Thursday, October 24, 2019

बुंदेलखंड की कील और मछली वाली दीपावाली - डॉ. शरद सिंह ... नवभारत में प्रकाशित

Dr (Miss) Sharad Singh
बुंदेलखंड की कील और मछली वाली दीपावाली 
 - डॉ. शरद सिंह

(नवभारत में प्रकाशित)
 
दीपावली का त्यौहार भारतीय संस्कृति का वह प्रकाशपर्व है जो बुराई पर अच्छाई की विजय पर जीवन के प्रकाशित होने का संदेश देता है। बुंदेलखंड में दीपावली का त्यौहार पांच दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार धनतेरस से शुरु होकर भाई दूज पर समाप्त होता है। बुंदेलखंड में दीपावली के त्यौहार की कई लोक मान्यताएं और परंपराएं हैं जो अब सिमट-सिकुड़ कर ग्रामीण अंचलों में ही रह गई हैं। जीवन पर शहरी छाप ने अनेक परंपराओं को विलुप्ति की कगार पर ला खड़ा किया है। इन्हीं में से एक परंपरा है- घर की
चौखट पर कील ठुकवाने की। दीपावली के दिन घर की देहरी अथवा चौखट पर लोहे की कील ठुकवाई जाती थी। मुझे भली-भांति याद है कि पन्ना में हमारे घर भोजन बनाने का काम करने वाली जिन्हें हम ‘बऊ’ कह कर पुकारते थे, उनका बेटा लोहे की कील ले कर हमारे घर आया करता था। वह हमारे घर की देहरी पर ज़मीन में कील ठोंकता और बदले में मेरी मां उसे खाने का सामान और कुछ रुपए दिया करतीं। एक बार मैं उसकी नकल में कील ठोंकने बैठ गई तो मां ने डांटते हुए कहा था-‘‘यह साधारण कील नहीं है, इसे हर कोई नहीं ठोंकता है। इसे मंत्र पढ़ कर ठोंका जाता है।’’ मेरी मां दकियानूसी कभी नहीं रहीं और न ही उन्होंने कभी मंत्र-तंत्र पर विश्वास किया लेकिन परंपराओं का सम्मान उन्होंने हमेशा किया। आज भी वे दीपावली पर पूछती हैं कि कील ठोंकने वाला कोई आया क्या? लेकिन शहरीकरण की दौड़ में शामिल काॅलोनियों में ऐसी परंपराएं छूट-सी गई हैं। दीपावली के दिन गोधूलि बेला में घर के दरवाजे पर मुख्य द्वार पर लोहे की कील ठुकवाने के पीछे मान्यता थी कि ऐसा करने से साल भर बलाएं या मुसीबतें घर में प्रवेश नहीं कर पातीं हैं। बलाएं होती हों या न होती हों किन्तु घर की गृहणी द्वारा अपने घर-परिवार की रक्षा-सुरक्षा की आकांक्षा की प्रतीक रही है यह परंपरा।
Navbharat -  Bundelkh Ki Keel Aur Machhaliwali Dipawali  - Dr Sharad Singh
      दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती बनाने की परंपरा रही है। आज पारंपरिक रीत-रिवाजों को मानने वाले घरों अथवा गांवों में ही दीपावली की पूजा के लिए दीवार पर सुराती (सुरैती) बनाई जाती है। सुराती स्वास्तिकों को जोड़कर बनाई जाती है। ज्यामिति आकार में दो आकृति बनाई जाती हैं, जिनमें 16 घर की लक्ष्मी की आकृति होती है, जो महिला के सोलह श्रृंगार दर्शाती है। नौ घर की भगवान विष्णु की आकृति नवग्रह का प्रतीक होती है। सुराती के साथ गणेश, गाय, बछड़ा व धन के प्रतीक सात घड़ों के चित्र भी बनाये जाते हैं। दीपावली पर हाथ से बने लक्ष्मी - गणेश के चित्र की पूजा का भी विशेष महत्व है। जिन्हें बुंदेली लोक भाषा में ‘पना’ कहा जाता है। कई घरों में आज भी परंपरागत रूप से इन चित्रों के माध्यम से लक्ष्मी पूजा की जाती है।

बुंदेलखंड में दशहरा-दीपावली पर मछली के दर्शन को भी शुभ माना जाता है। इसी मान्यता के चलते चांदी की मछली दीपावली पर खरीदने और घर में सजाने की मान्यता भी बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में है। बुंदेलखंड के हमीरपुर जिला से लगभग 40 किमी. दूर उपरौस, ब्लॉक मौदहा की चांदी की विशेष मछलियां बनाई जाती हैं। कहा जाता है कि चांदी की मछली बनाने का काम देश में सबसे पहले यहीं शुरू हुआ था। उपरौस कस्बे में बनने वाली इन मछलियों को मुगलकाल के बादशाह भी पसंद करते थे। अंग्रेजों के समय रानी विक्टोरिया भी इसकी कारीगरी देखकर चकित हो गयी थीं। जागेश्वर प्रसाद सोनी उसे नयी ऊंचाई पर ले गये। मछली बनाने वाले जागेश्वर प्रसाद सोनी की 14वीं पीढ़ी की संतान राजेन्द्र सोनी के अनुसार इस कला का उल्लेख इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी किताब ‘‘आइने अकबरी’’ में भी किया है। उन्होंने लिखा है कि यहां के लोगों के पास बढ़िया जीवन व्यतीत करने का बेहतर साधन है, इसके बाद उन्होंने चांदी की मछली का उल्लेख किया और इसकी कारीगरी की प्रशंसा भी की है। इसके बाद सन् 1810 में रानी विक्टोरिया भी इस कला को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी थीं। उन्होंने सोनी परिवार के पूर्वज स्वर्णकार तुलसी दास को इसके लिए सम्मानित भी किया था। राजेंद्र सोनी के अनुसार दीपावली के समय चांदी की मछलियों की मांग बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। क्योंकि मछली को लोग शुभ मानते हैं और चांदी को भी। उनके अनुसार धीरे-धीरे ये व्यापार सिमटता जा रहा है। कभी लाखों रुपए में होने वाला ये कारोबार अब संकट में है और चांदी की मछलियों की परंपरा समापन की सीमा पर खड़ी है।


आज भी गांवों में बुजुर्ग बताते हैं कि बुंदेलखंड में दीपावली धर्म से अधिक सामाज और पर्यावरण से जुड़ा त्यौहार रहा है। बांदा के 75 वर्षीय लखन सिंह ठाकुर के अनुसार पहले दीपावली के दिन सुबह होते ही गांव का जुलाहा गांव के हर घर में दीपक जलाने के लिए रूई पहुंचाता था, चाहे किसी भी धर्म का हो। कुम्हार दीपक दे जाता और शाम के समय लुहार घर-घर जा कर और घर की चैखट पर कील ठोंकता था। ये लोग इस काम के बदले पैसे नहीं लेते थे अतः उन्हें अनाज दिया जाता था। शाम को सबसे पहले गाय की पूजा की जाती जिसमें गाय के सींगों को हल्दी और घी से रंग कर उसे नमक की डली चटाया जाता। यह पूजा घर में पशुधन के लिए की जाती थी। इसके बाद रात होने पर लक्ष्मी पूजन किया जाता। इसके बाद दीपकों को हर कमरे में, यहां तक कि जहां कूड़ा फेंका जाता था वहां, कुआं, तालाब पर रखा जाता। यहां तक कि अपने पूर्वजों के क्रिंयाकर्म स्थल पर भी दीप रखने की परंपरा रही है। दीप सज्जा के बाद खील-बताशे का प्रसाद वितरण और पटाखे-फुलझड़ी चलाने की परंपरा रही है।


कुछ परंपराएं भले ही छूट रही हों, कुछ मान्यताएं भले ही बदल रही हों किन्तु बुंदेलखंड का विस्तृत भू-भाग आज भी दीपावली के लुप्त हो चले अनेक रिवाज़ों को अपने सीने से लगाए हुए है और उन्हें संरक्षित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील है। यह याद रखने की बात है कि प्रकृति, समाज और प्रसन्नता से जुड़ी परंपराएं न तो कभी हानिकारक होती हैं और न कभी पुरानी पड़ती हैं, अपितु ये परंपराएं हमारे जातीय स्वाभिमान को बचाए रखती हैं। दीपावली पर खुले आंगन में गोबर की लिपावट की सोंधी गंध भले ही सिमट रही हो किन्तु उस पर पूरे जाने वाले चौक, सातियां, मांडने आज भी आधुनिक बुंदेली घरों के चिकने टाईल्स वाले फर्श पर राज कर रहे हैं। जब तक दीपावली के दीपक जगमगाते रहेंगे, हमारी परंपराएं भी हमारे साथ चलती रहेंगी।
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(नवभारत, 24.10.2019 में प्रकाशित)
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1 comment:

  1. बहुत बढ़िया संस्मरणात्मक आलेख....
    पुराने दिन याद आ गए। साधुवाद 🙏

    धन्तेरस की शुभकामनाएं ✨🌹✨

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