Wednesday, November 9, 2022

चर्चा प्लस | इन बच्चों को हम किस श्रेणी में रखेंगे ? | डॉ. (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस       
इन बच्चों को हम किस श्रेणी में रखेंगे ?
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       यह समझ पाना मेरे लिए कठिन हो रहा है कि इन बच्चों को किस श्रेणी में रखा जाना चाहिए? जो माता-पिता के साथ चौराहों पर भीख मांगते हैं, जो चौराहे पर कंघी, बालपेन जैसी छोटी-छोटी वस्तुएं बेचते हैं, जो भिखारी नहीं हैं किन्तु भिखारियों की तरह धार्मिक स्थलों के आस-पास भीख मांगते हैं या फिर वे जो ढाबों और छोटे होटलों में बर्तन धोने का काम करते हैं। कई बार उनकी असली उम्र का नकली प्रमाणपत्र उन्हें कानूनी सहायता के दायरे से बाहर कर देता है। ऐसे बच्चों की संख्या देश में चौंका देने वाली है।  
मैं दूसरे शहर जाते समय रास्ते में चाय पीना पसंद नहीं करती हूं। लेकिन किराए की ली हुई गाड़ी के ड्राईवर को यह कहना नहीं भूलती हूं कि ‘‘भैया, आपको जब और जहां रूक कर चाय पीनी हो, पी लीजिएगा।’’ आखिर वाहन चालक का चैतन्य रहना सबसे जरूरी है। मुझे यातायात का वह नियम सबसे अच्छा लगता है-‘‘कभी नहीं से देर भली!’’ सो, पिछली बार भोपाल जाते समय सागर से विदिशा मार्ग पर एक ढाबे के सामने ड्राईवर ने गाड़ी रोकी। वह चाय पीने चला गया और मैं गाड़ी में बैठी-बैठी खिड़की से बाहर झंाकने लगी। उस ढाबे पर एक दुबला-पतला लड़का तेजी से कप-प्लेट धोए जा रहा था। देखने में वह सौ प्रतिशत अवयस्क लग रहा था। मुझसे रहा नहीं गया। मैं गाड़ी से उतरी और टहलती-सी ढाबे के काउंटर पर पहुंची। वहां मैंने प्रभावित होने का अभिनय करते हुए कहा-‘‘आपके यहां ये बच्चा तो बड़ी फुर्ती से काम कर रहा है।’’
‘‘अरे नहीं, कामचोर है। जब डांट पड़ती है, तब उसके हाथ तेजी से चलने लगते हैं।’’ काउंटर पर खड़े मालिक ने हंस कर कहा। फिर बोला,‘‘ये लोग चोर भी होते हैं। घरों पर काम कराने लायक नहीं होते हैं।’’

ढाबा मालिक ने शायद यह समझ लिया कि मैं उस लड़के के काम से प्रभावित हो कर उसे अपने घर ले जाने की बात करने वाली हूं। यह मेरे लिए चैंकाने वाली बात थी कि ऐसा भी होता है? खैर, मैंने उससे आगे पूछा,‘‘कितनी उम्र होगी इसकी? चैदह-पंद्रह का होगा?’’
‘‘अरे नहीं, अट्ठारह-उन्नीस का है। बिना उम्र-प्रमाणपत्र देखे तो मैं काम पर रखता ही नहीं हूं।’’ अब ढाबा मालिक सतर्क हो कर बोला। इतने में ड्राईवर चाय पी कर वहीं आ गया। उसे कौतूहल हुआ होगा कि मेरी और ढाबा मालिक की क्या बात हो रही है।
मैंने अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गई। मुझे समझ में आ गया था कि उस लड़के के परिजन और ढाबा मालिक दोनों ने खींच-तान कर प्रमाणपत्र में उसकी उम्र बालिग लिखा रखी होगी। वह लड़का कभी समझ ही नहीं पाएगा कि वह कब बच्चा था और कब बड़ा हो गया। इसके साथ ही मुझे याद आया कि यह क्षेत्र तो नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी का है जिन्होंने अपना पूरा जीवन बच्चों के संरक्षण में लगा दिया। ‘‘बचपन बचाओ आन्दोलन’’ के तहत वे विश्व भर के 144 देशों के लगभग 90000 से अधिक बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्य कर चुके हैं। ऐसे व्यक्ति के क्षेत्र में अवयस्क श्रमिक हो ही नहीं सकता है क्योंकि बालमजदूरी कराने वाला व्यक्ति कभी भी पकड़ा जा सकता है। लेकिन यदि माता-पिता और मजदूर मालिक संगठित हो कर छल करें तो इसका हल नहीं निकाला जा सकता है। कई बार इसमें माता-पिता का भी पूरा दोष नहीं होता है। गरीबी और लाचारी उन्हें अपने बच्चे की असली उम्र की इबारत को मिटा कर नई नकली इबारत लिखने को मजबूर कर देती है। तमाम सरकारी योजनाओं के बाजजूद यह कड़वा सच आज भी हमारे बीच बहुसंख्यक मौजूद है।

धार्मिक स्थानों के आस-पास अनेक बच्चे भिखारियों की भांति मंडराते रहते हैं। उन्हें इस तरह ज़िद्दी बना दिया जाता है कि जब तक वे भीख में कुछ पा न जाएं तब तक आपका कपड़ा खींचना या बाजू पर हाथ से टोंहका लगाना बंद नहीं करते हैं। उनके माता-पिता जानते हैं कि छोटे बच्चों को कोई जोर से डांटेगा नहीं, मारेगा नहीं और थक-हार कर कुछ पैसे दे ही देगा। ये ज़िद्दी बच्चे अपनी जिद मनवाने के बाद विजेता की भांति अपने माता-पिता के पास पहुंच कर अपनी आमदनी दिखाते हैं। वे इस बात से अनजान रहते हैं कि उनसे उनके बचपन की मासूमियत छीनी जा रही है। उन्हें हठी बनाया जा रहा है। उन्हें हर तरह के हथकंडे अपना कर कुछ न कुछ हासिल कर लेने की कला में माहिर किया जा रहा है। यह ट्रेनिंग कभी-कभी आगे चल कर उन्हें अपराध जगत में पहुंचा देती है। पकड़े जाने पर मां-बाप भी उनसे पल्ला झाड़ लेते हैं। ऐसे बच्चे अपनों के द्वारा की गई ठगी के शिकार रहते हैं। ऐसे बच्चों को हम भला किस श्रेणी में रखेंगे?
शहर चाहे बड़ा हो या छोटा, आजकल ट्रैफिक सिग्नल्स लगभग हर  चौराहे पर लगे होते हैं। उन  चौराहों पर दुपहिया, तिपहिया या चारपहिया यानी कोई भी गाड़ी रुकते ही ऐसी महिलाएं और बच्चे प्रकट हो जाते हैं जो अपनी मुट्ठी में बालपेन या कंघियां दबाए रहते हैं। वे पास आ कर जिद करते हैं कि उनसे उनका सामान खरीदा जाए। कई बच्चे अवयस्क रहते हैं। उनके द्वारा कुछ खरीद लिए जाने का दयनीय अनुनय-विनय दिल पसीजने के लिए काफी रहता है। कई ग्राहक मिल जाते हैं उन्हें। वे खुश होते हैं कि उन्होंने अपने माता-पिता की इच्छा को पूरा किया। वे नहीं जानते हैं कि उनकी इस उम्र में उन्हें  चौराहों  पर जिद भरी विक्रेतागिरी करने के बजाए किसी स्कूल में पढ़ना चाहिए। भले ही सरकारी स्कूल हो। भले ही वहां बहुत अच्छी पढ़ाई न होती हो लेकिन चार अक्षर तो पढ़ ही सकेंगे। मगर उस छोटी-सी उम्र में वे अपने जीवन का अच्छा-बुरा तय नहीं कर सकते हैं और जिन्हें तय करना चाहिए, उन्हें तत्काल के चार पैसे अधिक सुखद लगते हैं। क्योंकि यदि वे कोई और रास्ता जानना चाहते होते तो बच्चों को उनका असली बचपन देने के लिए कुछ तो प्रयास करते। वहीं, उन चौराहों से गुज़रने वाले ‘हम समझदार लोग’ भी यह सब अनदेखा कर देते हैं। हम हमेशा खुद को अपनी ही मुसीबतों से घिरा हुआ पाते हैं। हमें लगता है कि हमारे पास इनके बारे में सोचने का भी समय नहीं है। गोया सरकार और एनजियो चलाने वालों का ही ठेका हो यह सब सोचने का। खैर, आमआदमी सच में अपनी ज़िन्दगी में बहुत उलझा रहता है लेकिन राजनीति के नाम पर रोटियां खाने वाले छुटभैये से छुटभैये नेता भी जब इनके बारे में विचार नहीं करते हैं तो दुख जरूर होता है।
सन् 1993 में ‘‘न्यूयार्क टाईम्स’’ में न्यूज़ फोटोग्राफर केविन कार्टर द्वारा खींची गई एक तस्वीर प्रकाशित हुई थी जो सूडान की थी। उस तस्वीर में हृदयविदारक दृश्य था। एक गिद्ध एक कुपोषित मरणासन्न बच्ची को टोह रहा था। वह उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। यह तस्वीर सूडान में भुखमरी की भयावह स्थिति बताने के लिए अपने आप में पर्याप्त सबूत थी। इस तस्वीर के लिए फोटोग्राफर केविन कार्टर को पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लेकिन वहीं दूसरी ओर लोगों ने उसकी इस बात के लिए कटु निंदा की कि उसने फोटोग्राफी तो की लेकिन इंसानीयत नहीं निभाई। उसने उस बच्ची को गिद्ध से बचाने का कोई प्रयास नहीं किया बल्कि उसे तो जल्दी थी अपना वापसी का हवाईजहाज पकड़ने की। जबकि केविन को भी अपनी इस भूल का गहरा अपराधबोध था। लोगों को इस बात का अहसास तब हुआ जब पुरस्कार मिलने के तीन माह बाद केविन ने अपराधबोध न सहन कर पाने की स्थिति में आत्महत्या कर ली। उसे भी लगता रहा कि वह बच्ची को बचाने का प्रयास कर सकता था।

इसके बाद दुनिया के सामने एक और तस्वीर आई। यह नाईजीरिया के उस बच्चे की तस्वीर थी जिसे उसके समुदाय ने ‘‘शापित’’ मान कर त्याग दिया था। वह नग्नावस्था में हड्डी का ढांचा मात्र रह कर भूखा-प्यासा भटकता अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। तब डेनमार्क निवासी महिला अंजा रिंगरेन लोवेन ने उसे अपनी बॉटल से पानी पिलाया जिससे उसकी थमती सांसों में गति आई। फिर वह उसे गोद में उठा कर ऐसे लोगों के पास ले गई जो उसका लालन-पालन कर सकें। आज वह बच्चा अच्छा स्वस्थ हो चुका और पढ़ने के लिए स्कूल जाता है। देखा जाए तो उस तस्वीर के बाद पूरी दुनिया ने उसे अपने संरक्षण में ले लिया। अंजा रिंगरेन लोवेन ने अपनी नौकरी छोड़ कर उन बच्चों के लिए जीवन समर्पित कर दिया जिन्हें अंधविश्वास के चलते शापित मान कर त्याग दिया जाता था और वे बच्चे भूख-प्यास से दम तोड़ देते थे। अंजा रिंगरेन लोवेन ने ऐसे बच्चों के लिए एक आश्रम खोला। जिस पहले बच्चे को अंजा ने बचाया था उसकी दशा की अपडेट के तौर पर एक वर्ष पहले उसकी हंसती-खेलती तस्वीर जारी की गई थी ताकि पूरी दुनिया जान सके कि मौत के मुंह में खड़ा वह बच्चा अब एक अच्छी जिन्दगी जी रहा है।

हम भी अकसर कई स्वयंसेवी संस्थाओं के विज्ञापन देखते हैं जिनमें कुपोषित, दयनीय अवस्था के बच्चों की तस्वीरें दिखा कर सहयोग राशि मांगी जाती है। इनमें कई विज्ञापन चार-पांच वर्ष तक एक ही बच्चे की तस्वीर या वीडियो के साथ चलते रहते हैं। हमें विज्ञापन के रूप में उनकी दशा का अपडेट नहीं दिखाया जाता है कि दी गई सहायता राशि से उस बच्चे की जान बची या नहीं अथवा अब वह किस स्थिति में है? ऐसे बच्चों को भला हम किस श्रेणी में रखेंगे?
फरवरी 2022 में एनसीपीसीआर ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि राज्यों से प्राप्त जानकारी के अनुसार देश में 17,914 बच्चे सड़कों पर हैं। आयोग के उस आंकड़े के अनुसार इनमें से 9,530 बच्चे सड़कों पर अपने परिवारों के साथ रहते हैं और 834 बच्चे सड़कों पर अकेले रहते हैं। इनके अलावा 7,550 ऐसे बच्चे भी हैं जो दिन में सड़कों पर रहते हैं और रात में झुग्गी बस्तियों में रहने वाले अपने परिवारों के पास लौट जाते हैं। धार्मिक स्थलों से ट्रैफिक सिग्नल तक इन बच्चों में सबसे ज्यादा (7,522) बच्चे 8-13 साल की उम्र के रहते हैं। इसके बाद 4-7 साल की उम्र के 3,954 बच्चे हैं। राज्यवार देखें तो सड़कों पर सबसे ज्यादा बच्चे (4,952) महाराष्ट्र में, इसके बाद गुजरात (1,990) में, तमिलनाडु (1,703), दिल्ली (1,653) और मध्य प्रदेश (1,492) में हैं। यद्यपि अदालत ने इस आंकड़े पर संदेह जताते हुए राज्यों से बेहतर जानकारी देने के लिए कहा था। अदालत ने इन आंकड़ों पर सवाल खड़ा करते हुए कहा था कि सड़क पर बच्चों की अनुमानित संख्या 15 से 20 लाख है और यह सीमित आंकड़े इसलिए सामने आ रहे हैं क्योंकि राज्य सरकारें राष्ट्रीय बाल आयोग के पोर्टल पर जानकारी डालने का काम ठीक से नहीं कर रही हैं।

बच्चे समाज की धरोहर और जिम्मेदारी होते हैं। केवल सरकार, आयोग, स्वयंसेवी संगठन आदि ही इनके लिए उत्तरदायी नहीं है, हम भी इन बच्चों के लिए उत्तरदायी हैं और यह हमें समझना चाहिए। दरअसल हम अपने आप में इतने सिमट गए हैं कि हमें न तो केविन कार्टर की तरह अपराधबोध होता है और न अंजा रिंगरेन लोवेन की तरह हम मदद के लिए कटिबद्ध हो पाते हैं। ऐसे बच्चों की ओर देखने से बचने के लिए हम अपने मोबाइल की ओर देखते हुए खुद को आभासीय दुनिया में धकेल देते हैं। जब मैं अपने देश के कुपोषित और सहायता से दूर या अपने ही माता-पिता के हाथों अपना बचपन गंवाते बच्चों को देखती हूं तो मुझे यह समझ में नहीं आता है कि ऐसे बच्चों को किस श्रेणी में रखा जा सकता है- भिखारी, अनाथ, कुपोषित या फिर कोई और श्रेणी? जरूरी है इस पर विचार करना।    
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