Wednesday, November 30, 2022

चर्चा प्लस | श्यामा प्रसाद मुखर्जी वह कभी नहीं चाहते थे, जो हुआ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
श्यामा प्रसाद मुखर्जी वह कभी नहीं चाहते थे, जो हुआ...
        - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                      
       हमारे देश की स्वतंत्रता उस आग के दरिया से गुज़र का पार लगी है जिसे हम विभाजन की विभीषिका के रूप में जानते हैं।  उस  दौरान लगभग 30 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की कठिनाइयों के कारण। इस जानहानि की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन विभाजन के पूर्व ही जो भयावह संकेत मिलने लगे थे उसे श्यामाप्रसाद मुखर्जी भांप गए थे। वे मुस्लिम लीग की गतिविधियों पर अंकुश लगाना चाहते थे। वे भारत को अखण्ड देखना चाहते थे। वे शांति चाहते थे। उन्होंने प्रयास भी किए लेकिन.....
सही-सही आंकड़े आज भी किसी को पता नहीं हैं। लेकिन जो अनुमान लगाए जाते हैं और तत्कालीन छायाचित्रों में शरणार्थियों की बाढ़ का जो दृश्य दिखाई देता है, वह अपने आंकड़े खुद ही बयान कर देता है।  यह माना जाता है कि देश के विभाजन दौरान पाकिस्तान से भारत और भारत से पाकिस्तान आने-जाने वाले शरणार्थियों में लगभग 30 लाख लोग मारे गये, कुछ दंगों में, तो कुछ यात्रा की की कठिनाइयां न झेल पाने के कारण। पाकिसतान से आने वालों को पता नहीं क्यों घर छोड़ कर निकलते समय एक धुंधली आशा फिर भी थी कि वे एक दिन अपने घरों को लौट सकेंगे। उस दौर में कोई अपने घर की चाबी पड़ोसी को देकर आया था और कोई अपने नौकर को, सोचा था कि कुछ दिन तक ऐसा चलेगा। इसके बाद वह दोबारा से पाकिस्तान वापस चले जाएंगे लेकिन ऐसा कभी नहीं हो सका। एक बार आए लोग दोबारा जाने की स्थिति में कभी नहीं आ सके। विभाजन के बाद के महीनों में दोनों नए देशों के बीच विशाल जन स्थानांतरण दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा जनस्थानांतरण माना जाता है। भारत की जनगणना 1951 के अनुसार विभाजन के एकदम बाद 72,26,000 मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गये और 72,49,000 हिन्दू और सिख पाकिस्तान छोड़कर भारत आए। लेकिन इन सबसे परे अनुमानित मौतों के आंकड़े आज तक पीड़ा देते हैं। सुदृढ़ भारत के स्वप्नद्रष्टा डाॅ श्यामा प्रसाद मुखर्जी  को  इस दुरास्वप्न के संकेत मिलने लगे थे। दुर्भाग्यवश उनके विचारों को उस समय गंभीरता से नहीं लिया गया। जिसका दंश कश्मीर की अशांति के रूप में अक्सर हमें कष्ट पहुंचाता रहता है।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी  ने अल्प आयु में ही बहुत बड़ी राजनैतिक ऊंचाइयों को पा लिया था। भविष्य का भारत उनकी ओर एक आशा भरी दृष्टि से देख रहा था। जिस समय लोग यह अनुभव कर रहे थे कि भारत एक संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है, उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति के साथ भारत के विभाजन की पूर्व स्थितियों का डटकर सामना किया। देश भर में विप्लव, दंगा-फसाद, साम्प्रदायिक सौहाद्र्य बिगाड़ने के लिये भाषाई एवं दलीय आधार पर खूनी संघर्ष की घटनाओं से पूरा देश आक्रान्त था किन्तु इन विषम परिस्थितियों में भी डटकर, सीना तानकर ‘एकला चलो’ के सिद्धान्त का पालन करते हुए डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी अखण्ड राष्ट्रवाद का पावन नारा लेकर महासमर में संघर्ष करते रहे।
डाॅ. मुखर्जी ने यह अनुमान लगा लिया था कि यदि मुस्लिम लीग को निरंकुश रहने दिया गया तो उससे बंगाल और हिन्दू हितों को भयंकर क्षति पहुंचेगी। इसलिए उन्होंने मुस्लिम लीग सरकार का तख्ता पलटने का निश्चय किया और बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्त मंत्री बने। इसी समय वे वीर सावरकर के प्रखर राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मलित हुए।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। इसलिए उन्होंने सक्रिय राजनीति कुछ आदर्शों और सिद्धान्तों के साथ प्रारम्भ की थी। सार्वजनिक जीवन में पदार्पण करने के पश्चात् उन्होंने अपनी प्रखर विचारधारा से, सम्मेलनों, जनसम्पर्क एवं सभाओं के माध्यम से, अपने ज्वलन्त उद्बोधनों से, जनता के मन में एक नयी ऊर्जा व नये प्राण का संचार किया। उनकी लोकप्रियता और उनकी ख्याति दिनों-दिन बढ़ती गयी। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी महान शिक्षाविद्, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। डाॅ. मुखर्जी की ‘जनसंघ’ के विचार किसी भी प्रकार से संकुचित नहीं थे। वे जनसंघ के रूप में आमजन के लिए एक सशक्त संघीय प्रणाली को स्थापित करना चाहते थे। राष्ट्र और राष्ट्र का आमजन उनके लिए प्रमुख था, राजनीतिक विचारधारा नहीं। एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में वे सदैव भारत के हित में कार्य करते रहे। एक समर्पित राष्ट्रभक्त के रूप में उनका उदाहरण दिया जाता है। भारतीय इतिहास उन्हें एक जुझारू कर्मठ विचारक और चिन्तक के रूप में स्वीकार करता है। भारत के लाखों लोगों के मन में एक निरभिमानी देशभक्त की उनकी छवि अमिट रूप से अंकित है। वे आज भी बुद्धिजीवियों और मनीषियों के आदर्श हैं। वे लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में आज भी समाए हुए हैं।
तत्कालीन शासन व्यवस्था में सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों के विशद जानकार के रूप में उन्होंने समाज में अपना विशिष्ट स्थान अर्जित कर लिया था। एक राजनीतिक दल की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के कारण जब बंगाल की सत्ता मुस्लिम लीग की झोली में डाल दी गई और सन् 1938 में आठ प्रदेशों में अपनी सत्ता छोड़ने की आत्मघाती और देश-विरोधी नीति अपनायी गयी तब डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वेच्छा से देशप्रेम और राष्ट्रप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से राजनीति में प्रवेश किया और राष्ट्रप्रेम का सन्देश जन-जन में फैलाने की अपनी पावन यात्रा का श्रीगणेश किया।
मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का वातावरण दूषित हो रहा था। वहां साम्प्रदायिक विभाजन की नौबत आ रही थी। साम्प्रदायिक लोगों को ब्रिटिश सरकार प्रोत्साहित कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिन्दुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से विफल कर दिया। उनके प्रयत्नों से हिन्दुओं के हितों की रक्षा हुई। सन् 1942 में जब ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में ठूंस दिया और देश नेतृत्वहीन और दिशाहीन दिखाई देने लगा। ऐसी कठिन परिस्थितियों में डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल के पक्ष मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देकर भारत को नयी दिशा दी।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। वहीं मोहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को एक अलग राष्ट्र के लिए मुस्लिम समुदाय के समर्थन के प्रदर्शन के रूप में प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस के रूप में घोषित किया। कलकत्ता और बॉम्बे के शहरों में दंगे फैल गए जिसके परिणामस्वरूप लगभग 5000-10,000 लोग मारे गए और 15,000 घायल हो गए। 9 दिसंबर 1946 को मुस्लिम लीग ने, जिसने पहले कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया था, अब इस आधार पर अपना समर्थन वापस ले लिया कि विधानसभा में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों की उचित सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं थी। ब्रिटिश सरकार की भारत विभाजन की गुप्त योजना और षडयंत्र को कुछ नेताओं ने अखण्ड भारत सम्बन्धी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। उस समय डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खण्डित भारत के लिए बचा लिया। महात्मा गांधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे खण्डित भारत के पहले मंत्रिमंडल में शामिल हुए। राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने प्रतिपक्ष के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और शीघ्र ही अन्य राष्ट्रवादी दलों और तत्वों को मिलाकर एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बडा दल था।
डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहां का मुख्यमन्त्री वजीरे-आजम अर्थात् प्रधानमंत्री कहलाता था। संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डाॅ. मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। वे जानते थे कि यदि आज एक राज्य पृथक्करण का रास्ता थाम लेगा तो अन्य प्रांतों में भी अलगाव की आग धधक उठेगी और देश का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि ‘‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।’’
उन्होंने तात्कालीन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहां पहुंचते ही उन्हें गिरफ़्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निधन पर उनके मित्र कवि हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने उनकी स्मृतियों को समर्पित करते हुए एक कविता लिखी थी, जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं -

एक महामानव चला गया...
हे मित्र! हम अनुभव करेंगे
तुम्हारी उपस्थिति की कमी का
हम अनुभव करेंगे तुम्हारी
उस वाणी का
जो हर बार तुम्हारे मुख से निकल कर
तुम्हारे विचारों की गर्जना करती थी
हम कैसे, किस भाषा में व्यक्त करें
अपने इस दुख को
और हम कैसे भूल सकेंगे
इस शोकपूर्ण दिन को?

इस प्रकार देश की एकता और अखण्डता के लिए समर्पित डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूप में एक राष्ट्रवादी व्यक्तित्व सदा के लिए सो गया किन्तु उनके द्वारा जलाई गई देशप्रेम की अलख आज भी सतत् रूप से जल रही है।
      उल्लेखनीय है कि मैंने अपनी पुस्तक ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: श्यामा प्रसाद मुखर्जी’’ में उनके जीवन और विचारों पर विस्तृत शोधात्मक तथ्य प्रस्तुत किए हैं। यह पुस्तक दिल्ली के सामयिक प्रकाशन से 2015 में प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तकालयों, पुस्तक की दूकानों तथा ऑनलाईन भी उपलब्ध है। दरअसल, मुझे लगता है कि युवा पीढ़ी को अतीत के उन तथ्यों से परिचित होना चाहिए जिन पर वर्तमान की स्थितियां टिकी हुई हैं। साथ ही इन तथ्यों को बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी राजनीतिक चश्में के पढ़ा जाना चाहिए तभी हम अपने अतीत की भूलों को भी पहचान कर उन्हें वर्तमान में सुधार सकेंगे।        
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