Wednesday, August 1, 2018

चर्चा प्लस ... कहां जाएंगे असम के 40 लाख लोग - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लसः 
    
कहां जाएंगे असम के 40 लाख लोग
      - डॉ. शरद सिंह                                                                           
नेशनल सिटीजंस रजिस्टर (एनआरसी) की ताज़ा सूची जारी होते ही हंगामा मच गया। संसद से चल कर बहस गलियों ओर चौराहों तक आ पहुंची। बहस स्वाभाविक है क्योंकि सवाल 40 लाख लोगों के भविष्य का है। इन चालीस लाख लोगों में औरत, बच्चे, बूढ़े, जवान सभी हैं जो भारतीय नागरिकता में शामिल नहीं पाए गए हैं, भले ही उनमें से अधिकांश को असम में रहते हुए लगभग सैंतालीस साल हो चुके हैं। अब सवाल उठेगा ही कि ये 40 लाख लोग अब कहां जाएंगे? यह सूची भले ही सुप्रीमकोर्ट के निर्देश पर तैयार की गई हो लेकिन इस अतिसंवेदनशील सवाल का जवाब सरकार को ही ढूंढना होगा जो कांटों के ताज़ से कम नहीं है।                     
कहां जाएंगे असम के 40 लाख लोग ... चर्चा प्लस ... Column of Dr (Miss) Sharad Singh in Sagar Dinkar News Paper
असम में लम्बे समय तक चले बोडो आंदोलन ने वहां के नागरिकों की सुख-शांति छीन रखी थी लेकिन पिछले कुछ समय से असम चैन की सांस ले रहा था। वहां के आम नागरिकों को भले ही अनुमान नहीं था लेकिन उच्चस्तरीय तबका जानता था कि यह तूफान के आने से पहले की शांति है। यह तूफान एनआरसी की नागरिकता सूची जारी होते ही आ गया। असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का अंतिम ड्राफ्ट जारी होते ही पता चला कि 40 लाख लोग देश की नागरिकता से बाहर हो गए हैं। इस संदर्भ में मेरा एक शेर अर्ज़ है-
सोए  तो  थे  लिहाफ  ओढ़े  चारपाई पे
जागे  सुब्ह तो पांव के  नीचे  ज़मीं न थी
सिर पे न आसमां था, न अपना कोई यहां
सूरज तो था जरूर मगर छाया कहीं न थी

असम में अवैध तरीके से रहने वाले लोगों की पहचान कर उनको वापस भेजने के मकसद से असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस तैयार किया गया। सिटिजनशिप एक्ट 1955 में संशोधन के बाद हर नागरिक के लिए अपने आप को नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी में रजिस्टर्ड कराना जरूरी बनाया गया है। इस रजिस्टर में उन लोगों के नाम होंगे जो भारत के नागरिक माने जाएंगे। रजिस्टर में नाम दर्ज कराने के लिए कटऑफ डेट है 25 मार्च 1971 तक। यानी वो लोग जो खुद, उनके माता-पिता या पूर्वज इस तारीख के पहले से असम में रह रहे हैं, उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा। इसके लिए उन्हें दस्तावेजों के जरिए साबित करना होगा कि वो वैध तरीके से असम में रह रहे हैं। बांग्लादेश बनने के बाद 1972 में सरकार ने ऐलान किया कि भारत में 25 मार्च 1971 तक आए बांग्लादेशियों को रहने की इजाजत दी जाएगी, इस तारीख के बाद आए बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा। एनआरसी का पहला ड्राफ्ट 31 दिसंबर, 2017 को जारी किया गया था। लिस्ट में 1.9 करोड़ लोगों को वैध नागरिक के रूप में मान्यता दी गई थी। 30 जुलाई को इसका फाइनल ड्राफ्ट भी जारी किया गया। जिसके अनुसार कुल आवेदन करने वाले 3.29 करोड़ लोगों में 2.89 करोड़ लोग वैध नागरिक पाए गए। करीब 40 लाख लोग नागरिकता से बाहर हो गए हैं। एनआरसी में जिन लोगों के नाम नहीं है वो संबंधित एनआरसी सेवा केंद्र में जाकर एक बार फिर आवेदन कर सकते हैं। ये फॉर्म 7 अगस्त से 28 सितंबर के बीच उपलब्ध होंगे। अधिकारियों को बताना होगा कि ड्राफ्ट में नाम क्यों छूट गया। असम में घुसपैठियों को वापस भेजने के लिए यह अभियान करीब 37 सालों से चल रहा है। 1971 में बांग्लादेश के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान वहां से पलायन कर लोग भारत भाग आए और यहीं बस गए। इस कारण स्थानीय लोगों और घुसपैठियों के बीच कई बार हिंसक झड़पें हुईं। 1980 के दशक से ही यहां घुसपैठियों को वापस भेजने के लिए आंदोलन हो रहे हैं। अब मसौदा जारी होने के बाद एनआरसी के राज्य समन्वयक की ओर से कहा गया है कि यह मसौदा अंतिम लिस्ट नहीं है, जिन लोगों को इसमें शामिल नहीं किया गया है, इस पर अपनी आपत्ति और शिकायत दर्ज करा सकते हैं। एनआरसी को लेकर तृणमूल कांग्रेस ने संसद में स्थगन प्रस्ताव लाने की मांग की। वहीं आरजेडी ने इस पर राजनीतिकरण करने का आरोप लगाया। एनआरसी मसौदे को लेकर पूरे राज्य में सुरक्षा के बेहद सख्त इंतजाम किए गए हैं। ऐहतियातन सीआरपीएफ की 220 कंपनियों को भी तैनात कर दिया गया है। 
यह सच है कि असम में अवैध रूप से रह रहे लोगों को निकालने के लिए सरकार ने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) अभियान चलाया है। दुनिया के सबसे बड़े अभियानों में गिने जाने वाला यह कार्यक्रम डिटेक्ट, डिलीट और डिपोर्ट आधार पर है। यानी कि अवैध रूप से रह रहे लोगों की पहले पहचान की जाएगी फिर उन्हें वापस उनके देश भेजा जाएगा। लेकिन 40 साल की अवधि में जिनका जन्म असम में हुआ और वहीं रहते हुए वे अधेड़ आयु तक जा पहुंचे उन्हें अब शरणार्थी बन कर कहीं और जाना पड़ेगा तो क्या यह मानवता की दृष्टि से उचित होगा? रोहिंग्याओं की दुर्दशा हमारे सामने है। जिसको देखते हुए एक प्रश्न और उठता है कि इस वापसी में इतने दशकों की देर क्यों की गई?
जनवरी 2018 में एनआरसी का पहला ड्राफ्ट आने के बाद बीबीसी संवाददाता शकील अख़्तर ने असम से लौटकर ग्राउंड रिपोर्ट दी थी जिसमें उन्होंने उल्लेख किया था कि पूर्वोत्तर भारत के राज्य असम के मोरी गांव के अब्दुल क़ादिर बंगाली पहचान के लाखों बाशिंदों की तरह कई पीढ़ियों से राज्य में आबाद हैं। उनके पास सन 1941 से अब तक के सभी दस्तावेज़ मौजूद हैं, लेकिन उन्हें विदेशी यानी बांग्लादेशी क़रार दिया गया है। उन्हें फ़ॉरेनर्स ट्राइब्यूनल में अब साबित करना है कि वो बांग्लादेश नहीं हैं। वो कहते हैं, “हमारा जन्म यहीं हुआ। हमने सारा रिकॉर्ड जमा किया है। सन् 1941 से अब तक का. मैंने सन 1950 का हज का पासपोर्ट भी दिया है, लेकिन उसके बावजूद उन्होंने फ़ॉरेनर्स ट्राइब्यूनल भेज दिया।“ इसी राज्य में ग्वालपाड़ा की मरजीना बीबी भारतीय नागरिक हैं, लेकिन पुलिस ने उन्हें एक दिन बांग्लादेशी बनाकर गिरफ़्तार कर लिया। वो आठ महीने तक हिरासत में रहीं। मरजीना कहती हैं, “मेरे चाचा ने सारे काग़ज़ात दिखाए, सारे सबूत पेश किए, लेकिन वो कहते हैं कि मैं बांग्लादेशी हूं. जेल में मेरे जैसी हज़ारों औरतें क़ैद हैं।“ मरजीना हाईकोर्ट के दख़ल के बाद जेल से रिहा हो सकीं। सन् 1971 से अब तक एक लम्बा समय हो बीत चुका है। एक पीढ़ी इसी ज़मीन को अपनी मातृभूमि के रूप में जानती है। ऐसे में चुनौतियां बेहद गंभीर हैं।
वैसे आशा है कि एनआरसी की सूची जारी किए जाने के परिणाम और इससे उत्पन्न स्थितियों से निपटने के लिए सरकार ने कोई न कोई मास्टर प्लान बना ही रखा होगा क्यों कि यह कार्य लगभग विगत तीन साल से चल रहा था। फिर भी 40 लाख लोगों को सरकार कहां और कैसे भेजेगी यह ज्वलंत प्रश्न तब तक बना रहेगा जब तक यह समस्या सुलझ नहीं जाती है। चाहे उनका धर्म, जाति, नस्ल कोई भी हो लेकिन वे 40 लाख इंसान ही हैं जिन्हें यूं कहीं भी नहीं हांका जा सकता है।
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