Dr (Miss) Sharad Singh |
चर्चा प्लस
असली ‘पैडमैन’ को सलाम!
- डॉ. शरद सिंह
( चर्चा प्लस, दैनिक सागर दिनकर, 27.12.2017 )
शीघ्र ही अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म आने वाली है ‘पैडमैन’। इस फिल्म के बड़े चर्चे हैं। लेकिन कौन है असली ‘पैडमैन’ इस बारे में फिलहाल कम ही लोगों को जानकारी है। जिस समस्या को ले कर यह फिल्म आ रही है उसके बारे में मैंने सन् 2010 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘पत्तों में क़ैद औरतें’ में भी एक केस स्टडी के रूप में उल्लेख किया था। बहरहाल, ‘पैडमैन’ एक ऐसा व्यक्ति है जो आमआदमी से अलग नहीं है लेकिन अपनी सोच और इरादों को ले कर सबसे अलग है और सबसे बड़ी बात यह कि ‘पैडमैन’ में महिलाओं की समस्या को समझने और उनका हल निकालने का हौसला है। उनका नाम है पद्मश्री अरुणाचलम मुरुगनाथम।
असली ‘पैडमैन’ को सलाम!
- डॉ. शरद सिंह
( चर्चा प्लस, दैनिक सागर दिनकर, 27.12.2017 )
शीघ्र ही अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म आने वाली है ‘पैडमैन’। इस फिल्म के बड़े चर्चे हैं। लेकिन कौन है असली ‘पैडमैन’ इस बारे में फिलहाल कम ही लोगों को जानकारी है। जिस समस्या को ले कर यह फिल्म आ रही है उसके बारे में मैंने सन् 2010 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘पत्तों में क़ैद औरतें’ में भी एक केस स्टडी के रूप में उल्लेख किया था। बहरहाल, ‘पैडमैन’ एक ऐसा व्यक्ति है जो आमआदमी से अलग नहीं है लेकिन अपनी सोच और इरादों को ले कर सबसे अलग है और सबसे बड़ी बात यह कि ‘पैडमैन’ में महिलाओं की समस्या को समझने और उनका हल निकालने का हौसला है। उनका नाम है पद्मश्री अरुणाचलम मुरुगनाथम।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Daily newspaper |
फिल्म ‘पैडमैन’ के 2018 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर यानी 26 जनवरी को रिलीज किए जाने की घोषणा की गई है। इस फिल्म को अक्षय की पत्नी ट्विंकल खन्ना ने गौरी शिंदे के साथ मिलकर प्रोड्यूस किया है। यह एक बायॉपिक फिल्म है जो रियल लाइफ हीरो अरुणाचलम मुरुगनाथम के जीवन पर आधारित है। अरुणाचलम मुरुगनाथम वह व्यक्ति है जिसने महिलाओं के लिए पैड मेकिंग मशीन बनाई ताकि उन्हें सस्ते दाम पर सैनिटरी नैपकिन मिल सके। अरुणाचलम तमिलनाडु के कोयंबटूर के निवासी हैं। उन्होंने सैनेटरी नैपकिन बनाने के लिए दुनिया की सबसे सस्ती मशीन बनाई।
फिल्म में अक्षय के अलावा सोनम कपूर और राधिका आप्टे मुख्य भूमिकाओं में हैं। फिल्म में अमिताभ बच्चन का भी कैमियो रोल है। डायरेक्टर आर बाल्की की यह फिल्म अपने पहले पोस्टर से ही काफी आशाजनक लग रहा है। यह फिल्म माहवारी और महिलाओं के स्वास्थ्य पर फोकस करती है। महिलाओं की इस समस्या के बारे में मैंने सन् 2010 में सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘पत्तों में क़ैद औरतें’ में भी एक केस स्टडी के रूप में उल्लेख किया है। मैंने अपनी पुस्तक के पहले अध्याय में ही इस बात का विवरण दिया है कि तेंदूपत्ता का संग्रहण करने के लिए जंगल जाने वाली महिलाओं को किस प्रकार माहवारी की समस्या से जूझना पड़ता है जो कि ग्रामीण की क्षेत्र की लगभग सभी महिलाओं में समान रूप से मौजूद है।
अरुणाचलम की वास्तविक कहानी किसी फिल्मी कहानी से कहीं अधिक रोचक है। मध्यमवर्गीय परिवार के अरुणाचलम का विवाह सन् 1998 में हुआ। बस, वहीं से उनके जीवन की विशेष कहानी का पहला चैप्टर आरम्भ हुआ। एक घटना के बारे में अरुणाचलम बताते हैं कि उन दिनों उनकी नई-नई शादी हुई थी और वे लोग कोयम्बटूर में रह रहे थे। एक दिन उनका ध्यान गया कि उनकी पत्नी बाथरूम से निकली और उसने अपने हाथ में पकड़ा हुआ कोई सामान अपनी पीठ पीछे छुपा रखा था। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनकी पत्नी जो आमतौर पर उनसे कुछ भी नहीं छुपाती है, वह ऐसा क्या छुपा रही है? अरुणाचलम से नहीं रहा गया तो उन्होंने पूछ ही लिया कि तुम क्या छुपा रही हो? पत्नी से झिझकते हुए उत्तर दिया कि ‘यह तुम्हारे जानने लायक नहीं है।’ पत्नी के ऐसा कहने पर अरुणाचलम की उत्सुकता और बढ़ गई। वे उठ कर पत्नी के पास गए और उन्होंने उसका हाथ पकड़ कर सामने किया तो वे दंग रह गए कि उनकी पत्नी के हाथ में रक्तरंजित कपड़ा था और वही पत्नी उनसे छिपाना चाह रही थी। अरुणाचलम ने पत्नी से चर्चा की तो उन्हें पता चला कि देश की हज़ारो-लाखों महिलाएं उनकी पत्नी की तरह पुराने कपड़ों के टुकड़े माहवारी के दौरान इस्तेमाल करती हैं। ऐसे कपड़ों को बार-बार इस्तेमाल करना अस्वास्थ्यकर भी होता है और असुविधाजनक भी। इसके साथ ही उप्हें पता चला कि सेनेटरी पैड्स इतने मंहगे होते हैं कि ग़रीब घर की महिलाएं तो उसे काम में ला ही नहीं सकती हैं। यूं भी महिलाएं घर का बजट बनाते समय स्वयं के स्वास्थ्य के लिए सबसे कम राशि रखती हैं या फिर बिलकुल भी नहीं रखती हैं। सेनेटरी पैड्स खरीदने के प्रश्न पर स्वयं उनकी पत्नी ने कहा था कि ‘‘अगर मैं सेनेटरी नैपकिन इस्तेमाल करुंगी तो घर का दूध खरीदने का जो बजट है सब उसी में लग जाएगा।’’ यह जान कर अरुणाचलम को बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने सोचा कि यदि महिलाओं को सस्ते पैड उपलब्ध कराए जा सकें तो सभी महिलाएं इसे काम में ला सकेंगी।
अरुणाचलम उसी समय अपनी पत्नी के लिए सेनेटरी नैपकिन का एक पैकेट खरीद कर लाए। अरुणाचलम ने इसे पहली बार देखा। उत्सुकतावश इन्होंने देखना शुरू किया कि आखिर यह किस चीज से बनता है। इसी पड़ताल में उन्होंने पाया कि जिस कपड़े के इस्तेमाल से एक पैड तैयार होता है उसकी कीमत लगभग दस पैसे आती है। लेकिन इसी को बड़ी-बड़ी कंपनिया चालीस गुना दाम पर बेचती हैं। उस दिन अरुणाचलम ने यह तय किया कि वह अपनी पत्नी के लिए ऐसा ही पैड खुद से अपने घर में बनायेंगे। अरुणाचलम ने अपना प्रयास आरम्भ कर दिया। शुरू में उन्हें असफलताएं हाथ लगीं। उनके बनाए पैड्स में कभी लीक होने की समस्या तो कभी वे जल्दी खराब हो गए, पर अरुणाचलम ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी पत्नी और अपनी बहन से अनुरोध किया कि वे उनका बनाया पैड प्रयोग में लाएं जिससे उन्हें पैड्स की खामियों का पता चल सके। जल्दी ही उनकी पत्नी और बहन दोनों की उनके इन प्रयोगों से तंग आ गईं और उन्होंने सहयोग करने से मना कर दिया। अरुणाचलम हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने मेडिकल कॉलेज की लड़कियों से संपर्क किया। कुछ लड़कियां उनके प्रयोग में सहयोग करने के लिए मान गईं। मगर इसका अरुणाचलम के वैवाहिक जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ा। उनकी पत्नी को लगा कि अरुणाचलम पैड बनाने के बहाने लड़कियों से संपर्क रखना चाहते हैं। पत्नी नाराज़ हो कर उन्हें छोड़ कर मायके चली गई। इतना ही नहीं, पत्नी ने तलाक की मांग भी कर दी। इससे लड़कियों के मन भी संदेह उपजा और उन्होंने भी सहयोग देने से मना कर दिया।
उस समय यही लगा कि अरुणाचलम अब हार गए हैं और उनका प्रयोग अब आगे नहीं बढ़ सकेगा। लेकिन अरुणाचलम तो मानो किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे। उन्होंने स्वयं पर प्रयोग करना शुरू कर दिया। इसके लिए वे पशुओं के रक्त की थैली अपने कपड़ों के भीतर बांध कर, उस पर अपना बनाया पैड पहन कर घूमते ताकि पैड की योग्यता की जांच कर सकें। स्वयं अरुणाचलम ने एक साक्षात्कार में बताया था कि “उन पांच छः दिनों में मुझे जो तकलीफ हुई उसका बयान करना मुश्किल है और मैं दुनिया की हर महिला को नमन करता हूं जो हर महीने इस तरह की परेशानी से गुजरती हैं।”
लगभग दो साल के अथक प्रयास के बाद अरुणाचलम को पता चला कि बड़ी कम्पनियां पैड में एक तरह के फाइबर का इस्तेमाल करती हैं। जिस मशीन से यह पैड बनाया जाता है वह लाखों की आती थी। इनके पास न पैसा था और न ही वे महिलाएं जो इतने महंगे पैड का प्रयोग कर सकें। इसको देखते हुए अरुणाचलम ने मुम्बई के एक व्यापारी की मदद से एक नई मशीन का आविष्कार किया जिसकी लागत लगभग 75,000 रुपये आई। अरुणाचलम ने 18 महीनों में लगभग 250 मशीन बनाई। एक मशीन से करीब 200 से 250 पैड रोजाना तैयार होते हैं और उनको करीब ढाई रुपये की दर से बेचा जाता है। अरुणाचलम के अधिकतर ग्राहक या तो एनजीओ हैं या महिलाओं के स्वसहायता समूह। सन् 2014 में उन्हें टाइम्स मैगजीन के 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में चुना गया और सन् 2016 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया। आज अरुणाचलम जयश्री इंडस्ट्रीज नाम का नैपकिन बिजनेस चला रहे हैं। इसकी 2003 यूनिट्स पूरे भारत में हैं। जिसमें लगभग 21000 से अधिक महिलाएं रोजगार पा रही हैं।
ऐसे समय में अरुणाचलम के द्वारा अविष्कृत मशीनों से बने सेनेटरी पैड्स बहुत मायने रखते हैं जब आज भी देश की लगभग 75 प्रतिशत महिलाएं सेनेटरी पैड्स की कीमत उनके बजट पर अतिरिक्त भार डालने वाली होने के कारण उनका प्रयोग नहीं कर पाती हैं। आर्थिक रूप से निम्नवर्ग की एवं निपट देहातों की महिलाएं पीरियड के दौरान अस्वास्थ्यकर तरीके अपनाती हैं। जिसमें पुराना कपड़ा, राख इत्यादि का प्रयोग शामिल है। अच्छा है कि रील लाईफ के ‘पैडमैन’ के जरिए असली पैडमैन का अविष्कार बड़े पैमाने पर सबके सामने आएगा और हर उस महिला तक सेनेटरी पैड्स पहुंचने का रास्ता निकल सकेगा जो आर्थिक कारणों से उससे वंचित हैं।
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