Thursday, July 4, 2024

बतकाव बिन्ना की | ऊ राजा के दो सींग हते | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम

बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
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बतकाव बिन्ना की
ऊ राजा के दो सींग हते
   - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
    का आए के भौजी औ भैयाजी हफ्ता- खांड़ से बाहरे गए, सो उनसे बतकाव ने हो पा रई। सो मैंने सोची के आप ओरन से बतकाव बी कर लई जाए औ आप ओरन खों अपने इते की एक किसां सोई सुना दई जाए। काय से के ऐसी किसां कभऊं पुरानी नोई होत। ईको जो साहित्य की भाषा में कई जाए तो बरहमेस ‘‘समसामयिक मूल्य’’ होत आए। जे किसां आए एक राजा की। बाकी मैं पैलई कै रई के ई किसां को कोनऊं से जोर के ने देखो जाए, ने तो जो कछू नुकसान हुइए ऊकी जिम्मेदारी मोरी ने कही जैहे। सो, किसां को किसां घांई लइयो, ईकी ‘‘प्रासंगिकता’’ में ने परियो। सो, किसां ऐसी आए के -
एक हतो राजा। ऊको एक हतो नाई। कहो जाए तो बा राजनाई हतो। बा सिरफ राजा के मूंड़ को बाल काटत्तो, औ कोनऊं के मूंड़ को नईं। बा राजा के बाल काटत समै नायं-मायं की सबरी खबरें राजा को सुना देत्तो। एक दिनां का भओ के नाई राजा के मूंड़ को बाल काट रओ हतो औ खबरें सुनात जा रओ हतो। इत्ते में नाई को राजा के मूंड़ में कछू कड़ो-कड़ों सो लगो। ऊको लगो के राजा अपने मूंड़ में इत्तो तो चमेली को तेल डरवात आए, सो जे इनके बाल तो कर्रे हो नईं सकत। सो फेर का आय? ऊने तनक अच्छे से थथोलो। सो, बा जे देख के दंग रै गओ के राजा के मूंड़ में दो ठईयां सींग उग आए रए। तब लों राजा को सोई कछू गड़बड़ लगो के जे नाई हमाए मूंड़ में का थथोल रओ आए? सो, ऊने सोई अपने मूंड़ पे हाथ फेरो। जैसई ऊके समझ में आई के ऊके मूंड़ पे सींग आएं, सो बा घबड़ा गओ। राजा को जे बात को डर लगो के सींग उगे, सो उगे, मनो अब जे बात नाई सब खों बता दैहे तो सबरे ऊको राच्छस समझन लगहें। नाई सोई ताड़ गओ के राजा को जे पंसद ने आहे के नाई को ऊको भेद पतो रए। सो, राजा कछू कैतो ऊके पैलेई नाई राजा के आंगू हाथ जोड़ के ठाड़ो हो गओ।
‘‘महाराज! हमने आपको नमक खाओ आए, सो हम नमकहरामी कभऊं ने करहें। जो हम जे बात कोनऊं मानुस से कहें सो, रामधई, आप हमाओ मूंड़ कटवा दइयो।’’
‘‘पक्को! जे बात कोऊ से ने कैहो?’’ राजा ने पूछी।
‘‘पक्को! आप चाए जोन की कसम उठवा लेओ। का हमें अपनी जान प्यारी नोंई?’’ नाई गिड़गिड़ात भओ बोलो।
राजा ने सोची के अगर जे नाई खों मरवा दओ जाए तो ईसे का हुइए? बाल तो कोनऊं ने कोनऊं से कटवानेई परहे। जे तो हमााओ बरसों पुरानो सेवक आए, जे तो एक बेरा कोनऊं से ने कैहे। मनो नओ नाई को कोन भरोसो? ऊने कऊं बक-झक दओ तो फेर कोन-कोन को मों बंद करत फिरबी?
‘‘चलो ठीक आए। जब लौं तुम हमाए सींग को भेद, भेद राखहो, तब लौं तुमाई जान बख्शी रैहे।’’ राजा ने नाई को भरोसो दिलाओ।
नाई राजा खों तो मना-मुनू के महल से बाहरे निकर आओ, मनो कोनऊं से बताए बिना ऊको पेट पिरान लगो। मगर बा कोनऊं से कै नई सकत्तो। जो कोनऊं से कैतो औ राजा को पता पर जाती तो ऊकी तो जिनगी गई कहानी।
ऐसईं में कुल्ल मईना निकर गए। नाई जातो, राजा के मूंड़ के बाल काटतो औ राजा के मूंड़ पे बढ़त भए सींगन के बारे में कोनऊं से ने कह पाबे के कारण मन मसोस के रै जातो। जेई-जेई में ऊकी तबीयत बिगरन लगी। उकी लुगाई ने देखी के जाने कोन सी फिकर में ऊके घरवारे की तबीयत बिगरी जा रई, सो ऊने पूछी के का हो गओ। नाई ने कई के हम तुमें नई बता सकत, औ तुमें का कोनऊं खों नई बता सकत आएं, ने तो राजा हमाओ मूंड़ कटवा दैहे। ईपे ऊकी लुगाई ने कई के ऐसो करो के हारे में जा के कोनऊं पेड़ से तुम सब कछू कै आओ। ऐसे तुम कै बी लेहो औ कोनऊं मानुस सुन बी ने पाहे। नाई खों अपनी घरवारी की बात सई लगी। बा हारे गओ। उते पौंचे के जोन सबसे ऊंचो पेड़ दिखानों, ऊके गले लग के ऊको राजा के सींग के बारे में बता दओ। बतातई साथ नाई को जी हल्को हो गओ। ऊकी तबीयत सोई सुधर गई। लौट के आ के बा मजे से अपनो काम करन लगो।
कुल्ल समै बीत गओ। एक दिना राजा के दरबार में एक बाजो वारो आओ। ऊने कई के ऊके पास मंजीरा, सांरगी औ तबला आए। जो बा राजा खों भेंट करबो चात आए। राजा के मंत्री ने कई के पैले अपने बाजे बजा के दिखाओ के जे भेंट में लेने जोग आएं के नईं? बा बाजो वारो मान गओ। ऊने पैले सांरगी बजाई। सांरगीं से आवाज निकरी के -‘‘राजा के दो सींग।’’ जा सुन के राजा चैंक गओ। दरबारी सोई सन्नाटा खा गए। बाजो वारो सोई घबरा गओ। ऊने सारंगी एक तरफी धरी औ मंजीरा बजान लगो। मंजीरा से आवाज कढ़ी के ‘‘किन्ने कई? किन्ने कई?’’
     राजा को कछू समझ ने आ रई हती के जे बाजे ऐसो काय बोल गए? बाजा वारो सोई डरा गओ। ऊने तुरतईं मंजीरा छोर के तबला पकर लओ। जैसई ऊने तबला बजाओ, सो तबला बोल परो,‘‘नाई बब्बा ने कई, नाई बब्बा ने कई।’’
अब तो राजा समझ गओ के ऊकी पोल खुल गई आए। ऊने नाई खों बुलाओ औ बोलो के हमने तुमसे कई रई के तुम कोनऊं खों नई बताइयो औ तुमने कसम सोई खाई रई के ने बताहो, फेर जे सब का आए?’’
‘‘महाराज! हम सांची कै रै के हमने कोनऊं मानुस खों नई बताओ। आप चाओ तो हमाओ मूंड़ कटवा लेओ, मनो हम सांची कै रए के हमने कोनऊं मानुस से आपके सींगन के बारे में कछू नई कई।’’ नाई थरथर कांपत भओ बोलो।
राजा औ नाई की बात सुन के मंत्री को कछू शंका भई। ऊने बाजा वारे से पूछी के तुमने जे बाजा कां से बनवाए?
‘‘हजूर! हमने जे बाजा अपने इन्हईं हाथन से बनाए आएं। हम खुदई हारे गए रए। उते हमने खुदई पेड़ काटो औ ऊकी लकरिया से सारंगी औ तबला बनाओ। बाकी जे मंजीरा कांसे खों गला के बनाओ रओ।’’ बाजा वारे ने बताई। बाजा वारे की बात सुन के मंत्री समझ गओ।
‘‘नाई महाराज! अब तुम बताओ के तुमने का हारे जा के कोनऊं पेड़ से राजा को भेद कओ रओ?’’ मंत्री ने नाई से पूछो।
‘‘हओ हजूर! का करो जाए, कोनऊं से कै बिना हम मरे जा रए हते, औ कोऊ मानुस से कै ने सकत्ते सो हमने हारे जा के सूना-सन्नाटा में एक पेड़ से सब कै दई रई।’’ नाई डरात भओ बोलो।
‘‘महाराज!’’ फेर मंत्री ने राजा से कई,‘‘अब आपको भेद सब खों पता परई गओ आए। बाकी आपके सींगन से हमें कोनऊं परेसानी नोंई। काय से के आपको राज-काज अच्छो आए। कोऊ ने कोऊ गड़बड़ तो हर मानुस में रैत आए, इस, ऊको काम अच्छो भओ चाइए। सो आप के मूंड़ पे चाए सींग काय ने उग आएं, आपतो हमाए राजा हो, औ रैहो।’’
‘‘पर जे बताओ के जे तुमें कैसे समझ परी के जा नाई ने कोनऊं पेड़ से कई हुइए?’’ राजा ने मंत्री से पूछी।
‘‘महाराज! सूदी सी बात आए। आप तनक याद करो के जब सारंगी बजाई गई तो वा बोली के -राजा के दो सींग। फेर मंजीरा ने पूछी हती के -किन्ने कई, किन्ने कई? काय से ऊको पता ने रई। फेर तबला खों पता हतो सो बा बोल परो के -नाई बब्बा ने कई, नाई बब्बा ने कई। जा सुन के ई हम समझ गए रए के जा सारंगी औ तबला एकई पेड़ की लकरिया से बने हुइएं सो इन दोई खों आपको भेद पतो आए। जबकि सारंगी ठैरी कांसे की, सो बा ने जानत्ती, जेई पे किन्ने कई पूछन लगी।’’राजा मंत्री की बात सुन के ऊकी हुसियारी पे भौतई खुश भओ।
‘‘महाराज! जा नाई सोई अपन ओरन घांई इंसान की जात आए। भौत बड़ो भेद होय, सो ऊको पचानो मुस्किल होत आए। मनो ईने तो अपनी जान में कोनऊं से नई कई। ईको का पतो रओ के कभऊं पेड़ खों काट के बाजा बनाए जाहें औ बाजा सबरे भेद खोल दैहें। सो जा नाई को माफ करो जाए। जा आपके लाने भौतई ईमानदार आए।’’ मंत्री ने राजा खों समझाई। मंत्री के कहे पे नाई को बी माफ कर दओ गओ।    
सो भैया औ बैन हरों, जे हती ‘‘राजा के दो सींग’’ वारी किसां। जे किसां से दो बातें समझ में आउत आएं के राजा खों अपनी परजा से कोनऊं भेद नई रखो चाइए, बस अच्छो-अच्छो काम करो चाइए। परजा राजा की ब्यूटी नईं देखत आए औ ने हुन्ना-लत्ता देखत आए, ऊको तो सबसे पैले अपने लाने औ अपने परिवार के लाने रोटी, हुन्ना औ घर दिखात आए। सो, जो मैंगाई कम करे, बो सबसे अच्छो राजा कहाय, चाए फेर ऊके सिर पे सींग होंय, चाय पांछू पूंछ होए। औ दूसरी बात जे के जो भेद राखबे की बात करी होय, सो भेदई राखो, फेर दीवार होय चाए पेड़ होय, सबई के कान औ मों हो सकत आएं।
सो, जा अपने बुंदेलखंड की इत्ती नोनी किसां आए। बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की।
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Wednesday, July 3, 2024

चर्चा प्लस | हरदम हाशिए पर रहती है स्त्री-सुरक्षा | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस   
हरदम हाशिए पर रहती है स्त्री-सुरक्षा 
    - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      किसी भी बजट में स्त्री-सुरक्षा पर कितना ध्यान रखा जाता है, यह जग जाहिर है। लाड़ली बहना योजना हो या ऐसी की कोई दूसरी योजना, स्त्रियों को आर्थिकरूप से सशक्त बनाने के लिए बेहतर है लेकिन स्त्री के लिए आर्थिक सशक्तिकरण ही सब कुछ नहीं है। उसे सबसे पहले सुरक्षा चाहिए। एक ऐसा वातावरण चाहिए जिसमें वह निडर और निश्चिंत हो कर घर से बाहर कदम रख सके एवं घर में भी सुरक्षित अनुभव कर सके। स्त्री के प्रति अपराध कारित हो जाने के बाद अपराधी के घर पर बुलडोजर चला देने से भी अपराध की दर कम नहीं हो रही है। इस पर सोचना होगा।   
चाहे राज्य का बजट हो या केन्द्र का बजट, स्त्रियों की आर्थिक शक्ति में भले ही ईजाफा कर दे लेकिन उसे उन्हें उनकी सुरक्षा को ले कर आश्वस्त नहीं कर पाता है। महिला थाने हैं किन्तु स्टाफ की कमी है। स्त्रीसुरक्षा एप्प जारी किए जाते हैं लेकिन वे भी चंद महीनों बाद बंद फाईलों जैसे हो जाते हैं। यूं भी इस प्रकार के एप्प उन्हीं महिलाओं के काम आ सकते हैं जिनके पास एंडरायड फोन हो। जिन महिलाओं पास एंडरायड फोन नहीं हैं, उनकी सुरक्षा का क्या उपाय है? वे घर से लाठी ले कर निकलें, सीटी ले कर निकलें यानी अपनी सुरक्षा का बंदोबस्त खुद करें। प्रायः सभी स्त्रियों को सलाह दी जाती है कि वे आत्मरक्षा के गुर सीखें। वे जूडो-कराटे आदि की एक्पर्ट बनें। इसका तो अर्थ यही हुआ कि समाज और कानून स्त्रियों को पूरी तरह सुरक्षा देने में स्वयं को असफल मान रहा है।

मध्यप्रदेश में स्त्रियों के प्रति अपराध करने वालों में डर पैदा करने के लिए उनके घर बुलडोजर चला कर धराशयी करने का तरीका अपनाया गया है। लेकिन यह उपाय भी पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। अपराध थम नहीं रहे हैं और अपराधी डर नहीं रहे हैं। चाहे मध्यप्रदेश हो या देश का कोई भी प्रांत, स्त्रियां कहीं भी अपने आपको सुरक्षित अनुभव नहीं कर पाती हैं। स्कूल-कालेज में पढ़ने वाली आयु की लड़कियों से ले कर कामकाजी महिलाएं तक शारीरिक शोषण के संभावित भय में जीती हैं। इस बारे में वे अपने परिजन से भी चर्चा करने से हिचकती हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि दोषी चाहे जो हो किन्तु सबसे पहले पाबंदी उन्हीं पर यानी लड़कियों और स्त्रियों पर ही लगाई जाएगी। लड़कियों को पढ़ाई छुड़ा दिए जाने का डर रहता है। वे जानती हैं कि यदि वे घरवालों को बताएंगी कि राह चलते लड़के उन्हें छेड़ते हैं या स्कूल-काॅलेज में कोई लड़का उन्हें परेशान करता है तो पहले तो उन्हीं लड़कियों के कपड़ों को लक्ष्य कर के ताना मारा जाएगा, फिर ‘‘स्कूल जाना बंद’’, ‘‘काॅलेज जाना बंद’’ की धमकी दी जाएगी। ऐसी लड़कियां सुरक्षा की उम्मींद रखें भी तो किससे?

यही दशा रहती है कामकाजी स्त्रियों की। वे कितना भी बेहतर परफारमेंस दें लेकिन हर कार्यस्थल में एक न एक लोललुप दृष्टि उन पर गड़ी रहती है। वे चाह कर भी किसी से नहीं कह पाती हैं क्योंकि वे भी जानती हैं कि सबसे से पहले तो उन्हीं को दोषी माना जाएगा कि ‘‘तुम्हीं लिफ्ट देती होगी’’। अरे, जब साथ काम करेंगे तो आपस में हंसना-बोलना तो पड़ेगा ही। अब यदि कोई स्त्री हंस कर दो बात कर ले तो इसे किसी के द्वारा ‘‘लिफ्ट’’ समझ लिया जाना सरासर गलत है। लेकिन ऐसी गलतफहमियां कई बार अपराध के सिरे तक जा पहुंचती हैं। यह अपराध किसी भी प्रकार का हो सकता है। दैहिक शोषण, मानसिक शोषण, आर्थिक चोट आदि कुछ भी। अन्यथा बदनाम करने का फितूर तो कहीं गया नहीं है। किसी स्त्री से बदला लेना है तो सबसे आसान रास्ता दिखता है उसके चरित्र पर कीचड़ उछालना। यह भी अपराध है। किन्तु इस अपराध को कानून के कटघरे तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आती है, समाज पहले ही स्त्री को चरित्रहीन मान लेता है।

समाज में इस तरह की गिरावट क्यों आती जा रही है जबकि शासन बुलडोजर ले कर तैयार है? कहीं तो कुछ छूट रहा है जिस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। दरअसल प्रायः शक्तिसम्पन्न परिवारों के अपराधी छूटते चले जाते हैं जिससे अपराध करने का उनका हौसला बढ़ता है। यह व्यवस्था की हर कड़ी में मौजूद खामी का दुष्परिणाम है। इस खामी की शुरूआत अपराध के विरुद्ध पहली सीढ़ी से हो जाती है। यानी पुलिस व्यवस्था आज भी स्त्रियों के मन में अपनी मजबूत छवि नहीं बना पाई है। स्त्रियां थाने जाने से हिचकती हैं। यदि स्त्री थाने पहुंच भी जाए तो स्टाफ की कमी के चलते कई बार त्वरित सहायता नहीं मिल पाती है। फिर इस समय सबसे बड़ी आपराधिक प्रवृत्ति बन कर उभरा है साइबर अपराध। स्त्रियों के विरुद्ध यह अपराध घातक ढंग से काम करता है। धोखा दे कर आपत्तिजनक तस्वीरें ले लेना और फिर उन्हें इंटरनेट पर वायरल करने की धमकी दे कर दैहिक शोषण करना। ऐसी पीड़िताओं को अपराधी खुले तौर पर धमकी देते हैं कि यदि वे पुलिस के पास गईं तो उनकी तस्वीरें या वीडियो तत्काल इंटरनेट पर डाल दिए जाएंगे। भयग्रस्त स्त्रियां या लड़कियां चाह कर भी किसी की मदद नहीं ले पाती हैं और निरंतर शोषण की शिकार होती रहती हैं। ऐसे भी कई मामले सामने आए हैं जिनमें अपराधियों ने लड़की को अपनी सहेलियों को भी अपने साथ लाने को बाध्य किया।

चाहे इंटरनेट की आड़ ले कर किया जाने वाला अपराध हो अथवा सीधे की जाने वाली यौनहिंसा हो, वह घर के बाहर घटित हो अथवा घर के भीतर किसी परिजन द्वारा घटित हो कड़ाई से रोका जाना जरूरी है। यह तभी संभव है जब अपराध की दर पर अंकुश लगे। यह तो दिख रहा है कि बुलडोजर चलाना पर्याप्त नहीं है। क्योंकि इससे अपराधी के परिजन भले ही भुगतें लेकिन अपराधी की ढीठ प्रवृति पर इसका असर नहीं पड़ता है। यूं भी यदि किसी अपराधी को अपने परिवार के भले-बुरे की चिंता होगी तो वह अपराध करेगा ही क्यो? जिसकी प्रवृति अपराधी नहीं है, उसे अपराध करने से पहले अपने परिवार की प्रतिष्ठा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व उसे अवश्य याद आएंगे। अतः दण्ड को अपराधी पर केन्द्रित करना ही अधिक प्रभावी हो सकता है।
 
हम जब भी किसी महिला के साथ अपराध की खबर देखते या सुनते हैं तो उस अपराध के विरुद्ध आवाज उठाने की बजाय अपने घर की महिलाओं, बहनों और बेटियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा देते हैं, जो स्वयं एक प्रकार का अपराध ही है। अकसर घरेलू हिंसा पति द्वारा पत्नी या ससुराल वालों के द्वारा बहू को शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न के रूप में नजर आती है और महिलाएँ इसे अपना भाग्य समझकर सहती रहती हैं। इस हिंसा को सहने का एक कारण यह भी है कि हमारे भारतीय समाज में शादी के पहले से ही लड़की के दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि एक बार पिता के घर से डोली उठने के बाद पति के घर से ही अर्थी उठनी चाहिये यानी शादी के बाद लड़की अपने पिता के घर वापस आकर नहीं रह सकती, भले ही ससुराल वाले उसका कितना ही उत्पीड़न करें। जिसके चलते अधिकाँश महिलाएँ बिना किसी से शिकायत किये शांति से हिंसा को सहती रहती हैं।

घरेलू हिंसा की शिकार विवाहित तथा अविवाहित दोनों प्रकार की स्त्रियां होती हैं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में घर की बेटियों व महिलाओं के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय घर के पुरुष मुखिया ही करते हैं। जो अपना निर्णय उन पर थोपते हैं। यदि कोई लड़की अपना जीवनसाथी स्वयं चुन ले तो उसके परिवार वाले अपनी झूठी शान के लिये बेटी की हत्या करने में भी नहीं कतराते हैं।

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को लिंग आधारित हिंसा का कोई भी कार्य, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को शारीरिक, यौन या मानसिक क्षति या पीड़ा होती है या होने की संभावना होती है, जिसमें ऐसे कार्यों की धमकी, जबरदस्ती या स्वतंत्रता से मनमाने ढंग से वंचित करना शामिल है, चाहे वह सार्वजनिक या निजी जीवन में हो। महिलाओं के खिलाफ हिंसा के कई रूप हैं, हत्या जैसे दहेज हत्या, ऑनर किलिंग, कन्या भ्रूण हत्या, यौन अपराध जैसे बलात्कार, शील भंग करने की हिंसा, मानव तस्करी, जबरन वेश्यावृत्ति, घरेलू हिंसा, तेजाब फेंकना, अपराध । राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में भारी वृद्धि हुई है। अकेले 2022 में 4,45,256 मामले दर्ज किए गए, जो हर घंटे लगभग 51 एफआईआर के बराबर है, डेटा 2021 और 2020 की तुलना में गंभीर वृद्धि को उजागर करता है। एनसीआरबी की वार्षिक अपराध रिपोर्ट ‘‘भारत में अपराध 2022’’ जो 2023 के अंत में जारी की गई थी, में दिए गए आंकड़ों से पता चलता है कि प्रति लाख आबादी पर महिलाओं के खिलाफ अपराधों की दर 66.4 थी, जबकि ऐसे मामलों में चार्जशीट 75.8 दर्ज की गई। ब्यूरो को अपराध डेटा के संग्रह और विश्लेषण का काम सौंपा गया है और यह केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करता है। एनसीआरबी के अनुसार, भारतीय दंड संहिता के तहत महिलाओं के खिलाफ अधिकांश अपराध पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता (31.4 प्रतिशत) के थे, जिसके बाद महिलाओं का अपहरण (19.2 प्रतिशत), महिलाओं पर उनकी शील भंग करने के इरादे से हमला (18.7 प्रतिशत) और बलात्कार (7.1 प्रतिशत) के मामले थे।  

ये आंकड़े अच्छा संकेत नहीं हैं। स्त्रियों की सुरक्षा को ले कर शासन, प्रशासन, सरकार और समाज सभी को गंभीरता से सोचना होगा। अन्यथा आंकड़े इसी तरह बढ़ते रहेंगे और स्त्रियां सुरक्षित माहौल के लिए तसरती रहेंगी।  
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Tuesday, July 2, 2024

पुस्तक समीक्षा | छंदमुक्त कविता में लालित्य की स्थापना है ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 02.07.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ. श्यामसुंदर दुबे जी के काव्य संग्रह "पृथ्वी का प्रथम स्नान" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
छंदमुक्त कविता में लालित्य की स्थापना है ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’
     समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक       - पृथ्वी का प्रथम स्नान
कवि         - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक     - मेघा बुक्स, एक्स-11, नवीन शाहदरा, दिल्ली - 110052
मूल्य        - 200/-
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आधुनिक कविता की अपनी निजी समस्याएं हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्या शुष्कता और सपाटबयानी की है। आधुनिक कविता जिसे छंदमुक्त कविता भी कहा जाता है, प्रायः इन दोनों समस्याओं से निरंतर जूझती रहती है। कवि में सृजन के प्रति ठहराव की कमी, संवेदना के कोमल पक्ष की अवहेलना और कभी-कभी यथार्थ को पूरी कटुता के साथ व्यक्त करने की जिद कविता को शुष्क बना देती हैं। जबकि आधुनिक कविता में भी लालित्यपूर्ण ढंग से संवाद किया जा सकता है। जैसे नरेश मेहता ने अपने प्रबंधकाव्य ‘‘प्रवाद पर्व’’ में किया। नरेश मेहता का प्रबंध काव्य ‘‘प्रवाद पर्व’’ राम कथा पर आधारित है। यह 1975 में लिखा गया और 1977 में प्रकाशित हुआ। इसमें नरेश मेहता ने छंदमुक्त आधुनिक काव्य शैली को अपनाया और यह साबित किया कि आधुनिक काव्य शैली में मात्र वामपंथी विचारों को ही नहीं अपितु पारंपरिक कथानकों को भी प्रस्तुत किया जा सकता है। नरेश मेहता के इस प्रबंध काव्य में मनोवैज्ञानिक पक्ष अत्यंत दृढ़ता से उभरा था, किन्तु प्रकृतिपक्ष अपेक्षाकृत सीमित था। जब काव्य में प्रकृति के तत्वों का प्रमुखता से समावेश करते हुए दैनिक जीवन की समस्याओं को भी व्यक्त किया जाता है तो उसमें जो लालित्य की छटा बहुलता से दिखाई देती है, वह भावनाओं को और अधिक गहरे रंगों के साथ प्रस्तुत करती है। यह बात श्यामसुंदर दुबे के काव्य संग्रह ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ की कविताओं से गुज़रते हुए स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। 

डाॅ. श्यामसुंदर दुबे लोकजीवन से जुड़े हुए रचनाकार हैं। उन्होंने लोकजीवन पर अनेक ललित निबंध लिखे हैं। वे लोकजीवन के प्रतिष्ठित व्याख्याकार के रूप में भी जाने जाते हैं। चूंकि लोकजीवन प्रकृति के निकट रहता है और प्रकृति का सहचर एवं सहधर्मी होता है। अतः जब श्यामसुंदर दुबे कविता लिखते हैं तो उसमें प्रकृति, लोकजीवन और आमजन जीवन - तीनों का संतुलित प्रस्तुतिकरण दिखाई देता है। प्रकृति लालित्य की भावना को जागृत करती है, इसलिए श्यामसुंदर दुबे के इस काव्य संग्रह के प्रथम खंड की कविताएं प्रकृति के तत्वों को समर्पित हैं। 
     संग्रह के प्रथम खंड को उन्होंने शीर्षक दिया है ‘‘सृष्टि संभव’’। इस खंड में उन सभी मुख्य तत्वों पर कविताएं हैं जो सृष्टि को संभव बनाती हैं। जैसे- पृथ्वी, जल, आग, हवा, आकाश, देह और प्रेम। भारतीय दर्शन में पंचभूत अथवा पंचतत्व सभी पदार्थों के मूल माने गए हैं। ये पंचतत्व हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी। इन्हीं से सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है।  यहां तक कि मानव का अस्तित्व भी इन्हीं पंचतत्वों से बना है। जब इन पंच तत्वों में जीवन  का संचार होता है तो निर्जीव और सजीव में अंतर मुखर हो जाता है। सजीव में भावनाएं होती हैं। जहां भावनाएं होंगी वहां सृष्टि का आकलन एवं व्याख्या भी होगी। श्यामसुंदर दुबे अपनी पृथ्वी विषयक कविताओं में पृथ्वी को ‘‘गुस्सैल स्त्री’’, ‘‘लतामंगेशकर की तरह’’, ‘‘धरती का पता’’, ‘‘धरती की सुख-नींद’’और ‘‘धरती दिया बाती है’’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इन कविताओं में लालित्य के तत्वों की बात की जाए तो देखा जा सकता है कि मटेरियलिस्टिक एलीमेंट्स (जड़ तत्वों) का कवि ने किस तरह मानवीकरण किया है। उदाहरण के लिए ‘‘गुस्सैल स्त्री’’ की इन पंक्तियों को देखिए-
एक गुस्सैल स्त्री 
नहाती रही 
लावा की नदियों में वर्षों तक 
आग-आग होती रही 
घूमती वह चकरी-सी 
अकेली थी वह 
अपने पीड़ा भरे नृत्य में 
बिलकुल अकेली 
इस अनंत के ओर-छोर में 
वह तपती रही 
अपनी पोर-पोर में 
छिपाए अपने भीतर 
अपार संभावनाएं।

कवि ने जब जल की बात की है तो यही आह्वान किया है कि ‘‘पानी की लय न टूटने पाए’’। जल संबंधी अन्य कविताएं हैं-‘‘‘‘जल में कुंभ’’, ‘‘पानी में थी प्यास’’, ‘‘बर्फ से पूछना पानी का पता’’ और ‘‘पानी की अंतरंगता में’’। ‘‘बर्फ से पूछना पानी का पता’’ कविता में दृश्यात्मकता अद्भुत लालित्य रचती है। इस कविता की ये पंक्तियां बानगी स्वरूप-
जब कभी आप टकराएं बर्फ से
तो पूछना पानी का पता 
वह बताएगा आपको 
पानी की आँच में 
पिघलती प्यास के बारे में 
प्यास में डूबी पतझर की गलियों में 
घुमाने ले जाएगा वह 
जहाँ धीरे-धीरे पानी 
अपनी ताकत से 
बिछा रहा है वसंत 
जड़ों की धमनियों से 
झलकती उजास बना।

श्यामसुंदर दुबे ने आग को एक प्रेमगीत की तरह देखा है। ‘‘आग: प्रेमगीत है’’ कविता लिखते हुए वे कहते हैं कि -
चूल्हे के भीतर सेती है
संस्कृतियों के अंडे
अंडे जो फूट कर बनते हैं
चहचहाती कविता के दिग्गामी स्वर
वही है जो
अपनी उष्मा में ऋतुओं को उकसाती
जड़ों के रेशों में
रचती जो कम्प्यूटर
डालती मेमोरी में
वसंत, वर्षा, ग्रीष्म और शीत की
अनन्त अंगडाइयां।

‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ संग्रह में दूसरे खंड की कविताओं को ‘‘दृश्य-परिदृश्य’’ शीर्षक से रखा गया है। इस खंड की कुल अट्ठाईस कविताओं में ‘‘मौत’’, ‘‘कुंभ’’,‘‘सूरज मछुआरा’’, ‘‘शहर’’, ‘‘नदी की स्मृति’’, ‘‘तुम नहीं लिख पाते प्रेमगीत’’, ‘‘खेत के बीचो बीच अड़ी टांग’’, ‘‘शहर में ट्रैक्टर’’, ‘‘अग्नि संस्कार’’, ‘‘दृष्टि विस्तार’’ आदि जैसी विविधतापूर्ण कविताएं हैं। कवि किसी एक बिम्ब में बंध कर नही रहना चाहता है। वह जीवन के प्रत्येक तत्व को प्रकृति के विविध बिम्बो के धरातल पर देखना चाहता है ताकि जीवन और प्रकृति का भावनात्मक संबंध बना रहे। बा़ढ़ के दृश्य को उकेरती तीखा कटाक्ष करती एक मार्मिक कविता है ‘‘फोटू बचे रहेंगे’’। कविता देखिए-
बाढ़ के बीच/उस आदमी की हिम्मत
टंगी है आकाश में
और धरती डूबती जा रही है
पांवों के नीचे/बचाने के लिए
अब उसके पास कुछ नहीं है
सिवाय अपने
वह बचा हुआ है/बचाने को बाढ़
बाढ़ बची रहेगी
तो बाढ़ से घिरे आदमी के 
फोटू बचे रहेंगे। 

डाॅ. श्यामसुंदर दुबे ने अपने इस संग्रह की कविताओं में जो लालित्य रचा है वह विश्वास दिलाता है कि छंदमुक्त कविताओं में सरसता और लालित्य को स्थापित किया और रखा जा सकता है। यथार्थ कहने के लिए सपाटबयानी ही आवश्यक नहीं है। सटीक बिम्बों का चयन तीखा प्रहार करने की क्षमता रखता है। शैलीगत परिपक्वता, भाषाई समृद्धि एवं अभिव्यक्ति की गहराई काव्य संग्रह ‘‘पृथ्वी का प्रथम स्नान’’ को पठनीय बनाती है तथा छंदमुक्त काव्य में लालित्य को स्थापना दिलाती है।     
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