चर्चा प्लस (सागर दिनकर में प्रकाशित)
नमामि देवी नर्मदा! ... नरबदा मैया ऐसे तो मिलीं रें....
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
नर्मदा मात्र एक नदी नहीं अपितु गंगा, यमुना सरस्वती की भांति एक आस्था है, विश्वास है और संबल है। लोक आस्था में नर्मदा के दर्शन वहीं महत्व रखता है जो गंगा-दर्शन का। फिर भी एक नागरिक के तौर पर हमसे निरंतर चूक हुई और हमने अपनी नदियों को प्रदूषण के भेंट चढ़ने दिया यानी हमने अपनी मां के आंचल को गंदा होने दिया। बिना किसी राजनीतिक दृष्टिकोण के देखा जाए तो वर्तमान सरकार ने नदियों की सफाई, स्वच्छता एवं गरिमा की पुनः स्थापना का जो अभियान चलाया हुआ है वह प्रशंसनीय है। आज नर्मदा का स्वच्छ जल एक बार फिर हमारी आस्था की स्पष्ट छवि दिखाने में सक्षम है।
नर्मदा का उद्गम स्थल अमरकंटक मध्यप्रदेश में स्थित होने के कारण यह पर्व मध्यप्रदेशवासियों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। नर्मदातट पर बसे शहरों व स्थानों जैसे होशंगाबाद (नर्मदापुर), महेश्वर, अमरकण्टक, ओंकारेश्वर आदि सहित नर्मदा तट से दूर बसे शहरों व स्थानों में भी नर्मदा जयंती विधि-विधान से मनाई जाती है। इस दिन प्रातःकाल मां नर्मदा का पूजन-अर्चन व अभिषेक प्रारंभ हो जाता है। सायंकाल नर्मदा तट पर दीपदान कर दीपमालिकाएं सजाई जाती हैं। ग्रामीण अंचलों में भंडारे व भजन-कीर्तन का आयोजन किया जाता है। नर्मदा के प्रति अटूट श्रद्धा के एक नहीं अनेक कारण हैं। पूरे विश्व में मां नर्मदा ही एकमात्र ऐसी नदी हैं जिनकी परिक्रमा की जाती है। मां नर्मदा सात पवित्रतम नदियों में से एक हैं-
गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती,
नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेस्मित सन्निधिकुरुः।।
शास्त्रों के अनुसार मां नर्मदा के दर्शन मात्र से पुण्यफल प्राप्त होता है -
त्रिभिः सारस्वतं पुण्यं सप्ताहेन तु यामुनम।
सद्यः पुनाति गांग्गेय दर्शनादेव नर्मदा।।
अर्थात् सरस्वती का जल तीन दिन में, यमुना का जल एक सप्ताह में, गंगाजल स्नान करते ही पवित्र करता है किन्तु मां नर्मदा के जल का दर्शन मात्र ही पवित्र करने वाला होता है। कलियुग में मां नर्मदा के दर्शन मात्र से तीन जन्म के और नर्मदा स्नान से हजार जन्मों के पापों की निवृत्ति होती है।
नर्मदा मात्र एक नदी नहीं अपितु संस्कृति का उद्गम है, आस्था का प्रतीक है और इसके तट पर बसने वाले मनुष्यों की जीवन रेखा है। नर्मदा मैकल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से निकल कर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा गुजरात राज्यों को सिंचित करती हुई भरुच में पहुंच कर खम्बात की खाड़ी में सागर से जा मिलती है। नर्मदा के तट पर प्रागैतिहासिक मानवों ने आश्रय पाया था। नर्मदा के प्रति अपनत्व और श्रद्धा रखने वाले आज भी इसे अपनी मां-पिता के समान मानते हैं। नर्मदा-स्नान के लिए पहुंचने वाले श्रद्धालु जब इसके घाटों पर पहुंचते हें तो जो उनकी भावुक मनोदशा होती है उसका वर्णन इस बुंदेली ‘बम्बुलिया’ लोकगीत में बखूबी मिलता है-
नरबदा मैया ऐसे तो मिली रे
ऐसे तो मिलीं के जैसे मिले
मताई औ बाप, रे
नरबदा मैया हो....
नर्मदा की जलधाराएं आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देती हैं, ये तन-मन को तरोताजा कर देती हैं। कालिदास के मेघदूत ने भी अपनी थकान मिटाने के लिए नर्मदा के उद्गम क्षेत्र अमरकंटक को ही अपना पड़ाव बनाया था। नर्मदा भारत की वह इकलौती नदी है, जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। इसका जन्म किसी ग्लैशियर से नहीं हुआ है बल्कि यह वनाच्छादित पर्वत से निकली है। इसीलिए इसकी जलधाराएं गंगा आदि अन्य नदियों की जलधाराओं की अपेक्षा शांत हैं। यही कारण है कि मन को एकाग्रता देने के इच्छुक नर्मदा के तट को ध्यान-योग के अधिक उपयुक्त मानते हैं। इसकी जलधाराओं को देख कर मिलने वाली शांति मन को अलौकिक-सी अद्भुत अनुभूति प्रदान करती है।
नर्मदा से जुड़ी आस्था और श्रद्धा इसे विशेष नदी का स्थान दिलाती है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है- नर्मदा जयंती। नर्मदा के जन्म के संबंध में अनेक रोचक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार अंधकासुर का वध करने के बाद शिव मैकल पर्वत पर समाधिस्थ थे। तभी ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवता उनसे मिलने आए। देवताओं ने शिव से पूछा कि-‘हे भगवन! हम देवता भोगों में रत रहने से, बहुत-से राक्षसों का वध करने के कारण हमने अनेक पाप किए हैं, उनका निवारण कैसे होगा आप ही कुछ उपाय बताइए, तब शिवजी की भृकुटि से एक तेजोमय पसीने की बूंद पृथ्वी पर गिरी और कुछ ही देर बाद एक कन्या के रूप में परिवर्तित हो गई। उस कन्या का नाम नर्मदा रखा गया। सभी देवताओं ने उसे आशीर्वाद दिया। वह दिन था माघ शुक्ल सप्तमी का। उस दिन नर्मदा ने नदी के रूप में धरती पर बहना आरंभ किया। इसीलिए इस तिथि को नर्मदा अवतरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।
एक अन्य कथा के अनुसार तपस्या में बैठे शिव के पसीने से नर्मदा प्रकट हुई। नर्मदा ने प्रकट होते ही अपने अलौकिक सौंदर्य से ऐसी चमत्कारी लीलाएं प्रस्तुत कीं, जिन्हें देख कर स्वयं शिव-पार्वती चकित रह गए। उन लीलाओं को देख कर उनके मन में सुख का संचार हुआ। इसलिए उन्होंने नामकरण किया ‘नर्म’ अर्थात् सुख और ‘दा’ अर्थात् देने वाली -‘नर्मदा’।
नर्मदा के अवतरण के संबंध में ‘स्कंद’ पुराण में भी एक रोचक कथा मिलती है। इस कथा में कहा गया है कि राजा हिरण्यतेजा ने चौदह हजार वर्ष तक भगवान शिव की कठिन तपस्या की। तपस्या से शिव प्रसन्न हो गए। तब राजा ने शिव से प्रार्थना की कि वे एक ऐसी नदी पृथ्वी पर प्रवाहित करें जो भूमि को सिंचित करे, पापों का प्रक्षालन करे और सभी प्रकार के सुख प्रदान करे। तब शिव ने नर्मदा को धरती पर अवतरित किया। वे मगरमच्छ पर सवार हो कर उदयाचल पर्वत पर उतरीं और पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हुईं। उसी समय विष्णु ने नर्मदा को आशीर्वाद दिया कि -
नर्मदे त्वें माहभागा सर्व पापहरि भव।
त्वदत्सु याः शिलाः सर्वा शिव कल्पा भवन्तु ताः।
अर्थात् तुम सभी पापों का हरण करने वाली होगी तथा तुम्हारे जल के पत्थर शिव-तुल्य पूजे जाएंगे। तब नर्मदा ने शिवजी से वर मांगा कि जैसे उत्तर में गंगा स्वर्ग से आकर प्रसिद्ध हुई है, उसी प्रकार से मैं भी दक्षिण गंगा के नाम से प्रसिद्ध होऊं। शिवजी ने नर्मदाजी को अजर-अमर होने तथा प्रलयकाल तक इस धरती पर रह कर आदर, सम्मान पाने का वरदान दिया।
नर्मदा की कथाएं जनमानस के लिए उन अनमोल विचारों की तरह हैं जो उन्हें प्रकृति का सम्मान और संरक्षण करने के लिए प्रेरित करती हैं। इसीलिए तो जनमानस श्री नर्मदाष्टकम के रूप मे ं स्तुति कर उठता है-
सबिंदु सिन्धु सुस्खल तरंग भंग रंजितम
द्विषत्सु पाप जात जात कारि वारि संयुतम
कृतान्त दूत काल भुत भीति हारि वर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
त्वदम्बु लीन दीन मीन दिव्य सम्प्रदायकम
कलौ मलौघ भारहारि सर्वतीर्थ नायकं
सुमस्त्य कच्छ नक्र चक्र चक्रवाक् शर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
जगल्ल्ये महाभये मृकुंडूसूनु हर्म्यदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
गतं तदैव में भयं त्वदम्बु वीक्षितम यदा
मृकुंडूसूनु शौनका सुरारी सेवी सर्वदा
पुनर्भवाब्धि जन्मजं भवाब्धि दुःख वर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
अलक्षलक्ष किन्न रामरासुरादी पूजितं
सुलक्ष नीर तीर धीर पक्षीलक्ष कुजितम
वशिष्ठशिष्ट पिप्पलाद कर्दमादि शर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
सनत्कुमार नाचिकेत कश्यपात्रि षटपदै
धृतम स्वकीय मानषेशु नारदादि षटपदैरू
रविन्दु रन्ति देवदेव राजकर्म शर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
अलक्षलक्ष लक्षपाप लक्ष सार सायुधं
ततस्तु जीवजंतु तंतु भुक्तिमुक्ति दायकं
विरन्ची विष्णु शंकरं स्वकीयधाम वर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
अहोमृतम श्रुवन श्रुतम महेषकेश जातटे
किरात सूत वाड़वेषु पण्डिते शठे नटे
दुरंत पाप ताप हारि सर्वजंतु शर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
इदन्तु नर्मदाष्टकम त्रिकलामेव ये सदा
पठन्ति ते निरंतरम न यान्ति दुर्गतिम कदा
सुलभ्य देव दुर्लभं महेशधाम गौरवम
पुनर्भवा नरा न वै त्रिलोकयंती रौरवम
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
नमामि देवी नर्मदे, नमामि देवी नर्मदे
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे
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