Saturday, November 5, 2022

बतकाव बिन्ना की | ने पूछो के अपने इते विकास कबे हुइए | डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह | बुंदेली कॉलम | बुंदेली व्यंग्य | प्रवीण प्रभात

 "ने पूछो के अपने इते विकास कबे हुइए"  मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की      
 ने पूछो के अपने इते विकास कबे हुइए                             
- डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
            ‘‘जे बताओ बिन्ना के अपने बुंदेलखण्ड में विकास कबे हुइए?’’ भैयाजी आतई साथ पूछन लगे।
‘‘तनक गम्म खाओ भैयाजी! तनक सांस ले लेओ! काय के लाने इत्ते हाईपर हो रए?’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘अरे, कोनऊ का गम्म खाए? विकास की बातें सो खूब होत रैत आएं मनो ढंग को विकास तो कहूं दिखात लो नइयां।’’ भैयाजी को मूड मोए ठीक सो नई दिखानो।
‘‘हो का गओ भैयाजी? कोनऊं से कोऊ गिचड़ हो गई का?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे, काए की गिचड़? गिचड़ करबे खों टेम कोन के पास कहानो, सबई भैराने से फिर रए।’’ भैयाजी भन्नात भए बोले।
‘‘मनो, का हो गओ? कछु तो बताओ!’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘कहूं कछु होत नई दिखा रओ, जेई सो सल्ल आए।’’ भैयाजी भिनकत भए बोले।
‘‘सो, आप का देखो चात हो?’’ मैंने पूछी।
‘‘हम विकास देखो चात आएं। जोन विकास की बातें करी जा रईं बोई विकास हमें देखने आए। पर बो सो कहूं दिखात नईयां।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अब ऐसो बी नइयां भैयाजी! आप घरे से बाहरे निकरो, अपने गली-मोहल्ला से बाहरे निकरो सो विकास दिखा जेहे।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘काए, हमाओ घर औ हमाओ मोहल्ला का विकास की रेंज से बाहर को कहानो, जो इते विकास न हो रओ औ न होत भओ दिखा रओ।’’ भैयाजी तिनकत भए बोले।
‘‘को जाने?’’ मोसे कै आई, फेर मैंने तुरतईं बात सम्हारी, ‘‘अब जे सो नगर पालिका वारे जाने, के नगर निगम वारे जाने! जे बारे में सो बेई ओरें बता सकत आएं।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘ओ काए, अपने इते के विधायक, मंत्री हरें? बे काए नईं बता सकत?’’ भैयाजी ने ऊंसई भिन्नात भए मोसे पूछी।
‘‘हऔ, काए ने बताहें! आप पूछ के देखो।’’ मैंने कही।
‘‘कोऊ कछू ने बताहे! कोनऊं को कछु दिखातई नईयां!’’ भैयाजी बड़बड़ात भए बोले।
‘‘ने पूछो के अपने इते विकास कबे हुइए, जब होने हुइए सो हो जेहे! मनो, जे ठीक-ठीक सो बताओ के आप का देखबो चात हो औ का दिखाबो चात हो? मोय कछु समझ में ने आ रई के आप काय के लाने इत्तो दोंदरा दे रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘अब का बताएं बिन्ना! अपने बुंदेलखंड में सो जे हाल आए के अपने नेता हरें जुगाड़ लगा के अच्छो-अच्छो अवार्ड ले आत आएं के कछु नीचे वारन को शरम-वरम आए औ कछु साफ-सफाई रखन लगें। मनो कछु होत-जात नइयां। जिते पे स्वच्छता राखने को बैनर लगो रैत आए ठीक उतई पे कचरों फिकों रैत आए।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ईमें नओ का आए? जेई से सो अपने पुरखा हरें बो कहनात कै गए के दिया तरे अंदयारो रैत आए। बे ओरें का मूरख हते के जो इत्तो नोनो ज्ञान दे गए। अब सफाई-मफाई की बात पुरानी लगन लगी, अब कछु नओ सो होन चाइए।’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘नओ का?’’ भैयाजी ने पूछी।
‘‘नओ, मने कछु नओ!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘अरे, बिन्ना खुल के बताओ!’’ भैयाजी खिझात भए बोले,‘‘मोरो मुंडा पैलऊ से पिरा रओ औ तुम हो के कछु बी अल्लम-गल्लम बोले जा रईं।’’
‘‘मैंने सो अबे कछु कही नईयां औ आप मोपे बरस रए! अब सो पैले जे बताओ के हो का गओ आए जो आप भिनभिनात फिर रए?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘चलो, सो सुनो! के हम गए रए भुनसारे माॅर्निंग वाॅक पे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘भुनसारे माॅर्निंग वाॅक? संझा की माॅर्निंग वाॅक सोई होत आए का?’’ च्योंटी लए बिगर मोसे रओ नई गओ औ मैंने पूछई लओ।
‘‘अरे, तुम सोई! तुमें हमाई बात सुनने आए के हमाई बातन की टांगे तोड़ने?’’ भैयाजी खिझात भए बोले।
‘‘दोई करने आए!’’ मैंने हंस के भैयाजी से कही।
‘‘नईं, ऐसो न चलहे! जो सुनने होय सो कान दे के सुनो!’’ भैयाजी तिनकत भए बोले।
‘‘हऔ-हऔ, मैं कान दे के सुन रई! अब टांग न अड़ाबी! चलो, आप बोलो!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘भओ का, के हम भुनसारे वाॅक पे निकरे! कछु अंदियारो सो रओ। हमें सुरता आई के काल दुफैरी को उल्टे हाथ पे गड्ढा खोदो जा रओ हतो। हमने उन ओरन से पूछी रई के जे काए के लाने खोद रए सो बे ओरे बोले के इते से पानी की पाईप लाईन डारी जेहे। हमसे रई नई गई सो हमने उन ओरने से कहीं के तुम ओरें पाईप लाईन डारबे के लाने जेई परखे रैत आओ के कबे सड़क बने औ कबे हम चलके ऊको खोद के लाईन डारें! हमाई बात सुन के बे लेबर हरें बोले के अब ईमें हम का करें, हमें सो जो काम दओ जात आए सो हम करत रैत आएं। अबई उन्ने कही रई के रोड़ के किनारे-किनारे खोदो, सो हम किनारे पे खोद रए, जो बे मालिक हरें कैते के बीचों-बीच से रोड़ पटा देओ, सो हम बीचई में खोदन लगते। हमें सो जो कहो जाए, बेई हमें करने परत आए। ने तो मजूरी ने मिलहे। सो बिन्ना जे बात उन ओरने ने सांची कही।’’ भैयाजी तनक ठैरत भए बोले।
‘‘फेर, फेर का भओ?’’ मैंने पूछी। काए से के अब लो मोए भैयाजी को दोंदरा समझ में ने आव रओ।
‘‘फेर का! हम जो भुनसारे निकरे सो हमें याद आई के उल्टे हाथ पे गड्ढा खोदो जा रओ हतो। सो, हम सीधे हाथ पे बढ़े। ऊ तरफा को रोड़ को बलब फ्यूज हतो, सो हमें ठीक से दिखा नई रओ हतो। सो, हम चार कदम बढ़े ई हते के एक गड्डा में जा गिरे।’’ भैयाजी बोले।
‘‘अरे! आपको लगी सो नईं?’’ मैंने भैयाजी से पूछी।
‘‘लगी काए नईं? जे देखो हमाओ घूंटा छिल गओ। बो तो कहो के गड्ढा भौत गहरो नई रओ ने तो हमाई तो उतई कबर बन जाती।’’ भैयाजी बोले।
‘‘ऐसो ने कहो आप! शुभ-शुभ बोलो।’’ मोय भैयाजी की चिंता भई।
‘‘अरे, फिकर ने करो! हड्डी-मड्डी नई टूटी। तनक छिलो भर आए। बाकी जेई सो हम कै रए बिन्ना के जो कोन टाईप को विकास को काम होत रैत आए के पैले सड़क बनाई, जब सड़क बन गई सो ऊको खोद-खाद के लाईन डारी जान लगी। कभऊं केबल के लाने, सो कभऊं पानी लाने औ कभऊं नाली के लाने। ऊपे कभऊं ई तरफे, सो कभऊं ऊ तरफे। औ काम चलत आए चिंटियां चाल से। जब लों चाए कोनऊं के हाथ टूंटें, चाए पैर टूटें औ चाए मूंड़ फूटें, कोनऊं को फिकर नइयां। जेई लाने सो हम कै रए के मोए सो लगत आए के अपने इते मनो सही ढंग से विकास कभऊं ने हुइए।’’ भैयाजी बात बदलबे के लाने बोले।
‘‘अब इत्ते निराश ने हो भैयाजी!’’ मैंने भैयाजी से कही।
‘‘का निराश ने होएं? अपने इते के सबरे शहर सो मचे से डरे आएं।’’ भैयाजी निराश होत भए बोले।
‘‘जो दिनां जे सब पूरो हो जेहे, तब कहियो!’’ मैंने भैयाजी खों ढांढस बंधाई।
‘‘हऔ, बिन्ना! जबलों सही-सलामत रहबी सो कहबी!’’ कैत भय भैयाजी बढ़ लिए।
बाकी मोए सोई बतकाव करनी हती सो कर लई। अब पैले सड़क बने, चाए पैले गढ़ा खुदें, मोय का? मोय सोई विकास के लाने टैक्स भरनई परहे। मनो फिकर नइयां काय से के कोनऊं को विकास सो हुइयेई! तो अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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(04.11.2022)
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