Tuesday, November 22, 2022

पुस्तक समीक्षा | एक महत्वपूर्ण आलेख संकलन | समीक्षक डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 22.11.2022 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक मुकेश तिवारी के लेख संग्रह "श्री महेन्द्र फुसकेले का साहित्य संसार" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
एक महत्वपूर्ण आलेख संकलन
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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लेख संग्रह  - श्री महेन्द्र फुसकेले का साहित्य संसार
संकलनकर्ता  - मुकेश तिवारी
प्रकाशक     - प्रगतिशील लेखक संघ सागर इकाई
मूल्य        - अंकित नहीं।
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आज की समीक्ष्य कृति है -‘‘श्री महेन्द्र फुसकेले का साहित्य संसार’’। स्व. महेन्द्र फुसकेले सागर शहर के वरिष्ठ साहित्यकार तो थे ही साथ ही वे साम्यवादी विचारों के समर्थक एवं प्रगतिशील लेखक संघ की सागर इकाई के दीर्घकाल तक अध्यक्ष भी रहे। यूं भी सागर संभाग में बीड़ी उद्योग का विस्तार रहा है और अनेक बीड़ी श्रमिक इसके अंतर्गत अपना जीवनयापन करते आए हैं। उनकी समस्याओं के प्रति महेन्द्र फुसकेले जी ने जहां एक ओर एक वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में आवाज़ उठाई वहीं अपने साहित्य सृजन के द्वारा भी उनके पक्ष को सदा पाठकों के  सामने रखा। वे एक कर्मठ और जिजीविषायुक्त जीवट इंसान थे। उन्हें परिस्थितियों से हार मानना पसंद नहीं था। चूंकि मेरा भी उनसे कई वर्षों का परिचय रहा अतः मुझे उनके विचारों को जानने-समझने का पर्याप्त अवसर मिला। महेन्द्र फुसकेले जी के साहित्यिक व्यक्तित्व को सहेजने तथा उनकी प्रथम पुण्य स्मरण समारोह के अवसर पर उसे लोकार्पित करने की त्वरित योजना बना कर लेखों को संकलित कर के एक संक्षिप्त किन्तु महत्वपूर्ण कृति तैयार कर के कवि एवं लेखक मुकेश तिवारी ने निश्चित रूप से प्रशंसनीय कार्य किया।
इस संकलन के बारे में मुकेश तिवारी ने अपनी भूमिका में लिखा है-‘‘बहुत यादें जुड़ी हैं, दादा फुसकेले जी से। सारी यादें और दादा का चेहरा बार-बार सामने आता है। लगता है, वह हमारे आसपास ही हैं। जीवन और मरण के बीच सब कुछ समाया है। मान-अपमान, ऊंच-नीच, मित्र-शत्रु सब ही तो केवल इस जीवन और मृत्यु के बीच ही हैं। मृत्यु के बाद केवल संस्मरण ही रह जाते हैं, और यह सारा जगत वहीं का वहीं रहता है। इस देह के रहते कुछ ऐसा हो जाता है जो कथाएं बनकर युगों-युगों तक हमारी स्मृति के किसी न किसी कोने में अपना बसेरा बनाए रहती हैं। यही विदेह कथाएं (संस्मरण) जीवित रखती हैं, हमारे विचारों और मनोभावों को। दादा फुसकेले जी  जीवन की अभिव्यक्ति अपने साहित्य- उपन्यास, कहानी, निबंध और कविताओं में पिरो कर रख गए हैं। हम उन्हें (दादा फुसकेले जी) को इस साहित्य में जीवित पाते हैं। उनकी प्रथम पुण्यतिथि पर उनके साहित्य की चर्चा के साथ पुनः पुनः दादा फुसकेले जी के विचारों को हम साझा करते हुए सादर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।’’
संकलन के प्रकाशन प्रक्रिया के बारे में मुकेश तिवारी ने लिखा है कि-‘‘इस संकलन के लिए श्री महेंद्र जी के पुत्र पेट्रिस फुसकेले एवं पुत्रवधू डाॅ नम्रता फुसकेले का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं, इनके अति महत्वपूर्ण योगदान से प्रकाशित हो सका।’’ वे आगे लिखते हैं कि -‘‘अत्यंत अल्प समय में इस संकलन को मुद्रित करने के लिए मैं निमिष आर्ट एवं पब्लिकेशन सागर का आभारी हूं, जिन्होंने मात्र 3 दिन में इस संकलन को मुद्रित कर दिया।’’
जो संकलन पुस्तक मात्र तीन दिन में प्रकाशित हुई हो उसमें ढेर सारी सामग्री होना संभव नहीं हो सकता है, किन्तु प्रतिनिधि सामग्री इस संकलन में मौजूद है, जो साहित्यकार महेन्द्र फुसकेले के कृतित्व और व्यक्तित्व से परिचित कराने में सक्षम है। इस लेख संकलन में कुल सात लेख संकलित हैं। प्रथम लेख है लेखक टीकाराम त्रिपाठी का जिसका शीर्षक है-‘‘स्त्री: माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र और श्री महेन्द्र फुसकेले’’। दूसरा लेख है पी.आर. मलैया का-‘‘स्मृतिशेष महेन्द्र फुसकेले एक सशक्त रचनाकार’’। तीसरा लेख है-‘‘कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइयो’ और उपन्यासकार महेन्द्र फुसकेले का स्त्रीविमर्श’’। यह लेख डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह यानी मेरा लिखा हुआ है। चतुर्थ लेख है कैलाश तिवारी ‘विकल’ का, जिसका शीर्षक है-‘‘वैचारिक संर्घष का हृदय दर्पण: महेन्द्र फुसकेले’’। पंचम लेख है ‘‘सहज श्रद्धा के पात्र: स्मृतिशेष श्री महेन्द्र फुसकेले’’। इसके लेखक हैं डाॅ. सतीश पाण्डेय। छठा लेख है डाॅ. नम्रता फुसकेले का ‘‘घूम री पृथ्वी घूम घूम’’। अंतिम और सातवां लघु लेख है डाॅ. नलिन जैन ‘नलिन’ का ‘‘अनूठे व्यक्तित्व के धनी: श्री महेन्द्र फुसकेले’’।
इस लेख संकलन का प्रथम लेख ‘‘स्त्री: माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र और श्री महेन्द्र फुसकेले’’ में लेखक टीकाराम त्रिपाठी ने महेन्द्र फुसकेले जी के उपन्यासों के आधार पर उनके स्त्री चिंतन को सामने रखा है। समग्रतापूर्ण अपने इस लम्बे लेख में लेखक त्रिपाठी ने माक्र्सवादी सौंदर्यशास्त्र की भी विवेचना की है। उन्होंने लिखा है-‘‘उनके उपन्यासों पर चर्चा करने के क्रम में सर्वप्रथम मैं इस तथ्य की ओर आपका ध्यान आकृष्ट कराना चाहता हूं कि उनके सभी उपन्यासों के केंद्र में स्त्री पीड़ा स्त्री शोषण स्त्री प्रवचना आदि के मिस स्त्री विमर्श ही है। साथ ही उनके शीर्षक नामकरण मातृभूमि बुंदेलखंड की मातृभाषा बुंदेली के स्वांग गीतों से अनुप्राणित है।’’ महेन्द्र फुसकेले  के उपन्यास ‘‘मोए ले चल बलम रेता में’’, ‘‘मैं तो ऊंसई अतर में भींजी’’, ‘‘तेंदू के पत्ता में देवता’’, ‘‘कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइयो’’तथा ‘‘फूलवंती’’ पर अलग-अलग टिप्पणी करते हुए लेखक ने उपन्यास के कथानकों एवं मुख्य पात्रों का विस्तृत परिचय दिया है। इससे महेन्द्र फुसकेले जी के औपन्यासिक कौशल एवं कथानकों की विशिष्टता का ज्ञान हो जाता है।
‘‘स्मृतिशेष महेन्द्र फुसकेले एक सशक्त रचनाकार’’ लेख में पी.आर. मलैया ने महेन्द्र फुसकेले की कहानियों पर चर्चा की है। चूंकि यह लेख हस्तलिखित रूप में प्रकाशित किया गया है अतः यह पढ़ने में धैर्य की मांग करता है। संभवतः समयाभाव के कारण इस लेख को टंकित न करा कर हस्तलिखित में प्रकाशित करना विवशता रही होगी। फिर भी यह लेख अपनी विषय-महत्ता में किसी भी तरह से कम नहीं है। लेख में महेन्द्र फुसकेले जी के दोनों कहानी संग्रहों पर अपने विचार रखते हुए लिखा है कि -‘‘ दोनों संग्रह की कहानियों में जो तथ्य उभर कर सामने आए हैं उनमें व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को श्रमजीवी अवधारणा के दृष्टिकोण से समझने की चेष्टा दृष्टिगोचर है। सभी कहानियों में लोक जागृति का तथ्य मुखर हैं। लेखक  की सहानुभूति सर्वत्र दबे-कुचले, साधनहीन, निरुपाय स्त्री पुरुषों के प्रति है, जिन्हें वह जागरूक समझसंपन्न बनाने अपनी लेखनी के माध्यम से प्रयासरत रहा।’’
‘‘कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइयो और उपन्यासकार महेन्द्र फुसकेले का स्त्रीविमर्श’’ लेख में महेन्द्र फुसकेले जी के एक उपन्यास ‘‘कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइयो’’ के आधार पर उनके स्त्रीविमर्श का आकलन करते हुए लेखिका डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह ने लिखा है कि ‘‘स्व. महेन्द्र फुसकेले एक ऐसे साहित्यकार थे जो मानवीय मूल्यों को भली-भांति समझते थे। साथ ही वे मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित होते हुए देखना चाहते थे। वे जीवन के प्रगतिशील स्वरूप पर विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि जो परम्पराएं दूषित हो चुकी हैं, उन्हें समाप्त हो जाना चाहिए। सिर्फ वे ही परम्पराएं रहें जिनका सरोकार मानवहित से है। उनका ऐसा सोचना उचित था क्योंकि मानवीय जीवन को मूल्यवान बनाने की क्षमता रखने वाले गुणों को मानव मूल्य कहा जाता है। महेन्द्र फुसकेले जी मानते थे कि जब जीवन मूल्य और मुद्रा मूल्य परस्पर पर्याय बनने लगते हैं, वहीं समाज का स्वरूप बिगड़ने लगता है और इससे सबसे अधिक प्रभावित होती है इस पुरुष प्रधान समाज में दोयम दर्जे पर रखी जाने वाली स्त्री। महेन्द्र फुसकेले जी प्रखर स्त्रीवादी थे। वे स्त्रीविमर्श के हिमायती थे। वे मानते थे कि जब तक समाज के सबसे निचले तबके की खांटी स्त्रियों के दुख-कष्ट पर चिंतन या विमर्श नहीं किया जाएगा तब तक साहित्य की समाज-सुधारक भूमिका अधूरी रहेगी।’’
लेखक कैलाश तिवारी ‘विकल’ ने अपने लेख ‘‘वैचारिक संर्घष का हृदय दर्पण: महेन्द्र फुसकेले’’ में लिखा है कि -‘‘ महेंद्र फुसकेले 1952 से कहानी के क्षेत्र में सक्रिय रहे। उन्होंने अखबारों में स्तंभ भी लिखे, निबंध भी लिखें और अंत उपन्यास भी लिखे, कविता भी लिखी। ‘‘प्रकरांतर’’ संकलन में ‘‘बढ़ता कारवां’’ इंदौर, ‘‘दैनिक भास्कर’’ एवं ‘‘आचरण’’ में लिखें स्तंभ लेखन शामिल हैं। यह जिंदगी की समस्याओं, पड़ताल और भ्रमजाल को साफ करने उपकरण का काम करते हैं। छोटे-बड़े निबंधों की खासियत यह है कि जिन विषयों सें कठमुल्ले मार्क्सवादी दूर भागते हैं, जिन्होंने भारतीय दर्शन नहीं पढ़ा, उन विषयों की सांस्कृतिक खूबियों को उन्होंने रेखांकित किया है और रूढ़ियों को पीछे की तरफ धकेला है। जैसे-‘‘रक्षाबंधन’’, ‘‘श्री गणेशाय नमः’’ या ‘‘आदि शंकराचार्य: भारतीय दर्शन का तेजस्वी पुंज’’, ‘‘गीता युग की वाणी’’ या ‘‘भैया दूज विजय पवित्रता का दिन’’।’’ इस तरह लेखक ‘विकल’ के लेख से पता चलता है कि महेन्द्र फुसकेले जी माक्र्सवादी तो थे किन्तु भारतीय संस्कृति के परिपोषक भी थे। उनमें कट्टरवादिता नहीं थी।
  ‘‘सहज श्रद्धा के पात्र: स्मृतिशेष श्री महेन्द्र फुसकेले’’ लेख में लेखक डाॅ. सतीश पाण्डेय ने महेन्द्र फुसकेले जी के संबंध में लिखा है कि वे ‘‘प्रगतिशील साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर और श्रमिक आंदोलन के अग्रणी सिपाही थे। आपका नाम जेहन में आते ही मानवता के उस पुजारी का चेहरा सामने आता है, जिसने अपना पूरा जीवन मजदूरों, कामगारों के पक्ष में सही अर्थों में जिया और अपने कामरेड होने का भाव पूरी संवेदना ईमानदारी के साथ निभाया। समाज में स्त्रियों की पीड़ा और उनके स्थान को लेकर आपके लेख अविस्मरणीय है। आपने अन्याय, शोषण, पाखंड, धार्मिक कुरीतियों, कट्टरता, सांप्रदायिक ताकतों का आजीवन कड़ा विरोध किया।’’
डाॅ. नम्रता फुसकेले ने महेन्द्र फुसकेले जी द्वारा बच्चों के लिए लिखे गई कृति ‘‘घूम री पृथ्वी घूम घूम’’ को केन्द्र में रख कर लेख लिखा है जिससे स्व. फुसकेले जी के बाल साहित्य का भी परिचय मिलता है। डाॅ. नम्रता फुसकेले लिखती हैं कि- ‘‘कभी न कभी कोई बड़ा साहित्यकार अपने जीवन में बाल साहित्य का सृजन करता है। इसी के वशीभूत होकर श्री महेंद्र फुसकेले के लिए नहीं बच्चों के लिए ‘‘घूम रही पृथ्वी घूम घूम’’ का सृजन 2015 में किया।’’ वे आगे लिखती हैं कि ‘‘स्मृति शेष श्री महेंद्र फुसकेलेे का बाल साहित्य स्वच्छ पर्यावरण अंधविश्वास समाज में व्याप्त छुआछूत हिंदुस्तान का अर्थ गरीबी का कारण बेटी के पक्षपात को उजागर करता हुआ तथा अंत में मां की महिमा का बखान करता है। संदेश देती हुई कहानियों के माध्यम से खूबसूरत गुलदस्ता बच्चों को भेज किया है। बच्चों के साथ ही साथ बड़ों के लिए भी पठनीय है।
अंतिम और सातवें लेख के रूप में डाॅ. नलिन जैन ‘नलिन’ का लेख ‘‘अनूठे व्यक्तित्व के धनी: श्री महेन्द्र फुसकेले’’ है जिसमें उन्होंने स्व. फुसकेले जी से जुड़ा हुआ अपना एक संस्मरण साझा किया है।
मुकेश तिवारी द्वारा संकलित लेखों की यह कृति ‘‘श्री महेन्द्र फुसकेले का साहित्य संसार’’ एक वरिष्ठ माक्सवादी साहित्यकार के साहित्य के विविधपक्षों को जानने और समझने की दृष्टि महत्वपूर्ण पुस्तक है। मुकेश तिवारी जी से इस बात की आशा की जा सकती है कि वे भविष्य में इसमें और लेखों को समाहित करते हुए एक बड़े ग्रंथ के रूप में पाठकों के सामने लाएंगे जिससे पूर्ण समग्रता के साथ महेन्द्र फुसकेले जी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व युवा पीढ़ी के सम्मुख रखा जा सकेगा। यद्यपि यह पुस्तक भी अपने आप में पूर्ण अर्थवत्ता लिए हुए है। पठनीय भी है और संग्रहणीय भी। वर्तमान में इसका कोई मूल्य नहीं रखा गया किन्तु ‘‘निःशुल्क’’ भी अंकित नहीं है। संभवतः इसके आगामी संस्करण में मूल्य अंकित किया जाए। फिलहाल इसका निःशुल्क वितरण किया जाना भी साहित्य सेवा की दिशा में उल्लेखनीय है। एक वरिष्ठ दिवंगत साहित्यकार के अवदान पर केन्द्रित इस कृति के लिए मुकेश तिवारी एवं प्रगतिशील लेखक संघ सागर इकाई बधाई के पात्र हैं। 
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