Thursday, June 8, 2017

चर्चा प्लस ... अपनी गरिमा खोता आंदोलन ... - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
वर्तमान किसान आंदोलन जिस दिशा में जा रहा है, वह दुखद है ...इस विषय पर मैंने अपने कॉलम ‘चर्चा प्लस’’ में अपने विचार सामने रखे हैं ... ‘‘अपनी गरिमा खोता आंदोलन’’ ... मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 08.06. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper....

 

चर्चा प्लस
अपनी गरिमा खोता आंदोलन
- डॉ. शरद सिंह

 
अपने अधिकारों के लिए लड़ना कोई गलत बात नहीं है। प्रजातंत्र इसकी पूरी छूट देता है लेकिन वही प्रजातंत्र आंदोलनकारियों से उस सदव्यवहार की भी अपेक्षा रखता है जो आमनागरिकों की सुख-शांति के लिए ज़रूरी है। 27 हज़ार लीटर दूध सड़क पर बहा कर कोई अपना पक्ष सही कैसे ठहरा सकता है? सरकार भी मान रही है कि आंदोलन में असामाजिक तत्व घुस गए हैं जो ऐसी बेजा हरकतें कर रहे हैं। ऐसे में आंदोलनकारियों चाहिए कि वे अपने आंदोलन की गरिमा बनाए रखते हुए असामाजिक तत्वों को अलग चिन्हित होने दें। अन्यथा आंदोलन के हिस्से में अपयश ही आएगा।

यह पहली बार नहीं है कि किसान आंदोलन करने के लिए विवश हुए हैं। लेकिन यह पहला अवसर है कि मध्यप्रदेश के शांत और धैर्यवान किसानों ने बरबादी का तांडव किया हो। क्विंटलों फल और सब्ज़ियां नष्ट कर दी गईं, हज़ारों लीटर दूध सड़कों पर बहा दिया गया, रेल की पटरियां उखाड़ने भी जा पहुंचे, अपनी ड्यूटी देते पुलिसवालों पर इस तरह पत्थर बरसाए कि एक पुलिसवाले की आंख ही फूट गई, राजमार्गों पर चक्का जाम किया। यह चेहरा किसी स्वस्थ आंदोलन का तो हो ही नहीं सकता है। जब कोई बात गरिमापूर्ण ढंग से कही जाती है तो उसका असर भी सकारात्मक हांता है। जो जनता आज अपने नन्हें शिशुओं और बूढ़े, बीमार परिवाजन के लिए एक-एक बूंद दूध के लिए तरस रही है वही जनता सच्चे दिल से आंसू बहाती है जब कोई किसान कर्ज में उूब कर आत्महत्या करता है। वह दुआ करती है कि अब किसी और किसान को ऐसे आत्मघाती कदम न उठाना पड़े। मगर वर्तमान किसान आंदोलन के आंदोलनकारी क्या उसके लिए दुआएं करने वाली जनता के दुख-दर्द भूल बैठी है? जब फल, सब्ज़ी और दूध को बरबादी का निशाना बनाया गया तो यह भी बात उठी कि इससे तो अच्छा था कि इस तरह बरबाद करने के बदले ज़रूरतमंदों में बांट देते। आंदोलनकारियों के एक पक्ष ने इसे आत्मसात भी किया और अस्पताल में जा कर मरीजों में बांट दिया। निःसंदेह यह एक विवेकपूर्ण कदम कहा जा सकता है लेकिन यह तथ्य भूला नहीं जा सकता है कि फल, सब्ज़ी, दूध, दवाएं बुनियादी वस्तुओं में आते हैं। ये विलासिता की वस्तुएं नहीं हैं। ये दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की वस्तुएं हैं। जिन पर हज़ारों बच्चों और बीमारों का जीवन निर्भर है। सामान्य सी बात है कि एक मलेरिया का मरीज़ दूध के बिना कुनैन की गरमी नहीं झेल सकता है।

Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

यह आंदोलन महाराष्ट्र से शुरू हुआ था और अब इसने मध्यप्रदेश को अपनी चपेट में ले लिया है। आंदोलनकारियों की अनेक मांगें हैं, जिनमें कर्जमाफ़ी जैसी मांग भी शामिल है।
हमारे देश में किसान आंदोलनों का लम्बा इतिहास है। कई महत्वपूर्ण किसान आंदोलन हुए जिन्हें भारतीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों से लिखा गया है क्यों कि वे अपने रास्ते से भटके नहीं थे। वे आमजनता को अपने साथ ले कर चले थे, उन्होंने आमजनता की सुख-शांति के मार्ग में रोड़े नहीं अटकाए थे। नील विद्रोह किसानों द्वारा किया गया एक आन्दोलन था जो बंगाल के किसानों द्वारा सन् 1859 में किया गया था। नील कृषि अधिनियम के विरोध में नदिया जिले के किसानों ने 1859 के फरवरी-मार्च में नील का एक भी बीज बोने से मना कर दिया। यह आन्दोलन पूरी तरह से अहिंसक था। सन् 1860 तक बंगाल में नील की खेती लगभग ठप पड़ गई। अंततः सन् 1860 में इसके लिए एक आयोग गठित किया गया। बिहार के बेतिया और मोतिहारी में 1905-08 तक उग्र विद्रोह हुआ। ब्लूम्सफिल्ड नामक अंग्रेज की हत्या कर दी गई जो कारखाने का प्रबन्धक था। जिससे आंदोलन को धक्का पहुंचा। अन्ततः सन् 1917-18 में गांधीजी के नेतृत्व में चम्पारन सत्याग्रह हुआ जिसके फलस्वरूप ’तिनकठिया’ नामक जबरन नील की खेती कराने की प्रथा समाप्त हुई।
गांधीजी के नेतृत्व में बिहार के चम्पारण जिले में सन् 1917-18 में एक सत्याग्रह हुआ। इसे चम्पारण सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। हजारों भूमिहीन मजदूर एवं गरीब किसान खाद्यान्न के बजाय नील और अन्य नकदी फसलों की खेती करने के लिये बाध्य हो गये थे। वहां पर नील की खेती करने वाले किसानों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। अंग्रेजों की ओर से खूब शोषण हो रहा था। ऊपर से कुछ बगान मालिक भी शोषण करते थे। आंदोलन के दौरान गांधीजी ने अपने कई स्वयंसेवकों को किसानों के बीच में भेजा। यहां किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खोले गये। लोगों को साफ-सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया। चंपारण के इस ऐतिहासिक संघर्ष में डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य कृपलानी समेत चंपारण के किसानों ने अहम भूमिका निभाई। चंपारन के इस गांधी अभियान से अंग्रेज सरकार परेशान हो उठी। सरकार ने मजबूर होकर एक जांच आयोग नियुक्त किया, गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया।। अंततः कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया।
खेड़ा सत्याग्रह गुजरात के खेड़ा जिले में किसानों का अंग्रेज सरकार की कर-वसूली के विरुद्ध एक सत्याग्रही आन्दोलन था। यह महात्मा गांधी की प्रेरणा से वल्लभ भाई पटेल एवं अन्य नेताओं की नेतृत्व में हुआ था। इस आंदोलन के फलस्वरूप सरकार ने गरीब किसानों से लगान की वसूली बंद कर दी।
मध्यप्रदेश में इस वर्तमान किसान अांदोलन के विकृत रूप ढल जाने के बाद भी यह मानते हुए कि वास्तविक किसान इस तरह का आचरण नहीं अपना सकते हैं, यह तो उपद्रवियों का काम है, शिवराज सिंह सरकार किसानों की मांगे मानते जा रही है। भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ वार्ता के बाद आंदोलन ख़त्म करने का फैसला किया। जबकि आंदोलन में अगुआ भारतीय किसान यूनियन और राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ ने संघर्ष का रास्ता नहीं छोड़ने का ऐलान किया। उज्जैन में बैठक के बाद तय हुआ कि किसान कृषि उपज मंडी में जो उत्पाद बेचते हैं, उनका 50 फीसदी उन्हें नकद मिलेगा जबकि 50 फीसदी आरटीजीएस के ज़रिए यानी सीधा उनके बैंक खाते में आएगा। ये भी तय हुआ कि मूंग की फसल को सरकार समर्थन मूल्य पर खरीदेगी। शिवराज सरकार ने यह भी घोषण की कि किसानों की प्याज 8 रुपए प्रति किलोग्राम की सरकारी दर से अगले आगामी 30 जून तक खरीदा जाएगा। सब्जी मंडियों में किसानों को ज्यादा आढ़त देनी पड़ती है, इसे रोकने के लिए सब्जी मंडियों को मंडी अधिनियम के दायरे में लाया जाएगा। फसल बीमा योजना को ऐच्छिक बनाने और किसानों के खिलाफ आंदोलन के दौरान दर्ज मामलों को भी वापस लेने का भी फैसला हुआ। बैठक के बाद भारतीय किसान संघ के शिवकांत दीक्षित ने घोषणा की कि चूंकि सरकार ने उनकी सारी बातें मान ली हैं इसलिए आंदोलन को स्थगित किया जाता है। वहीं राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ ने इस समझौते की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि सरकार इस आंदोलन से घबराकर ऐसे हथकंडे अपना रही है, वहीं भारतीय किसान यूनियन ने कहा कि हड़ताल उनके संगठन ने शुरू की थी और खत्म भी वही करेंगे।
इस आंदोलन का सबसे दुखद पक्ष यह है कि यह किसानों के प्रति जनता की सहानुभूति को क्षति पहुंचा रहा है। आंदोलन का घटनाक्रम दुखद इतिहास रचता जा रहा है। जैसे, 03 जून रात को चोइथराम मंडी के बाहर और बिजलपुर के कुछ लोगों उपद्रव और तोड़फोड़ किया गया। यद्यपि किसान सेना ने इसे अनुचित ठहराया और इस मामले से खुद को अलग कर लिया। किसान सेना के जगदीश रावलिया ने भी कहा कि जो हुआ गलत हुआ और इस उपद्रव से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। रतलाम में रविवार रात किसान हिंसक हो गए थे। डेलनपुर में किसानों ने प्रदर्शन किया, जिस पर पुलिस ने लाठीचार्ज व आंसूगैस के गोले छोड़े। किसानों ने पथराव शुरू कर दिया। पथराव में सहायक उपनिरीक्षक पवन यादव की आंख में गंभीर चोट आई है। चार वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। इस दौरान भोपाल-इंदौर एक्सप्रेस-वे से गुजरने वाले वाहनों से आम, केले, अनार और सब्जियां लूटकर सड़क पर फेंकना शुरू कर दिया। धार के बदनावर में में किसानों ने हजारों लीटर दूध सड़कों पर बहा दिया और फलों के ट्रक लूट लिए। इसी तरह नीमच में किसानों ने प्रदर्शन किया, जबकि झाबुआ में किसानों और व्यापारियों के बीच झड़प हुई। हरदा में आम किसान यूनियन ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किया। आंदोलन का असर यह हुआ कि आंदोलन के चौथे दिन राजधानी भोपाल में दूध की सप्लाई गड़बड़ा गई। करीब डेढ़ लाख ग्राहकों को परेशान होना पड़ा। शिमला मिर्च, टमाटर, करेला, सेम की फली, हरी मिर्च, अदरक, फूलगोभी और खीरे की आपूर्ति अधिकतर महाराष्ट्र से ही होती है लेकिन हड़ताल की वजह से बाजार में इन सब्जियों की कमी हो गई है। सोमवार को भी किसानों ने राज्य के हाईवे को रोक दिया।
किसानों कर्ज माफ किए जाने और स्वामीनाथन कमिशन की सिफारिशें लागू किए जाने की मांग कर रहे हैं। मांगे रखना और उन्हें पूरी करवाने के लिए आंदोंलन का रास्ता अपनाने में कोई दोष नहीं है लेकिन यदि आंदोलन जनहित को भूलने लगे और विध्वंसक हो जाए या फिर सरकार के झुकने के बावजूद भी उग्रता का रूख अपनाए रहे तो आंदोलन की गरिमा को ठेस पहुंचेगी ही। अपने अधिकारों के लिए लड़ना कोई गलत बात नहीं है। बहरहाल, जरूरी है कि आंदोलनकारी कम से कम जनहित में तो धैर्य से काम लें और अपने आंदोलन की गरिमा बनाए रखें।
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