओं को दूर करने में सहायक होगा और बुंदेली के विकास का मार्ग प्रशस्त करेगा। युवा पीढ़ी और प्रशसनिक अमले के लिए उपयोगी ‘‘बुंदेली शब्दकोष’’ प्रत्येक व्यक्ति के लिए भी अपने निजी पुस्तकालय में रखने योग्य है जो बुंदेली को आत्मसात करना चाहता है। यह बुंदेली के विकास को गति देने वाला एक उत्तम शब्दकोश है।
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