Tuesday, February 21, 2023

पुस्तक समीक्षा | कठोर संदर्भों पर कोमलता भरे आग्रह की कविताएं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 21.02.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई कवि श्री वीरेन्द्र प्रधान  की पुस्तक "हम रहेंगे जीवित हवाओं में" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
कठोर संदर्भों पर कोमलता भरे आग्रह की कविताएं
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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काव्य संग्रह  - हम रहेंगे जीवित हवाओं में
कवि        - वीरेन्द्र प्रधान
प्रकाशक     - नोशन प्रेस
मूल्य        - 175/-
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कविता भाषा, भाव, ग्राह्य-क्षमता एवं अभिव्यक्ति-क्षमता के परिष्कार का प्रतीक होती है। जो कविता को मात्र मनोरंजन की वस्तु समझते हैं, वे बहुत बड़ी भूल कर रहे होते हैं। कोई भी व्यक्ति कविता तभी लिख पाता है जब उसका हृदय आंदोलित होता है और मस्तिष्क विचारों की ध्वजा फहराने को तत्पर हो उठता है। कहने का आशय कि कविता विचार और भावनाओं का सुंदर एवं संतुलित समन्वय होती है। 
‘‘हम रहेंगे जीवित हवाओं में’’ कवि वीरेन्द्र प्रधान का दूसरा काव्य संग्रह है। इससे पूर्व उनका काव्य संग्रह ‘‘कुछ क़दम का फ़ासला’’ प्रकाशित हो चुका है। इस दूसरे काव्यसंग्रह में संग्रहीत कविताएं समय से संवाद करने में सक्षम हैं। गोया वे समय को ललकारती हैं और समाज के समक्ष अपने शब्दों का आईना रख देती हैं ताकि समाज अपनी कुरुपता को देख सके और उसे दूर कर सके। इसके साथ यह भी कहना होगा कि वीरेन्द्र प्रधान के भीतर का कवि मात्र आईना रख कर शांत नहीं बैठता है क्योंकि वह चाहता है कि किसी भी कुरुपता को मुखौटे अथवा दिखावे के लेपन से नहीं छिपाया जाए वरन् उसे प्राकृतिक उपचार कर के दूर किया जाए जिससे समाज वास्तविक एवं लोकमंगलकारी रूप ग्रहण कर सके। 
दीर्घ जीवनानुभव एवं जनसामंजस्य कविता में लोकसत्ता की विश्वनीयतापूर्वक स्थापना करता है। वीरेन्द्र प्रधान भारतीय स्टेट बैंक में कार्यरत रहे। उनका गहन जनसंपर्क रहा तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी उन्होंने अपनी सेवाएं देने के दौरान ग्राम्यजीवन की कठिनाइयों को समीप से जाना-समझा। इसीलिए उनकी कविताओं में समसामयिक शहरी समस्याओं के साथ ही ग्रामीण समस्याओं पर भी गंभीर चिंतन देखा जा सकता है। वे अपनी कविताओं में बिना किसी लागलपेट के बड़ी व्यावहारिक बात करते हैं। वे जैसा देखते हैं, अनुभव करते हैं, ठीक वैसा ही लिपिबद्ध कर देते हैं। इसीलिए उनकी कविताएं सहज संवाद से युक्त होती हैं। उदाहरण के लिए इस संग्रह की कविता ‘‘गांव बनाम शहर’’ को देखिए जिसमें शहरों के फैलाव से सिमटते गांवों की वास्तविक स्थिति को कविता के कैनवास पर किसी पेंटिंग की भांति चित्रित कर दिया गया है, प्रभावी दृश्यात्मकता के साथ -
गंाव को अपनाने के नाम पर
जब शहर पसारता है हाथ
गांव अपने पांव सिकोड़
पेट की ओर लेता है मोड़
उस जीह्वा से बचने के लिए
जो शहर के लम्बे हाथों के पीछे छिप
निगल जाना चाहती है गांव।

 अर्थात् कवि उस ओर लक्षित कर रहा है जिसे देखते हुए भी अनदेखा कर दिया जाता है। शहर इंसान नहीं है लेकिन इंसान शहर की फैलाव के आड़ में अपने भूमिपति बनने की लिप्सा को फैलाता जाता है। यह बारीकी वीरेन्द्र प्रधान की कविताओं की विशेषता है। कवि उन स्थितियों पर भी दृष्टिपात करता है जिसके कारण खेतिहरों को अपनी खेती-किसानी छोड़ कर रोजी-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करने को विवश होना पड़ता हैं। ऐसी ही एक कविता हैं-‘‘गंाव को छोड़ आना था’’। गंाव से पलायन का कारण हमेशा सूखा अथवा खेती में नुकसान ही नहीं होता है। अन्य अनेक कारण भी होते हैं, जैसे- गंाव में बच्चों की अच्छी और उच्च शिक्षा की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी आदि। एक पीढ़ी पहले तक इन बुनियादी आवश्यकताओं की ख़तिर गांव छोड़ने का विचार त्याग भी दिया जाता था किन्तु वर्तमान पीढ़ी अपने बच्चों के लिए, अपने परिवार के लिए शहरी आवश्यकता को समझती है। बल्कि यह कहा जाए कि शहर आज की पीढ़ी की आवश्यकता का हिस्सा बन चुके हैं। परिवार को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं दे पाने के लिए गंाव से शहर की ओर पलायन नियति बच गया है। कवि इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए कहता है-
गंाव को छोड़ कर आना था
मन से या बेमन से
शहर को अपनाना था।
  
‘‘पांव’’, ‘‘विकास’’ और ‘‘कामना’’ विविध भावभूमि की कविताएं हैं। इसी क्रम में एक सशक्त कविता है ‘‘मूलचंद’’। इस कविता का एक अंश ही पूरी कविता को पढ़ने और समझने के लिए प्रेरित करने में सक्षम है-
अब भी है उसे याद
पिता-शिक्षक संवाद
जिसमें खाल उधेड़ देने
मगर हड्डियां बचा रखने
का विशेषाधिकार सुरक्षित किया गया था
शिक्षक के पास
उसे बदले में जानवर से मनुष्य बनाने के।

संवेदनाओं पर बाज़ार के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है। संपर्क के माध्यम बढ़े हैं किन्तु संवेदनाएं घट गई हैं। सोशल मीडिया पर सूचनाओं की भीड़ मानो एक भगदड़ का माहौल पैदा करती है जिसमें हर कोई ‘लाईक’ ‘कमेंट’ के ताने-बाने में उलझ कर शतरंज के घोड़े की भांति ढाई घर की छलांग लगाता रहता है। इस प्रवृत्ति ने संवेदनाओं का माखौल तो बनाया ही है, साहित्य सृजन की गंभीरता को भी गहरी चोट पहुंचाई है। किन्तु वीरेन्द्र प्रधान अपनी कविताओं के प्रति पूर्णतया सजग हैं। उनके सृजन का गांभीर्य उनकी प्रत्येक कविता में अनुभव किया जा सकता है। उदाहरण के लिए इसी संग्रह की ‘‘आभार’’ शीर्षक कवितांश देखिए-
मरने को तो मरते हैं अब भी
पहले से ज़्यादा लोग
मगर अब नहीं आतीं खूंट पर कटी चिट्ठियां
और सीरियस होने के तार से 
किसी के मरने के समाचार
अब तो अख़बारों में फोटो सहित छपते हैं
मरने वाले की अंत्येष्टि और उठावने के समाचार।
सोशल मीडिया ने भी बहुत क़रीब ला दिया
व्यस्तता और समयाभाव के युग में 
बहुत समय बचा दिया।

कवि वीरेन्द्र प्रधान समाज में रह रहे स्त्री-पुरुष के बारे में ही नहीं सोचते हैं बल्कि वे उन किन्नरों के बारे में भी विचार करते हैं जो हमारे इसी समाज का अभिन्न हिस्सा हैं। यह एक ऐसा मानवीय समुदाय है जो समाज में रह कर भी समाज से अलग-थलग रखा जाता है। एक सजग एवं समाज के परिष्कार की आकांक्षा रखने वाले कवि के रूप में वीरेन्द्र प्रधान भी र्थडजेंडर अर्थात् किन्नरों के बारे में चिंतन करते हैं। वे अपनी कविता ‘‘ एक किन्नर का कथन’ में लिखते हैं -
कभी किसी गर्भ जल परीक्षण में
नहीं हो पाती हमारी पहचान
इसलिए हम मारे नहीं जाते 
बच जाते हैैं भ्रूण हत्या के पाप से।
जीवित छोड़ दिये जाते हैं पल-पल मरने के लिये।
जन्म से लेकर मृत्यु तक यह पहचान का संकट
कभी हमारा पीछा नहीं छोड़ता।

लम्बी कविता का यह अंश किन्नरों के प्रति कवि के न्यायोचित आग्रह का उम्दा प्रमाण प्रस्तुत करता है। प्रेम, कोरोना आपदा, मौसम आदि पर भी कवि ने कविताएं लिखी हैं। ये कविताएं इन्हें पढ़ने वाले को ठिठक कर सोचने को विवश करती हैं। अपने काव्यकर्म के प्रति सजग वीरेन्द्र प्रधान सर्वहारा की पीड़ा को मुखर करते हुए भी विषमताओं के प्रति कठोरता के बजाए कोमलता का आग्रह रखते हैं, यह भी एक खूबी है उनकी कविताओं की। कविता संग्रह ‘‘हम रहेंगे जीवित हवाओं में’’ पाठकों को पसंद आएगा, साथ ही विचारों को आंदोलित भी करेगा।                   
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