दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम- 'शून्यकाल'
शून्यकाल
प्रेम वाया बाज़ार यानी वेलेंटाइन का वर्तमान
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
विशुद्ध प्रेम जीने की सही राह दिखाता है। वहीं, आज सांसारिकता अपने चमोत्कर्ष पर है जिसे हम बाजारवाद कह कर पुकारते हैं। इस बाज़ार ने प्रेम की निजता को भी सार्वजनिक बना दिया है। पाश्चात्य परिपाटी ने प्रेम प्रदर्शन के दिन तय कर दिए हैं। किन्तु उसी मानव के भीतर एक प्रवृति प्रेम की भी रही है जिसे आधुनिक जीवन शैली ने गौण बना दिया है। रोज़, चॉकलेट, टेडी बियर,किस, हग आदि सबके दिन तय हैं। जब प्रेम बाजार से होकर गुजरता है तो ‘ब्रेकअप’ का दिन स्वतः तय हो जाता है। क्योंकि ‘‘प्रेम’’ बाजार की वस्तु नहीं बल्कि आत्मा की अनुभूति है।
‘प्रेम’ एक जादुई शब्द है। कोई कहता है कि प्रेम एक अनभूति है तो कोई इसे भावनाओं का पाखण्ड मानता है। जितने मन, उतनी धारणाएं। मन में प्रेम का संचार होते ही एक ऐसा केन्द्र बिन्दु मिल जाता है जिस पर सारा ध्यान केन्द्रित हो कर रह जाता है। सोते-जागते, उठते-बैठते अपने प्रेम की उपस्थिति से बड़ी कोई उपस्थिति नहीं होती, अपने प्रेम से बढ़ कर कोई अनुभूति नहीं होती और अपने प्रेम से बढ़ कर कोई मूल्यवान वस्तु नहीं होती।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते थे कि "प्रेेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।"
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।*
*दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।।
- यह दोहा है हज़रत ख़्वाजा फ़रीद्दुद्दीन गंजशकर उर्फ़ बाबा फ़रीद का। बाबा फ़रीद की वाणी पवित्र श्री गुरुग्रंथ साहिब में ‘‘सलोक फ़रीद जी’’ के रूप में विद्यमान है। बाबा फ़रीद ने अपने इस दोहे में प्रेम में समर्पण की पराकाष्ठा का वर्णन किया है। एक प्रेमी या प्रेयसी अपनी मृत्यु के निकट है। कागा यानी कौवा उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है ताकि वह उसकी देह को खा कर अपना पेट भर सके। तब वह प्रेमी या प्रेयसी के मुख से यह निवेदन निकलता है कि हे कागा! तुम मेरा पूरा शरीर खा लेना लेकिन मेरे दो नेत्रों को छोड़ देना क्योंकि मुझे अभी भी अपने प्रिय को देखने की आशा है। प्रेम की यह पराकाष्ठा, यह समर्पण अब क्या सिर्फ़ किताबों में सिमटता जा रहा है? कहां है ऐसी लगन? कहां है ऐसी चाह? अब तो प्रेम और प्रेम के विश्वास के नाम पर नृशंस धोखा ही देखने-सुनने में आने लगा है। ये घटनाएं अब मन में तिमिलाहट और बेचैनी पैदा करने लगी हैं।
प्रेमियों के बारे में रहीम ने बहुत रोचक और मर्मस्पर्शी बात कही है-
जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं।।
अर्थात् रहीम कहते हैं कि आग से जलकर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने पर प्रेमी बुझकर भी सुलगते रहते हैं। लेकिन आज प्रेमियों की एक ऐसी खेप पनपने लगी है जो विक्षिप्त है, मानसिक विकृति से भरी हुई है, इसीलिए वह स्वयं नहीं सुलगी है बल्कि अपनी वासना की पूर्ति होते ही अपनी प्रेमिका को ही जीवित जला देने से नहीं हिचकती है।
कबीर को क्या पता था कि ढाई आखर लड़कियों के लिए कभी इतने घातक सिद्ध होंगे। उन्होंने तो बड़ी सहजता से प्रेम की पैरवी की। अब इसकी व्याख्या हर तरह से की जा सकती है कि यह बात सामाजिक प्रेम और सौहाद्र्य के लिए है, या फिर यह बात ईश्वर के प्रति प्रेम के लिए है अथवा दुनियावी विपरीत-लिंगी परस्पर प्रेम के लिए है। मूल में तो यही है कि प्रेम एक अच्छा वातावरण निर्मित करता है। शांति, सुरक्षा और विश्वास प्रदान करता है और जीवन का वास्तविक ज्ञान देता है-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
ढाई आखर प्रेम के, पढ़ै सो पंडित होइ।
. यदि प्रेम की भावना न होती तो क्या यह सामाजिक संरचना बन पाती या पारिवारिक ढांचा खड़ा हो पाता? हजारी प्रसाद द्विवेद्वी लिखते हैं कि ‘प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त होता है। प्रेम से जीवन पवित्र और सार्थक हो जाता है। प्रेम जीवन की संपूर्णता है।’
दरअसल, प्रेम दोषपूर्ण नहीं होता है और न हो सकता है। प्रेम को आड़ बना कर वासनापूर्ति का लक्ष्य साधने वाले इसे कलंकित कर रहे हैं। क्योंकि जहां स्वार्थ है, वहां स्वार्थपूर्ति होते ही छुटकारे की भावना भी विकराल रूप ले लेती है। वर्तमान में ऐसा लग रहा है जैसे हम प्रेम के स्वरूप और उसकी प्रकृति को ले कर ही उलझ गए हैं। हर प्रेम को किसी न किसी ‘‘ऐंगल’’ से देखने लगे हैं और इसी का लाभ उठा रहे हैं। पाश्चात्य परिपाटी ने प्रेम प्रदर्शन के दिन तय कर दिए हैं। किन्तु उसी मानव के भीतर एक प्रवृति प्रेम की भी रही है जिसे आधुनिक जीवन शैली ने गौण बना दिया है। रोज़, चॉकलेट, टेडी बियर,किस, हग आदि सबके दिन तय हैं। प्रेम के प्रदर्शन को तयशुदा खांचों में बांट दिया गया है। क्या कोई भी संवेदना इस तरह किसी खांचे में बंट कर विकसित हो सकती है? बैठने से तो रिश्ते टूटते हैं जबकि प्रेम की प्रकृति रिश्ते जोड़ने का काम करता है। वाया बाजार खरीद- फ़रोख़्त हो सकती है, प्रेम नहीं।
सच यह भी है कि हर प्रेम में घोखा नहीं होता और हर प्रेम घातक नहीं होता। आवश्यकता है प्रेमी के आचार-व्यवहार और मनोदशा को समझने की। लेकिन वह कहावत है न कि ‘‘प्रेम तो अंधा होता है’’। यदि प्रेम में कपट है तो उस प्रेमांध व्यक्ति (लड़की) को बचाने के लिए उसके लौटने का दरवाज़ा खुला रखा जाए। जीवन में छोटे-बड़े धोखे हर इंसान खाता है। जब पैसों के लेनदेन में धोखा मिलता है तो परिजन यही कह कर सांत्वना देते हैं कि ‘‘अरे, जाने दो, उसी की किस्मत का रहा होगा। हम फिर कमा लेंगे। मन छोटा मत करो!’’ तो फिर प्रेम को ले कर निष्ठुरतापूर्ण हठ क्यों? लड़की ने प्रेम किया। उसे सच्चा साथ मिला और वह खुश है तो परिजन भी खुश रहें। लेकिन लड़की को प्रेम में धोखा मिलता है तो उसे लौट कर आने के लिए एक दरवाज़ा को खुला छोड़ें। उसके सम्हलने का एक मौका तो दें। यदि सारे रास्ते बंद कर दिए जाएंगे तो हादसे का रास्ता उसकी प्रतीक्षा में मुंह बाए बैठे मिलेगा। पहले एक लड़की को जन्म दे कर इस दुनिया में लाना और फिर उसके प्रेमविवाह कर लेने पर उसके जीते जी उसका पिण्डदान कर के उसे मृत घोषित कर देना, उससे सारे नाते तोड़ लेना क्या यही दायित्व निर्वहन है? समाज में इतनी भी कठोरता नहीं आनी चाहिए। यदि पानी की सतह पर शैवाल फैल जाए तो पानी का भी दम घुट जाता है। लड़कियों, महिलाओं की सुरक्षा के लिए सामाजिक सोच में एक लचीलापन जरूरी है।
बहरहाल, प्रेम के नाम पर नृशंसता की शिकार हुई सभी लड़कियों की ओर से मीराबाई का यह दोहा-
जो मैं ऐसा जानती प्रेम किए दुख होय।
नगर ढिंढोरा पीटती प्रेम न करियो कोय।।
जायसी की 'पद्मावत' एक महत्वपूर्ण काव्य रचना है जिसमें प्रेम के विभिन्न स्वरूपों का चित्रण किया गया है। इस काव्य में रानी पद्मिनी और रावल रतन सिंह के प्रेम को केंद्र में रखा गया है। प्रेम का यह स्वरूप न केवल शारीरिक आकर्षण से भरा है, बल्कि इसमें आत्मिक संबंध और त्याग का भी महत्व है। आधुनिक संदर्भ में, प्रेम का यह स्वरूप हमें सिखाता है कि सच्चा प्रेम केवल भौतिकता तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह एक गहरा मानसिक और भावनात्मक संबंध भी होता है। प्रेम का यह स्वरूप आज के समय में भी प्रासंगिक है, जहाँ रिश्तों में विश्वास, सम्मान और त्याग की आवश्यकता है। इस प्रकार, 'पद्मावत' में प्रेम के स्वरूप का अध्ययन हमें आधुनिक जीवन में प्रेम के महत्व को समझने में मदद करता है।
जिस वस्तु पर हम आत्मीयता आरोपित करते हैं, जिससे ममत्व जोड़ते हैं, वही प्रिय लगने लगती है और प्रेम के साथ ही आनन्द का उदय होता है। निश्चय ही किसी भी जड़ वस्तु में स्वयं प्रेमाकर्षण नहीं है, संसार की जिन भौतिक वस्तुओं को हम प्रेम करते हैं, वे न तो हमारे प्रेम को समझती हैं और न बदले में प्रेम करती हैं। रुपये को हम प्यार करते हैं, पर रुपया हमारे प्रेम या द्वेष से जरा भी प्रभावित नहीं होता। वहीं प्रेमचंद लिखते हैं कि-‘‘मोहब्बत रूह की ख़ुराक़ है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’’
प्रेम बाज़ार से खरीदी गई वस्तु नहीं वरन आत्मा से अनुभव की जाने वाली अनुभूति होती है, यदि प्रेम पर भौतिकता हावी हो जाए तो प्रेम वास्तविक प्रेम नहीं रह जाता है, वह प्रेम का दिखावा मात्र होता है।
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