प्रस्तुत है आज 08.11.2022 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई देश के बेस्ट सेलर लेखक द्वय संजय सिंह एवं राकेश त्रिवेदी के उपन्यास "क्रिमिनल्स इन यूनिफ़ाॅर्म" की समीक्षा... आभार दैनिक "आचरण" 🙏
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पुस्तक समीक्षा
वर्तमान सच को सामने रखता रोमांचक उपन्यास ‘‘क्रिमिनल्स इन यूनिफ़ाॅर्म’’
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास - क्रिमिनल्स नइ यूनिफ़ाॅर्म
लेखक - संजय सिंह एवं राकेश त्रिवेदी
प्रकाशक - आर के पब्लिकेशन, 1/12, पारस दूबे सोसायटी, ओवरी पाड़ा, एस.वी. रोड, दहिसर (पूर्व), मुंबई- 400068
मूल्य - 395/-
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आज की समीक्ष्य पुस्तक है अपराध आधारित उपन्यास - ‘‘क्रिमिनल्स इन यूनिफाॅर्म’’। इसे लिखा है लेखक द्वय - संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी ने। इस प्रसिद्ध लेखक जोड़ी के बारे में दिलचस्प यह है कि लेखकद्वय की पहली किताब सुपर हिट रही थी और उस पर आधारित सोनी लाइव चैनल की वेब सीरीज ‘‘स्कैम 2003: क्यूरियस केस ऑफ अब्दुल करीम तेलगी’’ बनाई गई। यह सुपरहिट वेब सीरीज ‘‘स्कैम 1992 हर्षद मेहता स्टोरी’’ का सेकंड सीजन था। इन्वेस्टिगेटिव पत्रकारिता में 2 दशकों से अधिक अनुभव वाली यह बेहतरीन जोड़ी अब तक जी न्यूज, टाइम्स नाउ, एनडीटीवी, आईबीएन और एबीपी न्यूज चैनल्स में अपनी विशिष्ट क्षमता दिखा चुकी है। तेलगी के फर्जी स्टांप घोटाले समेत कई हाईप्रोफाइल और सनसनीखेज मामलों की जांच और पर्दाफाश करने का श्रेय संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी की जोड़ी को है। जब लेखक अपराधकथा लिखे और ऐसी अपराधकथा जिसके तह तक वह स्वयं पहुंचा हो, जिसके रहस्य की सारी पर्तें उसने स्वयं खोली हों तो उस उपन्यास का विश्वनीय और रोमांचक होना स्वाभाविक है। इस उपन्यास में सच से परे लगता हुआ वह सच है जो हमारे आस-पास आए दिन घटित हो रहा है। हम उसे कुछ-कुछ समझ भी जाते हैं फिर भी कभी-कभी भयाक्रांत हो कर समझने से इनकार कर देते हैं। कई सच इतने डरावने होते हैं कि निडर, साहसी और कुछ कर गुज़रने का माद्दा रखने वाले ही उसपर कलम चलाने का साहस करते हैं। यह उपन्यास अपने हरेक पात्र को इस तरह से प्रस्तुत करता है कि प्रतिदिन अख़बार का मात्र पहला पन्ना पढ़ने वाला पाठक या टेलीविजन की सिर्फ़ न्यूज़ हेडलाइन्स देखने वाला दर्शक भी इसके एक-एक पात्र को पहचान सकता है। लेखक ने कुछ नाम बदले हैं लेकिन उन नामों के पीछे मौजूद चेहरे चींख-चींख कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं।
जहां तक मुझे जानकारी है तो ‘‘क्रिमिनल्स इन यूनिफाॅर्म’’ हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी और मराठी में भी प्रकाशित हो चुका है और इन दोनों भाषाओं के पाठकों ने इसे बहुत पसंद किया है। कथानक आरम्भ से ही कौतूहल जगाने वाला है। एशिया के सबसे बड़े धनकुबेर के मुंबई स्थित महलनुमा कुबेरिया के परिसर में विस्फोटकों से भरी एक चार पहिया गाड़ी का बरामद होना, पुलिस विभाग में हड़कंप मचा देने के लिए पर्याप्त था। फिर आलकल तो पुलिस से भी एक कदम आगे चलता है इलेक्ट्राॅनिक मीडिया। कहानी दो विशेष पात्रों के साथ आंखें खोलती है। जिनमें एक है क्राईम इन्वेस्टीगेशन यूनिट का असिस्टेंट इंस्पेक्टर यतीन साठे और दूसरा पत्रकार संजय त्रिवेदी। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि क्रिमिनल इंवेस्टिगेटर पत्रकार संजय त्रिवेदी का अस्तित्व लेखक द्वय के संयुक्त नामों से जन्मा होगा- संजय सिंह और राकेश त्रिवेदी अर्थात् संजय त्रिवेदी। आरम्भ में कुछ पन्नों तक यह भ्रम बना रहता है कि यह पत्रकार ही इस कथानक की रीढ़ है और यह पूरे कथानक को अपने कब्ज़े में रखते हुए धमाके पर धमाके करता जाएगा। लेकिन लेखकद्वय ने लीक से हट कर यथार्थवादी ढंग से अहिस्ता-अहिस्ता क़दम बढ़ाए हैं। संजय त्रिवेदी किसी फिल्मी हीरो की तरह जेम्सबांड स्टाईल पात्र नहीं है। वह सुरा-सुंदरियों से घिरा नहीं रहता है, वह बाॅडीबिल्डर भी नहीं है। शारीरिक रूप से बस, एक आम-सा पत्रकार है, जो कुछ उसमें विशेष है वह है उसकी जासूसी क्षमता, जो अपराध के एक-एक पहलू को सूंघने में माहिर है। फिर भी यह पत्रकार कुछ पन्नों के बाद कथानक के लगभग नेपथ्य में चला जाता है और पूरी कहानी असिस्टेंट इंस्पेक्टर यतीन साठे के इर्द गिर्द घूमती हुई अनेक भूलभूलैया से गुज़रती है। यतीन साठे और पत्रकार संजय त्रिवेदी के बीच वर्षों पुरानी तनातनी थी। यतीन साठे से पहले भी गलती हुई थी और संजय त्रिवेदी ने ही उसकी गलती को उजागर किया था। एक बार फिर यतीन साठे और संजय त्रिवेदी के रास्ते परस्पर एक-दूसरे को काटते हैं। एक टकराव और होता है, असिस्टेंट इंस्पेक्टर साठे और एटीएस के डीआईजी पलांडे के बीच। मुंबई पुलिस की अपराध अनुसंधान शाखा के केस में अचानक एटीएस का शामिल हो जाना भी एक दिलचस्प घटना के कारण होता है। बहती गंगा में हाथ धो कर अपनी आपराधिक साख स्थापित करने के चक्कर में एक व्यक्ति द्वारा एक आतंकवादी संगठन के नाम से विस्फोटक रखा जाना स्वीकार कर लिया जाता है। जबकि वास्तविक आतंकवादी संगठन का इसमें कोई हाथ नहीं था और जल्दी ही उसने अपनी ओर घोषणा कर के अपना पल्ला झाड़ दिया। लेकिन तब तक एटीएस केस में शामिल हो चुकी थी क्योंकि किसी अन्य आतंकवादी संगठन से तार जुड़े होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता था। मगर सभी इस बात से अचम्भित थे कि जिसने भी कार में जिलेटिन स्टिक्स भर का बंगले की पार्किंग में खड़ी की उसने जिलेटिन के साथ डेटोनेटर का प्रयोग नहीं किया था। तो क्या विस्फोटक रखने वाले का इरादा विस्फोट करने का नहीं था, मात्र चेतावनी देने या डराने का था? या फिर इससे भी अलग कुछ और ही खेल खेला जा रहा था।
देश के दो बड़े और प्रभावी जंाच संगठन अपनी पूरी क्षमता से जांच-पड़ताल में जुट जाते हैं। कभी एक का पलड़ा भारी, तो कभी दूसरे का। दोनों ही संगठन केस को ‘‘क्रैक’’ करने का सेहरा अपने सिर बांधने को उतावले दिखाई देते हैं। फिर भी हर मोड़ पर यह प्रश्न आ खड़ा होता है कि यूनिफॉर्म वाला असली क्रिमिनल कौन है? क्या अपराधी वह है जिसे योग्यता के खांचे में फिट न बैठने पर भी नियमों को ताक में रख कर हाईप्रोफाईल केस हल करने को दिए गए, या फिर अपराधी वह है जिसने नियमों को ताक में रखा? वहीं, जब चेहरों पर से एक-एक कर मुखौटे उतरते हैं तो पता चलता है कि नियमों की धज्जियां उड़ाने की तो मानो होड़ लगी हुई है। यह भी दिखाई देता है कि कोई किसी का सगा नहीं है, सभी को अपनी साख बनाए रखने की चिंता है। पुलिस और सुरक्षा ऐजेन्सियों के भीतर बैठे चंद भ्रष्ट अधिकारी जिन्हें लेखक ने ‘‘ब्लैक शीप’’ कहा है, न तो अश्लील गालियां देने से हिचकते हैं और न शारीरिक प्रताड़ना देने से, भले ही उनका शिकार उनके ही तरह एक जांच अधिकारी क्यों न रह चुका हो।
इस बीच परिदृश्य से लगभग गायब पत्रकार संजय त्रिवेदी अपने ढंग से खोजबीन कर के जो सच सामने लाता है, वह अवाक कर देने वाला सच है। लेकिन मूलकथानक यही नहीं थमता है। उपन्यास के आखिरी पन्नों में जो सच्चाई सामने आती है वह यह बताती है कि यदि क्रिमिनल यूनीफाॅर्म में मौजूद है तो उसे क्रिमिनल बनाने वाले खुली हवा में इज़्जत और आज़ादी से घूम रहे हैं। यह उपन्यास जिस यथार्थ से परिचित कराता है वह हतप्रभ कर देने वाला है। अपनी जिद पूरी करने के लिए दूसरों की कमजोरी के लाभ उठाने की प्रक्रिया अपराध का एक ऐसा सिलसिलेवार ताना-बाना बुनती है कि जिसमें देश की बड़ी-बड़ी जांच एजेंसियां खुद-ब-खुद शामिल होती चली जाती हैं। पहले सीआईयू, आईबी (इंटेलीजेंस ब्यूरो)और फिर एटीएस (एंटी टैररिस्ट स्क्वैड)। यह सर्वविदित है कि मुंबई पुलिस को अपनी क्षमता पर नाज़ है और जब किसी और राज्य या एजेंसी की पुलिस उसके काम में दखल देती है तो यह बात उसे कतई पसंद नहीं आती है। उपन्यास में यह भी एक रोचक तथ्य है कि जब कोई पुलिस वाला स्वयं पुलिसिया पूछताछ की गिरफ़्त में आ जाता है तो उसे कैसा महसूस होता है। इस बारे में उपन्यास की ये पंक्तियां सामने रखी जा सकती हैं - ‘‘इस तरीके से यतीम साठे परिचित था। खुद 25 साल पुलिस में रहकर उसने यह कई बार आजमाया था। दो घंटे से उसे एटीएस के ऑफिस में एक कमरे में बिठा कर रखा गया था। उसका फोन भी बाहर रखवा दिया गया था। कम से कम एक-दो घंटे कोई आने वाला नहीं था। यह पुलिस का एक तरह से साइकोलॉजिकल प्रेशर बनाने का तरीका था। जिसमें व्यक्ति बैठकर मन ही मन आतंकित होता रहता। उसका आत्मविश्वास और पूछताछ से निपटने के लिए किया गया होमवर्क भी उसकी एनर्जी की तरह धार खोता रहता है। मानसिक रूप से यह थकाऊ काम था। इस तरह के हथकंडे उन लोगों पर ज्यादातर अपनाया जाते थे जिन्हें थर्ड डिग्री टॉर्चर नहीं दे सकते थे। साठे जानता था कि किसी दूसरे कमरे से उस पर नज़र रखी जा रही है। वह इस हथकंडे के लिए तैयार होकर आया था। उसे कैसे भी करके सोमवार तक का वक्त काटना था, जब हाईकोर्ट में उसकी अग्रिम जमानत की अर्जी पर सुनवाई होती। उसने बेहद काबिल वकील किया था उसने सोचा था कि अगर वह खुद जांच अधिकारी होता तो क्या-क्या पूछता और यही सोचकर उसने पूछे जाने वाले संभावित सवालों की एक लिस्ट बनाई थी।’’ मगर क्या उसकी लिस्ट उसके काम आ पाई, यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं है।
जांच एजेंसियों का आपसी टकराव, पुलिस विभाग की अंतर्कथा और कानूनी सनद- एक ऐसे रोमांचकारी कथानक की हमराह बना देती है कि उसे एक बैठक में ही पढ़ लेने और निष्कर्ष तक पहुंच जाने का उतावलापन जाग उठता है। यद्यपि 269 पृष्ठ के उपन्यास को एक बैठक में पढ़ पाना आज के व्यस्त जीवनशैली में संभव नहीं है लेकिन जब तक इसे पूरा न पढ़ लिया जाए तब तक इस उपन्यास की एक-एक कड़ियां दिमाग़ को झकझोरती रहती हैं। यूनीफार्म वाला एक क्रिमिनल निसंदेह पाठकों के सामने होता है, सारे साक्ष्य उसके विरुद्ध जा कर उसे दोषी ठहराते हैं लेकिन क्या वह अकेला दोषी है? प्रताड़ित अपराधी है या अपराधी प्रताड़ित है? रहस्य की पर्तें आसानी से नहीं खुलती हैं।
अपराधकथा पर आधारित उपन्यास में भाषाई विशिष्टता उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती है जितनी की उसकी शैली और घटनाक्रम का प्रवाह। इस उपन्यास में साहित्यिक भाषा नहीं है लेकिन इसका कथानक और शैली इसकी भाषाई कमियों को परे धकेल देती है। यह उपन्यास वर्तमान के ताज़ा इतिहास से साक्षात्कार कराता है। इसमें वे सारे पात्र हैं जिन्हें हम किसी न किसी रूप में जानते हैं। इस संबंध में लेखक ने ‘समर्पण’ के रूप में जो शब्द लिखे हैं वे सब कुछ कह देने में सक्षम हैं-‘‘लेखन की उस विधा को, जिसमें पात्रों के नाम बदले जाते हैं मगर मूल कहानी नहीं।’’ इसके बाद लेखकद्वय ने उपन्यास की भूमिका में लिखा है कि ‘‘अगर पत्रकारिता को ज़ल्दबाजी में लिखा गया इतिहास कहा जाता है तो फिर उस पत्रकार की लिखी किताब को फ़ुर्सत में लिखे गए इतिहास का फस्र्ट ड्राफ्ट माना जा सकता है।’’ वस्तुतः यह उपन्यास वर्तमान साहित्य भी है और वर्तमान इतिहास भी। इसके पन्नों में आज के समय का ऐसा सच दर्ज़ है जिसे कोई भी पाठक कथानक के साथ बंध कर उसे पढ़ता चला जाएगा। यह कहना ही होगा कि इस लेखक जोड़ी ने अपने इस उपन्यास के रूप में एक और सृजनात्मक धमाका किया है।
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