Tuesday, February 25, 2025

पुस्तक समीक्षा | गहन संवेदनाओं की तपन है ‘'गढ़ई भर चाय'' में | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


आज 25.02.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा


पुस्तक समीक्षा

     गहन संवेदनाओं की तपन है ‘'गढ़ई भर चाय'' में
    - समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह    - गढ़ई भर चाय
लेखिका        - डाॅ. वंदना मिश्र
प्रकाशक        - इंडिया नेट बुक्स प्रा.लि., सी-122, सेक्टर 19, नोएडा - 201301        
मूल्य           - 300/-
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     कहानियां कभी हमारे मन के आकाश के रंगों से बुनी जाती हैं तो कभी हमारे आस-पास मौजूद संवेदनाओं के आकलन से। यह कहानीकार पर निर्भर होता है कि वह गल्प कथानक को चुनना चाहता है या यथार्थ को। दोनों ही प्रकार के कथानकों की अपनी महत्ता होती है। दोनों जीवन से जोड़ती हैं- एक सीधे-सीधे और दूसरे कल्पनालोक के इच्छाधारी आकारों के माध्यम से। डाॅ. वंदना मिश्र यथार्थ के कथानकों को चुनती हैं। चाहे अतीत हो या वर्तमान, वे अपने अनुभव के दायरे से पात्रों को ढूंढती हैं और वे ऐसी कहानी रचती हैं कि पढ़ने वाले को लगे कि अरे, ऐसी ही भाभी, ऐसे ही चाचा, ऐसे ही मामा तो हमारे गांव में रहते थे या हमारे घर के बाजू में रहते हैं! यही खूबी है डाॅ. वंदना मिश्र के कथा सृजन की। ‘‘गढ़ई भर चाय’’ उनका दूसरा कहानी संग्रह है। इसके पूर्व ‘‘अहम सवाल’’ नामक उनका कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उन्होंने बाल साहित्य भी लिखा है। बच्चों के लिए गीत और लोरियां भी। मणिमधुकर के नाटकों का समीक्षात्मक विवेचन भी उन्होंने किया है। डाॅ वंदना मिश्र का अपने गंाव और अपनी ज़मीन से जुड़ाव उनकी कहानियों में देखा जा सकता है। कहानी संग्रह ‘‘गढ़ई भर चाय’’ का नाम ही आंचलिकता को समेटे हुए है।
डाॅ वंदना मिश्र बुंदेलखंड की हैं और वे जानती हैं कि बुंदेली में लोटे को ‘‘गढ़ई’’ कहते हैं। उनकी स्मृतियों में गांव का वह परिदृश्य भी ताज़ा है जिसमें ‘कट चाय’ का कोई महत्व नहीं है। यदि चाय पिला कर सत्कार किया जाना है तो कम से कम गढ़ई भर चाय तो होनी ही चाहिए। चाय की यह मात्रा वस्तुतः अपनत्व का वह प्रतीक है जो गांवों में भरपूर पाई जाती थी। अब तो ग्रामीण परिवेश को भी सोशल मीडिया की हवा लग चुकी है। वे वैश्विकमंच से जुड़ गए हैं और परस्पर आपस में अबोले होते जा रहे हैं। फिर भी गांवों में एकाध ‘‘मीरा भाभी’’ अभी भी मिल जाएंगी जो एक पीढ़ी पहले की हैं और जिनके सामाजिक सरोकार असीमित हैं। ‘‘गढ़ई भर चाय’’ की नायिका है मीरा भाभी जिन्होंने अपने आधे चेहरे को घूंघट से ढांके रख कर पूरा जीवन बिता दिया किन्तु दूसरों के दुख-दर्द में सबसे आगे बढ़ कर शामिल हुईं। अपने कार्य कौशल से वे गांव भर की औरतों की ज़रूरत बन गईं। पुरुषों ने भी उनकी क्षमताओं पर विश्वास किया और उन्हें सरपंची सौंप दी। लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि व्यक्ति दूसरों से तो जीत जाता है किन्तु अपनों से मात खा जाता है। यही मीरा भाभी के साथ हुआ। डाॅ. वंदना मिश्र ने मीरा भाभी के बहाने उस ग्रामीण परम्परा, विश्वास एवं घनिष्ठता को प्रस्तुत किया है जो ग्राम्य जीवन की पहचान थी और जिसे सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया कथित आधुनिकता के ग्रहण ने। यह कहानी उन सभी को अपने अतीत में झांकने और अपने सरोकारों को आकलित करने का आग्रह करती है जो अपना गांव छोड़ कर शहरों मे बस गए हैं और उन्हें ग्रामीण जीवन-मूल्य पिछड़े हुए लगते हैं। यह एक सुगठित और विचारपूर्ण कहानी है।
संग्रह में कुल 19 कहानियां हैं। प्रथम कहानी ‘‘गढ़ई भर चाय’’ के बाद दूसरी कहानी है ‘‘गंतव्य’’। सरकार की हर योजना हर किसी को पसंद आए यह आवश्यक नहीं है। कई बार राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता भी ऐसे मसलों पर हावी हो जाती है। विडंबना तब बढ़ती है जब विरोध हिंसक एवं विध्वंसक प्रदर्शन में ढल जाता है। दूकानों को लूटना, बसों को आग लगा देना, रेलगाड़ी की बोगियों में घुस कर मार-पीट या लूटपाट करने लगना, यात्रियों से अभद्रता करना जैसे विरोध के तरीके अवसरवादियों को खुली छूट दे देते हैं कि वे विरोधकर्ताओं का मुखौटा पहन कर, उनमें शामिल हो कर आतंक मचाएं। सरकार की अग्निपथ योजना जिसके अंतर्गत अग्निवीरों की भर्ती की जानी थी, देश के कई हिस्सों में जनता इसी तरह के विरोधों का निशाना बनी। ‘‘गंतव्य’’ कहानी में ऐसी ही एक त्रासदी का विवरण है जब विरोधकर्ता एक रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म और वहां खड़ी एक रेलगाड़ी पर टूट पड़ते हैं। स्त्रियों के साथ अभद्रता, सामानों की लूट, भगदड़ में परिवारों का बिखरना। कुल मिला कर एक आतंक का वातावरण निर्मित हो जाता है। इसी विरोधी आतंक के बीच कुछ देवदूत सदृश लोग मददगार के रूप में सामने आते हैं और पीड़ित यात्रियों की हरसंभव सहायता करते हैं। यह कहानी विरोध के अमानवीय ढंग पर तर्जनी उठाती है।
‘‘अनोखा रिश्ता’’ कहानी वर्तमान परिवेश के उस कथानक पर है जिसमें कामकाजी स्त्री के पारिवारिक दायित्वों और उसके कामकाज के बीच संतुलन का प्रश्न उठ खड़ा होता है। वस्तुतः सामाजिक सोच का खाका कुछ इस तरह सेट हो चुका है जिसमें परिवार कामकाजी बहू तो चाहता है किन्तु उसे घर के कामकाज से मुक्त रखने की कल्पना भी नहीं कर पाता है। ऐसी स्थिति पर तर्क होता है कि एक स्त्री को घर के कामकाज तो सम्हालने ही होंगे, भले ही वह नौकरी करती हो क्योंकि वह स्त्री है। इसी सोच के चलते कई घरों में संबंध बिगड़ने लगते हैं और जिन घरों में इस तरह का दबाव कम होता है तथा सूझ-समझ से काम लिया जाता है वहां स्थिति सम्हली रहती है। ‘‘अनोखा रिश्ता’’ परिवार विमर्श की एक अच्छी कहानी है।
‘‘विनय न मानति जलधि जड़’’ शीर्षक कहानी रक्षाबंधन के पर्व में भाई बहन के परस्पर मिलने की तीव्र अभिलाषा पर बांध के टूटने की आपात स्थिति से उत्पन्न प्रश्नों को उठाता है। बांध का सही न बनाया जाना चंद लोगों की मानवीय लिप्सा का दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण है जो आमलोगों को जीवन को गहरे तक प्रभावित करती है। संदर्भ मात्र इतना है कि एक बहन को अपने भाई के घर पहुंच कर उसकी कलाई पर राखी बांधना है किन्तु बांध दरकने से आई बाढ़ इस सुखद अवसर को अपने साथ बहा ले जाती है। तब बहन को ही यह सोच कर तसल्ली करनी पड़ती है कि राखी तो कृष्ण जन्माष्टमी तक बांधी जा सकती है। यह कहानी अपने पीछे एक प्रश्न छोड़ जाती है कि भ्रष्टाचार करने वाले लोग जन-धन की क्षति, सुखों की बलि आदि के बारे में विचार क्यों नहीं करते?
संग्रह में एक कहानी है ‘‘विवाह सम्पन्न’’। यह राधा और कृष्ण के प्रेम को व्याख्यायित करती है किन्तु  आधुनिक संदर्भ में। कृष्ण का अपनी आयु से बड़ी राधा के प्रति प्रेम यशोदा माता को विचलित करता है। यमुनातट पर नहीं भोपाल के चिनार पार्क में राधा और कृष्ण का मिलना-मिलाना वर्तमान समाज के लिए सहज नहीं है। द्वापर और कलियुग के बीच का वैचारिक द्वंद्व इस कहानी में रोचक ढंग से प्रस्तुत हुआ है। वहीं ‘‘आॅनलाईन’’ कहानी बाजार के बदले स्वरूप एवं पारिवारिक संबंधों में आती शुष्कता को दर्शाती है। आज सब कुछ आॅनलाईन मंगाया जा सकता है- मेकअप सामग्री से ले कर नाश्ता तक। लेकिन इस सुविधा ने संबंधों की उष्णता को बुझा दिया है। यह एक सास और नवविवाहित बेटे-बहू के मध्य आॅनलाईन बाजार की उपस्थिति की कहानी है।
आज शहरों का रंग-रूप तेजी से बदलता जा रहा है। सुव्यवस्थित सलीकेदार सड़कें और यातायात के नियम-कायदे का पालन करवाते चैराहे विकसित शहरों की पहचान बन गए हैं। इस पहचान पर एक कलंक का धब्बा भी है और वह है भिखारियों की उपस्थिति। भौतिक विकास के बीच मानवजीवन के उस पहलू का विकास कहीं छूट-सा गया है जहां हर किसी को रोटी, कपड़ा, मकान मिलना चाहिए था। सरकार की तमाम योजनाओं के बीच भी भिखारियों का पाया जाना उन योजनाओं को मुंह चिढ़ाता रहता है। यह भिखारी प्रथा क्रूरता और कठोरता को भी रेखांकित करता है। एक युवक जिसके दोनों हाथ कटे हुए हैं, चैराहे पर खड़ा हो कर भीख मांगता है। दयावान लोग द्रवित हो कर उसके गले में लटके बैग में भीख के रूप में चंद रुपए डाल देते हैं। शाम तक वह अच्छी रकम पा जाता है किन्तु न तो उसके फटे कपड़े बदल पाते हैं और न कभी लगता है कि उसने भरपेट भोजन किया है। इस अहसास के पीछे मौजूद कड़वा सच अकसर छिपा रह जाता है। ‘‘नाक के नीचे’’ शीर्षक कहानी इसी सच्चाई से जोड़ती है।
चाहे फ्लाईओव्हर बने या आवासीय परिसर, सबसे पहले काटे जाते हैं हरे-भरे वृक्ष। देखा जाए तो नगरीय विकास के लिए सबसे पहली बलि प्रकृति और उसकी हरियाली की ही होती है। ‘‘यह कदम्ब का पेड़ अगर’’ कहानी विकास के नाम पर हरियाली के काटे जाने और उससे होने वाले नुकसान की कथा कहती है।
संग्रह की कहानी ‘‘खिड़कियां’’ वृद्ध विमर्श की कहानी है। एक मां जो अपनी बेटी को सास-ससुर की सेवा करने की शिक्षा दे कर ससुराल भेजती है, वह अपने ही बेटे और बहू की उपेक्षा की शिकार हो जाती है। मां से पाई हुई शिक्षा से प्रेरित हो कर बेटी तो अपने ससुराल में सबका ध्यान रखती है और सबसे प्रेम पाती है किन्तु वहीं दूसरी ओर बेटी को संस्कारों की शिक्षा देने वाली मां अपने ही घर में उपेक्षित हो कर भी बेटी के साथ जाना मंजूर नहीं करती है क्योंकि इससे उसे सामाजिक मान्यताएं टूटती हुई दिखती हैं। एक ओर व्याकुल बेटी और दूसरी ओर संस्कारों एवं परंपराओं की डोर थामें जर्जर मां। इस विकट स्थिति से उबरने का रास्ता भी सुझाया है लेखिका ने जिससे यह कहानी सार्थक बन पड़ी है। क्योंकि इसमें समस्या को भर नहीं रखा गया है अपितु सुझाव भी दिया गया है। यद्यपि एक और सुझाव को स्पर्श कर के छोड़ दिया गया है कि मां अपनी विवाहिता बेटी के पास भी रह सकती है यदि उसका दामाद भी उसे साथ रखने को तैयार हो। इस ओर संकेत अवश्य किया है लेखिका ने कि कुछ मानकों एंव परंपराओं का समय के साथ एवं विशेष परिस्थितियों में बदलना भी जरूरी है।
डाॅ वंदना मिश्र के कहानी संग्रह ‘‘गढ़ई भर चाय’’ में गहन संवेदनाओं की तपन है। वे जीवन से जुड़े विविध पहलुओं को आकलन भरी दृष्टि से परखती हैं और उन्हें कथानक के रूप में प्रस्तुत करती हैं। शैली और भाषा की दृष्टि से संग्रह की सभी कहानियां समृद्ध हैं। कुछ कथानकों को और विस्तार दिया जा सकता था किन्तु उनकी संक्षिप्तता भी खटकती नहीं है। अपितु कुछ कहानियां काव्यात्मक सौंदर्य लिए हुए हैं। यह कहानी संग्रह पठनीय है तथा सामाजिक सरोकारों के विचारों से परिपूर्ण है।
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