"‘चुनाव आत-आत रोन-कुमरई की किसां होन लगहे" - मित्रो, ये है मेरा बुंदेली कॉलम "बतकाव बिन्ना की" साप्ताहिक #प्रवीणप्रभात , छतरपुर में।
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बतकाव बिन्ना की
चुनाव आत-आत रोन-कुमरई की किसां होन लगहे
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
जो मैं भैयाजी के इते पौंची सो वे हलके चच्चा से बतकाव कर रए हते।
‘‘राम-राम चच्चा!’’ मैंने हलके चच्चा खों राम-राम करी। कहबे को बे चच्चा कहाऊत आएं बाकी उनकी उम्मर चच्चा वारी नोंई।
मनो हल्के चच्चा के ‘‘चच्चा’’ कहाबे के पांछू सोई एक किसां आए। का भओ रओ के उने चायने रई नगरपालिका पार्षद के चुनाव की टिकट। उने कोनऊं पूछ ने रओ हतो। उन्ने अपने वारे विधायकजी से कई के हमें सोई पार्षद के लाने ढ़ाड़ो करा देओ। सो, विधायकजी ने ठक्का-ठाई कै दई के ‘‘एक तो तुमाओ नांव हल्के, ऊपे तुमाई पर्सनाल्टी सोई हल्की। सिंगल हड्डी के धरे हो। कोनऊं तुमसे इम्प्रेस नईं होत। पैले कछू दमदार बनों फेर आइयो! विधायकजी ने कै दई खरी-खरी। अब इत्ती खरी को सुन सकत आए? अपने हल्के महराज खों लग गई बुरई। उन्ने वोई दिनां से दंड पेलने चालू कर दओ औ अंडा-बदाम सबई कछु खान लगे। पंद्रा दिनां में उने समझ परी के जे सब में सो टेम लग जेहे सो उन्ने एक शार्टकट निकारो। बे अपने नांव के संगे चच्चा बोलन लगे। मने, बे कोनऊं से बात कर रए होंए सो खुदई कैते के ‘‘बे हमसे बोले काय हल्के चच्चा’’, मनो ई टाईप से बे सब के मन में अपने लाने चच्चा फिट करन लगे। औ उनको काम बन गओ। छोटे-बड़े सबई उने हल्के चच्चा कैन लगे। अब बे अकेले हल्के नोईं रए, बे बन गए हल्के चच्चा। बन गई पर्सनाल्टी। उनकी जे बुद्धिमानी देख के विधायक जी सोई ग्लेड हो गए। अखीर में उने पार्षदी हाथ लग गई।
‘‘काय, हल्के चच्चा औ का चल रओ?’’ मैंने हल्के चच्चा से पूछी।
‘‘अरे बिन्ना! आपको आशिर्वाद मिल जाए सो अपनों भाग खुल जाए!’’ हल्के चच्चा बोले।
‘‘का मतलब?’’ उनकी बात सुन के मोय झटका सो लगो। कऊं इने उधारी के पइसा-वइसा सो नई चाउंने?
‘‘मतलब जे के ई बेरा हम सोच रए के विधायक के लाने जोर लगाएं। अब भैंन हरों को आशीर्वाद हुइए, सो मिल जेहे विधायकी।’’ कैत भए हल्के चच्चा ने धड़ से मोरे पांव पर लए।
‘‘अरे-अरे, जो ने करो! मोरो आशीर्वाद सो हमेसई आपके लाने रिजर्व आए।’’ मैंने हल्के चच्चा से कई।
‘‘अब जे सो पूछ लेओ ई महराज से के कोन-सी पार्टी से ठाड़े होबे की सोच रए?’’ हम ओरन की बातें सुन के भैयाजी बोल परे।
‘‘जोन पार्टी ऊ समै लों जीतबे वारी समझ में आहे, बोई की टिकट के लाने जुगत करबी।’’ हल्के चच्चा दंतनिपोरी करत भए बोले।
‘‘सुनी इनकी!’’ भैयाजी मोसे बोले। फेर कैन लगे,‘‘अबे सो कछू नईं, तनक चुनाव को टेम सो आन देओ। चुनाव आत-आत रोन-कुमरई की किसां हुइए।’’
‘‘रोन-कुमरई? मने काय की किसां?’’ हल्के चच्चा पूछन लगे।
‘‘तुमे नई पता जे किसां?’’ भैयाजी ने हैरानी से पूछीं, ‘‘काय तुम बुंदेलखंड में रैत आओ के लंदन में, जो जे किसां नई सुनी तुमने?’’ भैयाजी खों मनो यकीन नई भओ।
‘‘हऔ, सो का भओ? नईं सुनी सो नई सुनी! जे बिन्ना ने सोई ने सुनी हुइए।’’ हलके चच्चा बोले।
‘‘बिन्ना की छोड़ो। बिन्ना ने जे किसां सुनी सो ठीक मनो लिखी औ छापाई सोई आए। वो बी साहित्य अकादमी दिल्ली से। इनकी किताब आए-‘बुंदेलखंड की लोककथाएं’। समझे कछू। पढ़त-लिखत सो हो नईयां। ने तो इत्तो तो पतो रैतो।’’ भैयाजी बोले।
मोय जे सुन के अच्छो लगो के भैयाजी ने मोरी बड़वारी करी। मनो कोन खों अपनी बड़वारी भली ने लगहे।
‘‘चलो हम सुना रए तुमाए लाने रोन-कुमरई की किसां।’’ भैयाजी बोले। फेर उन्ने किसां सुनानी शुरू करी - ‘‘एक हती कुतिया। बा बड़ी लालची हती। ऊको मनो जे पता पर जाए के फलां गांव में पंगत हो रई सो बा सौ मील लों भगत चली जात्ती। ऊके संगवारे कुत्ता-कुतिया ऊको समझात रैत्ते के इत्तो लालाच ने करो। इते-उते भगत फिरत आओ, जे ठीक नइयां। मनो बा काय को कोनऊं की सुनती। एक बेर का भओ के एक रओ गांव। जीको नांव हतो रोन। उते के लंबरदार ने रखी एक पंगत। रोन गांव बा कुतिया के गांव से दूर ने हतो, सो बा और ऊके संगवारन ने पंगत में पौंचबे को प्लान करो औ चल परे। बे ओरें कछू दूर पौंचे हते के उने खबर मिली के कुमरई गांव के लंबरदार ने सोई पंगत रखी आए। कछू कुत्ता-कुतिया हते सो बे रोन जाबे के लाने कैन लगे औ कछू बोले के हमें तो कुमरई जाने। बे ओरे दो फड़ में बंट गए कहाने। उन ओरन ने बा कुतिया से पूछी के तुम कोन तरफी जेहो? सो बा बोली के जोन के इते अच्छो खाना बन रओ हुइए, उतई जाबी औ खाबी। सो ईपे बाकी कुत्ता-कुतियन ने कई के जे सो उतई जा के पता परहे। सो बा कुतिया बोली के फिकर नाट, मैं पैले रोन जैहों, ईके बाद कुमरई। दोई जांगा पौंच के पता चल जेहे के कोन के इते अच्छो खानो बन रओ। जा सुन के सब ने कई के जे तुमाई मर्जी, जो ठीक लगे सो करो।
सो बा कुतिया पैले रोन पौंची। ऊने देखी के उते तो पुड़ी तली जाबे की तैयारी चल रई हती। सो ऊने सोची के जो लौं पुड़ी बन रईं तब लौं कुमरई खों चक्कर लगा लओ जाए। पतो पर जेहै के उते का बन रओ। सो बा भगत-भगत कुमरई पौंची। उते ऊने देखी के हलवा बनाओ जा रओ आए। जा देख के ऊकी लार टपकन लगी। ऊने सोची के आज सो हलवा-पुड़ी दोई खाबे खों मिलहे। जेई संगे ऊके मन में खयाल आओ के जा के पैले पुड़ी खा लई जाए। उत्ती देर में इते हलवा बन जेहे। बा फेर के भगी और रोन पौंची। उते जा के देखी के पुड़ी को एक घना खतम हो गओ रओ और दूसरे घना की तैयारी चल रई हती। जे देख के ऊने सोची के जित्ते में इते पुड़ी को दूसरो घना उतरहे, उत्ते में कुमरई जा के हलवा खा लओ जाए। सो बा दौड़त-दौड़त कुमरई पौंची। उते ऊने देखी के जो लों बा रोन गई उत्ते में इते कुमरई में हलवा खतम हो गओ रओ। अब फेर के हलवा बनाबे को काम चल रओ हतो। सो बा जे सोच के घबरा गई के कऊं उते पुड़ी ने बढ़ा जाए। सो बा फेर रोन खों भागी। रोम और कुमरई में मनो सात कोस की दूरी हती। बा हांफत-हांफत रोन पौंची। जब लौं उते कछू बचोई नई हतो। ऊके संगवारे कुत्ता-कुतियन ने जूठा दोना-पत्तल लौं चाट-चूट के सफा कर दओ हतो। जा दसा देख के ऊको लगो के तुरतई कुमरई पौंचो जाए, ने तो उते बी कछू ने मिलहे। बाकी जे भागा-भागी में ऊकी दम कढ़ी जा रई हती। औ भूक बी जोर की लग आई हती। बा लालची कुतिया फेर के कुमरई की तरफी भागी। आधी रस्ता में पौंचत-पौंचत भूक, प्यास औ थकान से ऊकी दम कढ़ गई औ बा उतई टें बोल गई। इत्ते में रोन और कुमरई दोई तरफी से ऊके संगवारे कुत्ता-कुतिया लौटे। उन्ने बा कुतिया की दसा देखी सो उने कै आई के-‘‘जा लालच के फेर में ने परती औ कोनऊं एक पंगत में टिकी रैती तो कछू तो खाबे खों मिल जातो। जे जो जान से तो ने जाती।’’- सो, हल्के चच्चा! जे हती रोन-कुमरई की किसां। औ बोई दिनां से अपने इते लालच करबे वारन खों रोन-कुमरई की कुतिया कओ जान लगो।’’ भैयाजी किसां खतम करत भए बोले।
‘‘किसंा सो मनो नोनी हती, बाकी जा सुना के तुम हमसे का कैन चात आओ?’’ हल्के चच्चा ने भैयाजी से पूछी।
‘‘अरे हमें का कैने? तुम खुदई समझदार आओ। हम सो बस जे कै रै के चुनाव आत-आत रोन-कुमरई की किसां होन लगहे के ई पार्टी में चलो आए के ऊ पार्टी में?’’ कैत भए भैयाजी हंसन लगे।
अब हल्के चच्चा इत्ते बी हल्के ने हते के भैयाजी को टांट ने समझ पाउते। बे खिसिया के उते से खिसक लिए। मोए सोई कऊं जाने रओ सो मैंने भैयाजी से राम-राम करी। बाकी अब आप ओरें सोई सोचियो के जे जो भैयाजी ने कई बा सांची कई के झूठी? मनो बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लों जुगाली करो जेई की। सो, सबई जनन खों शरद बिन्ना की राम-राम!
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