चर्चा प्लस
जब कुछ भी करना दुस्साहस था, तब गांधी ने दांडी मार्च किया
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
05 अप्रैल 1930 को महात्मा गांधी नमक कानून तोड़ने दांडी पहुंचे थे और 6 अप्रैल को नमक कानून तोड़ा था। आज 5 अप्रैल 2023 आने तक हम गांधी जी पर अनावश्यक वाद-विवाद में उलझने की प्रवृत्ति तक आ पहुंचे हैं। क्या आज की तारीख़ में यह मायने रखता है कि हमारे राष्ट्रपिता की डिग्री क्या थी या उन्होंने कितनी पढ़ाई की थी? और कुछ हो या न हो लेकिन ऐसी बहसों से वे लोग भ्रमित ज़रूर हो सकते हैं जिन्होंने गांधी जी की जीवनी नहीं पढ़ी। वे लोग भी भ्रमित हो सकते हैं जिन्होंने गांधी जी के कार्यों और विचारों को नहीं जाना। किसी पर लांछन लगाना आसान है लेकिन उसके जैसा जीवन जी कर दिखाना कठिन है। जब अंग्रेजों के बनाए कानून को ग़लत कहना भी अपराध था तब गांधी जी ने दांडी मार्च कर के अंग्रेजों के पसीने छुड़वा दिए थे। चाहें तो आप पढ़ सकते हैं मेरे द्वारा राष्ट्रवादी व्यक्तित्व श्रृंखला में लिखी गई पुस्तक ‘‘महात्मा गांधी’’, जो सामयिक प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुई है और जिसमें महात्मा गांधी के जीवन और कार्यों का सम्पूर्ण संक्षिप्त विवरण मौजूद है।
आज नमक आसानी से उपलब्ध हो जाता है, वह भी आकर्षक पैकेजिंग में। नमक भी नाना प्रकार के। किसी में आयोडीन तो किसी में आयरन तो किसी में..... नमक बेचने वाली कंपनियां शोर मचा-मचा कर बताती हैं कि उनके नमक में क्या खूबी है। जिन्होंने आज का नमक खाया है लेकिन अंग्रेजों की गुलामी के समय के इतिहास का खारा स्वाद नहीं चखा है वे न तो दांडी मार्च के महत्व को महसूस कर सकते हैं और न महात्मा गांधी के उस व्यक्तित्व को जो देश के लाखों ग़रीबों का प्रतिनिधित्व करते थे। ईश्वर ने उन्हें ग़रीब के घर में पैदा नहीं किया था लेकिन उन्होंने ग़रीबों के दुख-दर्द को समझा। गरीबों की आर्थिक विपन्नता को समझा। गांधी जी चाहते तो अंग्रेजों के सहयोगी बन कर बैरिस्टर साहब या राय बहादुर या फिर लाट साहब जैसी आलीशान ज़िन्दगी जी सकते थे। लेकिन उनके जीवन का उद्देश्य वह नहीं था। वे तो आमजन के कंधे से कंधा मिला कर खड़े होना चाहते थे। यह सब लिखना गांधी जी को किसी भक्ति भावना से प्रेरित हो कर महिमा मंडित करना नहीं है। मैंने इतिहास के वे पन्ने पढ़े हैं जिनमें उनके कार्य दर्ज़ हैं। वे श्वेत-श्याम तस्वीरें देखी हैं जिनमें गांधी जी ‘‘बापू’’ के रूप में एक धोती और लाठी के साथ मार्च करते दिखाई देते हैं। उस समय के चलचित्र (डाक्यूमेंट्री) नेशनल आर्काईव में मौजूद हैं। वे उस समय ही खींचे गए थे जब देश पर अंग्रेजों का शासन था और हम उनके गुलाम थे।
अंग्रेजों के एक गुलाम मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने ‘‘जबरिया मालिकों’’ के विरुद्ध स्वतंत्रता का शंखनाद किया और राष्ट्र के नेतृत्व की कमान सम्भाल ली। 26 जनवरी, 1930 को उनके नेतृत्व में देश को स्वतंत्र कराने की शपथ देश के कोने-कोने में ली गयी। स्पष्ट तौर पर यह ब्रिटिश सरकार को एक कड़ी चेतावनी थी। महात्मा गांधी का ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा देश के कोने-कोने में गूंज रहा था। 12 मार्च, 1930 को महात्मा गांधी ने वायसराय को सूचित किया कि वे अपने 78 अनुयाइयों के साथ ‘दांडी मार्च’ (दांडी यात्रा) करने जा रहे हैं। ‘दांडी मार्च’ से अभिप्राय उस पैदल यात्रा से है, जो महात्मा गांधी और उनके स्वयंसेवकों द्वारा 12 मार्च, 1930 ई. को प्रारम्भ की गयी। इसका मुख्य उद्देश्य था, अंग्रेजों द्वारा बनाए गए अन्यायपूर्ण ‘‘नमक कानून’’ को तोड़ना। गरीब किसान ब्रिटिश कानून के कारण अपनी ‘‘नमक की खेती’’ नहीं कर पा रहे थे। गांधी जी ने अपने 78 स्वयंसेवकों के साथ साबरमती आश्रम से 358 कि.मी. दूर स्थित दांडी नामक स्थान के लिए 12 मार्च, 1930 ई. को प्रस्थान किया। इससे पहले, 11 मार्च की संध्या की प्रार्थना नदी किनारे रेत पर हुई, उस समय गांधी जी ने कहा था, ‘‘मेरा जन्म ब्रिटिश साम्राज्य का नाश करने के लिए ही हुआ है। मैं कौवे की मौत मरूं या कुत्ते की मौत, पर स्वराज्य लिए बिना आश्रम में पैर नहीं रखूंगा।’’
महात्मा गांधी की ‘दांडी यात्रा’ का समाचार दूर-दूर तक फैल गया। दांडी यात्रा की तैयारी देखने के लिए देश-विदेश के पत्रकार, फोटोग्राफर अहमदाबाद आए थे। आजादी के आंदोलन की यह महत्त्वपूर्ण घटना ‘वाइस आॅफ अमेरिका’ के माध्यम से प्रस्तुत की गयी। अहमदाबाद में एकत्र हुए लोगों में यह भय व्याप्त था कि 11-12 मार्च की रात में महात्मा गांधी को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। ‘महात्मा गांधी की जय’ और ‘वंदे मातरम्’ के जयघोष के साथ लोगों के बीच महात्मा गांधी ने रात बिताई और सुबह चार बजे उठकर सामान्य दिन की भांति दिनचर्या पूर्ण कर प्रार्थना के लिए चल पड़े। 12 मार्च को प्रातः वह ऐतिहासिक दिन आरम्भ हुआ जब 61 वर्षीय महात्मा गांधी के नेतृत्व में 78 सत्याग्रहियों ने यात्रा आरम्भ की। महात्मा गांधी के तेेजस्वी और स्फूर्तिमय व्यक्तित्व ने स्वयंसेवकों के मन में ऊर्जा का संचार किया।
दांडी यात्रा के समर्थन में पूरे देश में विभिन्न स्थानों पर यात्राएं की गईं। राजगोपालाचारी ने त्रिचनापल्ली से वेदारण्यम् तक की यात्रा की। असम में लोगों ने सिलहट से नोआखली तक की यात्रा की। ‘वायकोम सत्याग्रह’ के नेताओं ने के. केलप्पन एवं टी.के. माधवन के साथ कालीकट से पयान्नूर तक की यात्रा की। इन सभी लोगों ने ‘नमक कानून’ को तोड़ा। नमक कानून इसलिए तोड़ा जा रहा था, क्योंकि सरकार द्वारा ‘नमक कर’ बढ़ा दिया गया था, जिससे दैनिक उपयोग में आने वाले नमक की कीमत बढ़ गयी थी।
उत्तर पश्चिमी सीमा प्रदेश में खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें बाद में ‘सीमांत गांधी’ कहा गया, के नेतृत्व में ‘खुदाई खिदमतगार’ संगठन के सदस्यों ने सरकार का विरोध किया। उन्होंने पठानों की क्षेत्रीय राष्ट्रवादिता के लिए तथा उपनिवेशवाद और हस्तशिल्प के कारीगरों को गरीब बनाने के विरुद्ध आवाज उठाई। इन्होंने पश्तो भाषा में ‘पख्तून’ नामक एक पत्रिका निकाली, जो बाद में ‘देशरोजा’ नाम से प्रकाशित हुई। पेशावर में गढ़वाल राइफल के सैनिकों ने अपने साथी चंद्रसिंह गढ़वाली के अनुरोध पर ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ कर रहे आंदोलनकारियों की भीड़ पर गोली चलाने के आदेश का विरोध किया। नमक कानून भंग होने के साथ ही सारे भारत में ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ का प्रभाव बढ़ गया था।
बम्बई में इस आंदोलन का केन्द्र धरासना था, जहां पर सरकार के दमनचक्र का सबसे भयानक रूप देखने का मिला। सरोजिनी नायडू, इमाम साहब और मणिलाल के नेतृत्व में लगभग 25 हजार स्वयं सेवकों को धरासना नामक कारखाने पर धावा बोलने से पूर्व ही पुलिस द्वारा निमर्मतापूर्वक लाठियों से पीटा गया। धरासना के भयानक रूप का उल्लेख करते हुए अमेरिका के ‘न्यू फ्रीमैन’ अखबार के पत्रकार वेब मिलर ने लिखा कि- ‘‘संवाददाता के रूप में पिछले 18 वर्ष में असंख्य नागरिक विद्रोह देखे हैं, दंगें, गली-कूचों में मार-काट वाले विद्रोह देखे हैं, लेकिन धरासना जैसा भयानक दृश्य मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा।’’
महात्मा गांधी की दांडी यात्रा के बारे में सुभाषचन्द्र बोस ने लिखा कि, ‘‘महात्मा जी के दांडी मार्च की तुलना ‘इल्बा’ से लौटने पर नेपोलियन के ‘पेरिस मार्च’ और राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए मुसोलिनी के ‘रोम मार्च’ से की जा सकती है।’’
वस्तुतः मूल यात्रा के मुख्य चरण इस प्रकार थे:- आणंद से लगे सरदार वल्लभ भाई पटेल की कर्मभूमि करमसद और बारदोली से इस आंदोलन की नींव पड़ी। इलाके और आसपास के किसानों ने सरदार पटेल को अपनी समस्याएं बताईं, तो उन्होंने पूरे क्षेत्र का दौरा किया। इससे किसानों और गांव के लोगों से सीधा जुड़ाव हुआ। किसानों से सरदार पटेल का सीधा सम्पर्क होने के कारण ही महात्मा गांधी ने नमक सत्याग्रह की पूरी बागडोर उन्हें सौंपी। इसकी पूरी योजना और मार्ग का निर्धारण सरदार पटेल ने किया था। यात्रा की सफलता के लिए सरदार पटेल मार्च से पहले गांवों के दौरे पर निकल गए थे। सरदार पटेल की इस रणनीति से घबराए अंग्रेजों ने उन्हें 7 मार्च को गिरफ्तार कर लिया। ताकि महात्मा गांधी का मनोबल टूट जाए, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि तब तक आंदोलन ने गति पकड़ ली थी।
12 मार्च, 1930 को महात्मा गांधी ने साबरमती में अपने आश्रम से समुद्र की ओर चलना शुरू किया। इस आंदोलन की शुरुआत में 78 सत्याग्रहियों के साथ दांडी कूच के लिए निकले बापू के साथ दांडी पहुंचते-पहुंचते पूरा अवाम जुट गया था।
अंग्रेजों के खिलाफ नमक आंदोलन में दांडी पहुंचने से पहले महात्मा गांधी ने सूरत को अपना पड़ाव बनाया। इसके बाद महात्मा गांधी ने डिंडौरी, वांज, धमन के बाद नवसारी को यात्रा के आखिरी दिनों में अपना पड़ाव बनाया। नवसारी से चलकर महात्मा गांधी कराडी पहुंचे। उन्होंने कराडी में दोपहर और रात का विश्राम किया। महात्मा गांधी ने कंकापुरा से दांडी के लिए अगले पड़ाव का सफर महिसागर तट से पूरा किया। नाव से 9 कि.मी. की यात्रा करने के बाद उन्होंने करेली में रात्रि विश्राम किया।
24 दिन बाद 05 अप्रैल को महात्मा गांधी दांडी की सीमा पर पहुंवे और 6 अप्रैल, 1930 ई. को दांडी पहुंचकर उन्होंने समुद्रतट पर नमक कानून को तोड़ा।
दांडी मार्च मात्र एक यात्रा नहीं थी वरन यह हमारे बुजुर्गों, हमारे पूर्वजों के अदम्य साहस का एक उदाहरण थी। इस यात्रा के द्वारा महात्मा गांधी ने क्या संदेश दिया? यही न कि जो ग़लत है उसका विरोध करने से नहीं डरो! न्याय और सत्य का साथ दो और अन्याय व झूठ का डट कर विराध करो। उस समय न तो सोशल मीडिया था, न टीवी और न इंटरनेट। फिर भी स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों की सूचनाएं तीव्रगति से फैलती थीं और उन सूचनाओं को पा कर सब एकजुट हो जाते थे। अब सूचनाओं का ‘‘बूम’’ है तो हम व्यर्थ के विवादों में उलझे रहते हैं। आज बुनियादी ज़रूरत के सामानों की बढ़ती कीमतों के बजाए इसमें उलझे रहते हैं कि गांधी जी के पास कानून की डिग्री थी या नहीं। पल भर को यह मान भी लें कि उनके पास कानून की डिग्री नहीं थी तो क्या हम दांडी मार्च और सविनय अवज्ञा आंदोलन को झुठला सकते हैं? आज डिग्रीधारी तो असंख्य हैं लेकिन सच्चे जनसेवकों और देशभक्तों को उंगलियों पर गिना जा सकता है। इसीलिए जरूरी है कि समय-समय पर हम अपने इतिहास की किताबों को पढ़ते रहें, उन महात्माओं की जीवनियां पढ़ते रहें जिन्होंने हमारी स्वतंत्रता, शिक्षा और मुखरता का मार्ग प्रशस्त किया। हम याद रखें दांडी मार्च को भी जो नमक कानून तोड़ कर गुलामी के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन की हुंकार थी।
इस दांडी मार्च का एक और उजला पक्ष है जो उस भ्रम को तोड़ता है कि सुभाषचंद्र बोस और महात्मा गांधी में अनबन थी। यह सच है कि दोनों में आंदोलन के तरीके को ले कर मतभेद रहा जिसे हम ‘‘नरम दल’’ और ‘‘गरम दल’’ के रूप में पढ़ते-सुनते आए हैं। लेकिन सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी के इस दांडी मार्च की प्रशंसा करते हुए कहा था कि -‘‘महात्मा जी के त्याग और देशप्रेम को हम सभी जानते ही हैं, पर इस यात्रा के द्वारा हम उन्हें एक योग्य और सफल रणनीतिकार के रूप में पहचानेंगे।’’
आज विचारणीय है कि वैचारिक मतभेद होते हुए भी एक-दूसरे के अच्छे कार्य की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने की वह परंपरा अब कहां गई? क्या राजनीतिक पटल पर हमारा हृदय इतना संकुचित हो गया है कि हम अब सिर्फ़ बुरा देखना और बुरा बोलना ही जानते हैं? अर्थात् हमने गांधी जी के तीनों बंदरों को भी बिसार दिया है। जबकि हमें याद रखना चाहिए कि व्यर्थ के विवाद और अनावश्यक बहसों का रास्ता हमें कहीं नहीं ले जाता है किन्तु इतिहास और अतीत का रास्ता हमें एक अच्छे भविष्य की ओर अवश्य ले जाता है।
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