Wednesday, February 12, 2025

चर्चा प्लस | फ़िलहाल बेजोड़ है भाजपा का चुनाव प्रबंधन | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
      फ़िलहाल बेजोड़ है भाजपा का    
                 चुनाव प्रबंधन 
           - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
         आप हार गई। भाजपा जीत गई। किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। मानो इसी परिणाम की आशा थी सबको। ‘सबको’ अर्थात् दिल्ली से बाहर के भी मतदाताओं को जिनका दिल्ली चुनाव से सीधा वास्ता नहीं था। आप का सम्मोहन दिल्ली और पंजाब के बाहर तो वैसे भी नहीं रहा। दिल्ली में जितना था वह भी टूटता जा रहा था और यह टूटन स्पष्ट दिखाई दे रही थी। दिल्ली चुनाव के नतीज़ों ने यह तो बता दिया है कि राजनीति में बड़बोलापन हमेशा काम नहीं आता है। कितने लोग इस सबक को याद रख पाते हैं, यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन यह तो साफ़ हो गया है कि भाजपा का चुनाव प्रबंधन फ़िलहाल बेजोड़ है।  
     एक समय था जब अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में स्वयं को प्रोजेक्ट किया था। अपनी पार्टी आप पार्टी को भी राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित करने का स्वप्न देखा था। कुछ लोग प्रभावित हुए और कुछ लोगों ने उनके इस एंग्रीमैन प्रोजेक्शन को पसंद भी किया। लेकिन ये ‘‘कुछ लोग’’ दिल्ली और ंपजाब के बाहर न्यूनतम थे। दिल्ली में लगभग सभी प्रांतों के ऐसे लोग रहते हैं जिनका मूल निवास दिल्ली नहीं है। वे भी अपने मूल निवास के अपने परिजन एवं अन्य लोगों को इस बात के लिए कभी मना नहीं सके कि आप पार्टी भाजपा का बेहतरीन विकल्प है। पिछले चुनावों, चाहे वे लोकसभा के रहे हों या विधानसभा के, आप सबसे निचले पायदान पर खड़ी मिली। सिर्फ़ दिल्ली में जीत कर और बाद में पंजाब में अपना प्रभाव बढ़ा कर ‘‘आप’’ देश जीतने के स्वप्न देखने लगी। सपने देखना कोई गुनाह नहीं है। मगर सपने को सच करना मायने रखता है। सपने सच तभी होते हैं जब उनकी ज़मीन मज़बूत हो। जिनके विरुद्ध कभी कुछ न कहा गया हो, उनके विरुद्ध अचानक कोई बढ़-चढ़ कर खुल कर बोलने लगे तो लोगों का प्रभावित होना स्वाभाविक है। अरविंद केजरीवाल के मामले में यही हुआ। पहले उबाल फिर बवाल और फिर मलाल। धीरे-धीरे अरविंद केजरीवाल के प्रभाव की चारपाई के पाए एक-एक कर के टूटते गए, वे समय रहते प्रबंधन सम्हाल नहीं पाए और औंधे मुंह गिरे। इसके विपरीत भाजपा दो मोर्चे एक साथ साध रही थी। एक मोर्चा था आप पार्टी का तो दूसरा था कांग्रेस का। भाजपा के सौभाग्य से दोनों के प्रबंधन बेहद कमजोर थे। फिर भी भाजपा ने उन्हें हल्के से नहीं लिया। उनकी इसी रणनीति ने 27 वर्ष बाद दिल्ली उनकी झोली में डाल दिया।
भाजपा अपने पिछले विजयी चुनावों से यह सबको जता चुकी है कि उसके पास कार्यकर्ता हैं, पार्टी के लिए समर्पित टीम है, सोशल मीडिया को अपने पक्ष में मोड़ना उन्हें आता है, वहीं असंतुष्टों को उन्हीं की भाषा में संतुष्ट करना भी उन्हें आता है, आवश्यकता पड़ने पर वह जनता को रिझाने, लुभाने और प्रभावित करने में कोई कोर कसर नहीं रखती है। कुलमिला कर यह कि भाजपा का चुनाव प्रबंधन सब से भारी है और सब पर भारी है। कई राज्यों में कई बार भाजपा में फूट के लक्षण दिखाई दिए। ऐसा लगा कि भाजपा के कद्दावर आपस में ही लड़-झगड़ कर पार्टी को कमजोर कर देंगे। लेकिन हाई कमान ने कभी ऐसा होने नहीं दिया। कभी जादू की झप्पी दी गई तो कभी फटकार का सोंटा लहराया। परिणाम रहा ‘‘ऑल इज़ वेल!’’ बस, विपक्षी दल ‘ईडियट’ बने घूमते रहे। उस पर स्यापा यह कि वे तो अपनी असफलता का सही-सही आकलन भी नहीं कर पाए।     
          
आप की पराजय के बाद अब मात्र दिल्ली ही नहीं, वरन समूचे देश के राजनीतिक परिदृश्य पर प्रभाव पड़ेगा। एक देश एक चुनाव के नारे के साथ कहीं एक पार्टी का नारा स्वतः स्थापित न हो जाए। यद्यपि यह कहना जल्दबाजी कहा जाएगा है किन्तु वर्तमान यही दृश्य दिखा रहा है। अरविंद केजरीवाल ने पिछले 29 दिसंबर 2024 को आरोप लगाया था कि बीजेपी उनके विधानसभा क्षेत्र नई दिल्ली से बड़ी तादाद में मतदाताओं के नाम कटवा रही है। अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि आप समर्थकों के नाम हटाए जा रहे हैं और बीजेपी समर्थकों के जोड़े जा रहे हैं। तब चुनाव आयोग ने कहा था कि उन वोटरों के नाम हटाए जा रहे हैं, जो या तो दिल्ली से कहीं और के वोटर बन गए या दूसरे विधानसभा क्षेत्रों के वोटर लिस्ट में भी उनके नाम हैं। आरोप-प्रत्यारोप के बीच चुनाव हुए। मगर प्रश्न उठता है कि क्या आप सिर्फ उन्हीं मुट्ठी भर लोगों के भरोसे टिकी हुई थी जिनके नाम कथित रूप से काटे जा रहे थे? जबकि परिणामों ने कोई अलग ही बात साबित की। जहां इस बार के चुनाव में 20 प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से हटाए गए थे। आप को दिल्ली कैंट में जीत मिली जहां से वोटरों के नाम हटाए गए थे। तो क्या वोटर कटने का असर वहां नहीं था? नई दिल्ली के मतदाता आप समर्थित माने जाते रहे हैं लेकिन उन्होंने बता दिया कि आप उनका विश्वास खो चुकी है। कुछ लोगों का यह मानना है कि चुनाव से ठीक पहले ही आम बजट मोदी सरकार ने मध्य वर्ग को राहत देते हुए सालाना 12 लाख की सैलरी पर कोई भी इनकम टैक्स नहीं लेने की घोषणा कर के उनका दिल जीत लिया। लेकिन इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि केजरीवाल का प्रभामंडल तेजी से धुंधला पड़ने लगा था। बहुत ही चढ़ाव-उतार वाला एक ग्राफ दिखाई देता है यदि आप पार्टी के प्रभाव को देखा जाए। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में आप दूसरे नंबर पर थी, 2019 के लोकसभा चुनाव में तीसरे नंबर पर जा पहुंची। वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन को लाभ मिला। कांग्रेस की बदौलत आप भी भाजपा से आगे रही। फिर कांग्रेस लड़खड़ाई, आप भी लड़खड़ाई और अपना जनाधार गंवाने लगी।
ख़ैर, परिणाम आ चुके हैं। अप्रत्याशित कुछ भी नहीं था। प्रबल संभावना पहले ही बनने लगी थी। अब पीछे मुड़ कर देखना होगा आप और कांग्रेस दोनों को। इनके साथ उन सभी दलों को जो राष्ट्रीय दल बनने की चाहत रखते हैं। उनके लिए डैमेज कंट्रोल आसान साबित नहीं होगा। केजरीवाल नौकरशाह रहे हैं। ईमानदार या गैरईमानदार यह तो न्यायालय बताएगा, फ़िलहाल वे अपना जनाधार खो चुके हैं। उस खोए हुए जनाधार को वापस कैसे हासिल करेंगे, यह उनके लिए चिंता का विषय रहेगा।  सबसे नीचे खड़ी  कांग्रेस आप की पराजय में खुद की जीत की संभावनाएं टटोलने का प्रयास कर सकती है लेकिन वह इस सच्चाई को न भुलाए तो अच्छा है कि उसका ‘‘इंडिया’’ गठबंधन अभी भी राष्ट्रीय प्रभाव से बहुत दूर है। 

दिल्ली चुनाव ने भी इस बात की तस्दीक कर दी है कि उन कंधो पर बंदूक रखना आसान है जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी वे ठीक से नहीं निभा पा रहे हैं। महिलाएं घर की धुरी होती हैं। उन्हें कुछ भी दिया जाना पूरे घर की मानसिकता पर असर डालता है। रोजगार के बजाए कुछ रुपयों की सहायता भी मायने रखती है यदि वे बिना काम किए मिल रहे हों। इन सब के बीच महिला सुरक्षा का मुद्दा कहीं सुनाई नहीं पड़ता है। दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित मानी जाती है लेकिन क्या कोई दल इस बात का दावा करता है कि यदि उनकी सरकार बनी तो वे दिल्ली को एक ऐसा राज्य बना देंगे जहां महिलाएं आधी रात को भी निडर हो कर घर से बाहर निकल सकेंगी। नही! यह दावा किसी भी दल की ओर से सुनाई नहीं देता है। जब पैसे की सहायता दे कर वोट मिल रहे हों तो इतने बड़े दावे करने की ज़रूरत ही किसको है? या फिर यूं कहा जाए कि महिला सुरक्षा की वास्तविक चिंता ही किसको है? वारदात हो जाने पर ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाने या कैंडल मार्च निकालने से कोई निर्भया पुनर्जीवित नहीं होती है। बात तो तब है जब किसी महिला को ‘‘निर्भया’’ की पीड़ा से नहीं गुज़रना पड़े। सो, देखने की बात यह रहेगी कि भाजपा दिल्ली को कैसा सुशासन दे पाती है?

देखा जाए तो नवभारत टाईम्स ने दिल्ली के चुनाव के बहाने वर्तमान चुनावी परिदृश्य पर सही टिप्पणी की है कि ‘‘असल में, राजनीतिक दल यह मान चुके हैं कि अर्थव्यवस्था को लेकर गंभीर बदलाव करने के बजाय चुनावी मंच पर गरीबों और कमजोर वर्गों के लिए कुछ एकमुश्त योजनाओं का ऐलान करना ही सबसे आसान रास्ता है। यही कारण है कि दिल्ली चुनाव के दौरान बेरोजगारी, आर्थिक असमानता और प्रदूषण जैसे अहम मुद्दों को पीछे छोड़ दिया गया और सिर्फ मुफ्त बिजली, पानी, राशन जैसी चीजों पर ध्यान केंद्रित किया गया।’’ 

अब यह मुफ्त की ख़ैरात आमजन को किस स्तर तक और कब तक लुभा पाएगी यह भी भविष्य में पता चलेगा। कहा जा सकता है कि कुंभ के बाद सिंहस्थ आता है या फिर कह सकते हैं कि सिंहस्थ के बाद कुंभ आता है। धार्मिक कुंभ के बीच राजनीतिक कुंभ के नतीजे भाजपा के पक्ष में रहे अब सिंहस्थ तक विपक्षी दल अपनी स्थिति सुधार पाएंगे कि नहीं, यह भी अभी कहना कठिन है। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष भी जरूरी है लेकिन एक मजबूत विपक्ष, मुर्गा-परेड (रूस्टर मार्च) वाला नहीं जिसे अपने कटने का अंदेशा ही न रहे। बेहतर होगा कि विपक्ष भाजपा के चुनाव प्रबंधन से सबक ले और ईमानदारी से स्वयं का आकलन करे। बकौल शाइर हबीब जालिब-

तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहां तख़्त-नशीं था
उस को  भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था           
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