Tuesday, April 25, 2023

पुस्तक समीक्षा | दीवार किसलिये? - यह अहम प्रश्न उठाती ग़ज़लें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 25.04.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई  शायर "कंवल" की ग़ज़ल संग्रह "दीवार किसलिए" की समीक्षा... 
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पुस्तक समीक्षा
दीवार किसलिये? - यह अहम प्रश्न उठाती ग़ज़लें
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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ग़ज़ल संग्रह  - दीवार किसलिये
कवि        - सी.एल. कंवल
प्रकाशक    - स्वयं रचनाकार (अंकुर काॅलोनी एक्सटेंशन, ऋषभनाथ जैन मंदिर के पास, मकरोनिया, सागर, म.प्र.)
मूल्य       - 175/-
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ग़ज़लगोई उतनी आसान नहीं होती जितनी कि ऊपरी तौर पर दिखाई देती है। साहित्य की सभी विधाओं की भांति ग़ज़ल को भी साधना पड़ता है। साहित्य में ‘‘साधना’’ शब्द का आशय है ‘‘उसमें डूब जाना’’। जो साहित्य की किसी भी विधा में डूब कर लिखता है वह उस विधा को ‘‘साध लेता’’ है। जहां तक पद्य का सवाल है तो उसमें भाव, विचार और विधा की शिल्पगत विशेषताओं का एक उत्तम संतुलन आवश्यक होता है। वह चाहे छंदबद्ध काव्य रचना हो अथवा छंदमुक्त हो, शब्दों के सटीक चयन और अबाधित प्रवाह होना चाहिए। ग़ज़ल इसीलिए लोकप्रिय विधा है क्योंकि इसमें इन दोनों शर्तों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। यदि एक शब्द भी अपने सही स्थान पर न हो तो शेर का वज़न बिगड़ जाता है और पूरी ग़ज़ल को असंतुलित कर देता है। उर्दू शायरी में वज़न का विशेष ध्यान रखा जाता है। किन्तु उर्दू शायरी जब हिन्दी से आ मिली तो उसका स्वरूप मात्रिक छंद का हो गया। हिन्दी ग़ज़लों में मात्रिक छंद के हिसाब से वज़न पर ध्यान दिया जाता है और इस तरह संतुलन को साधा जाता है। आज की समीक्ष्य पुस्तक एक ग़ज़ल संग्रह है। जिसका नाम है ‘‘दीवार किसलिये’’। यह सागर नगर के शायर सी.एल. कंवल का प्रथम ग़ज़ल संग्रह है। संग्रह में उर्दू शिल्प से प्रभावित हिन्दी लिपि की तिरपन ग़ज़लें हैं। स्वयं के द्वारा प्रकाशित कराए गए इस ग़ज़ल संग्रह का नाम आकर्षक है क्योंकि यह मानवीय चेतना से सीधा संवाद करता है कि ‘‘दीवार किसलिये?’’।
आज समाज, परिवार और पारस्परिक संबंधों में स्वार्थपरता इस कदर प्रभावी है कि घर के आंगन के बीच दीवार खड़ी मिलना आम बात हो गई है। बंटवारे की भावना दिलों और दिमागों को बंाटने लगी है। जाति, धर्म, समुदाय, विचाधारा और तरह-तरह के बंटवारे। आज संयुक्तता की बातें कपोल कल्पित कथा की भांति लगती हैं या फिर किसी खोखले नारे की भांति। इस स्थिति को देख कर किसी भी संवेदनशील मन का व्याकुल हो उठना स्वाभाविक है। शायर सी.एल. ‘‘कंवल’’ इसीलिए अपनी शायरी के द्वारा प्रश्न उठाते हैं कि -
तुमने  उठाये  हाथ में  हथियार किसलिये?
अपनों पै तुम यूं कर रहे हो वार किसलिये ?
मंदिर कहीं  तामीर  है मस्जिद कहीं बनी
इन दोनों के दरम्यान ये दीवार किसलिये?

शायर ‘‘कंवल’’ ने अपनी सृजनात्मकता के संबंध में आत्मकथन में लिखा है कि -‘‘अनुभव के सागर में गोता लगाने, उसे मथने, जब अन्तश्चेतना विवश करती है तो उस स्थिति में विचरण करती हुई बुद्धि के हाथ कुछ भावरत्न लगते हैं जिन्हें लोकदृष्टि में लाकर, प्रशंसा पाने मन विकल हो उठता है। ऐसी ही स्थिति में कविता का जन्म होता है। मेरी शाइरी भी इसका अपवाद नहीं है। वैसे तो शालेय वातावरण में अनुकूलता पाकर मेरी काव्यधारा प्रस्फुटित हुई थी किन्तु जीवन की आपाधापी के बीच काव्यकर्म हेतु समुचित अवकाश न मिल सका। फिर भी इस स्थिति में अपने भावों को शब्दों का रूप देकर मैं जो कुछ लिपिबद्ध कर पाया हूँ उसके एक अंश को सहृदय जन के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयत्न मेरा यह गजल संग्रह ‘‘दीवार किसलिये’’ है।’’
यही यथार्थ है आज के जीवन का कि व्यक्ति आजीविका की दौड़ में अभिलाषित पलों से भी वंचित होता चला जाता है। उसे स्वयं की इच्छाओं को जीने का अवसर नहीं मिल पाता है। प्रायः यह अवसर पूरी उन्मुक्तता के साथ मिलता है आजीविेका-कर्म से सेवानिवृत्ति के बाद। शायर ‘‘कंवल’’ भी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्ति के उपरांत सक्रिता से ग़ज़ल सृजन में प्रवृत हो गए। वे वर्तमान में सागर के निवासी हैं किन्तु उनका जन्मस्थान सागर जिले की खुरई तहसील है अतः उन्होंने इस संबंध में यह मुक्तक कहा है-
खुदा-राम-ईसा की नगरी ‘‘कंवल’’ खुरई का वासी है
सागर से रिश्ता है उसका यहीं पर काबा काशी है।
अपनी मर्जी का मालिक वह हर दिल से उसका नाता है
झूठ-फरेब से नफरत उसको चाहत का अभिलाषी है ।

   शायर ‘‘कंवल’’ ने जीवन के अनुभवों एवं संवेदनाओं को अपनी ग़ज़लों में पिरोया है। वे जानते हैं कि लालच और अविश्वास ही सारे विवाद की जड़ होता है। विवाद के चलते लोग एक-दूसरे का घर जलाने तक को आमादा हो उठते हैं। इसीलिए शायर का आग्रह है कि जो पीड़ा हम दूसरों को देने के बारे में सोचते हैं यदि उस पीड़ा से स्वयं गुज़रने की कल्पना भी करें तो पल भर में सारे विवाद समाप्त हो जाएंगे और सारी दीवारें गिर जाएंगी। उनकी यह ग़ज़ल देखिए-
विश्वास को बुन्याद बनाकर  तो देखिए।
उन दुश्मनों से हाथ मिलाकर तो देखिए।
दीवार अपने आप ही खुद टूट जायेगी,
इंसानियत को दिल में जगाकर तो देखिए।
मिट जायेगा हर हाल में हम तुम का फासिला,
ये मजहबों की होड़ मिटाकर तो देखिए ।
आनंद जो लेना है तुम्हें स्वर्ग का अगर,
रोते हुये बच्चे को उठाकर तो देखिए ।
औरों के घर में आग लगाने से पेश्तर,
खुद का ‘‘कंवल’’ घर आप जलाकर तो देखिए।

भाषा को ले कर शायर ‘‘कंवल’’ की सर्तकता ध्यान देने योग्य है कि उन्होंने उर्दू शब्दों को उर्दू की तर्ज़ में ही लिखा है। यद्यपि हिन्दी लिपि में लिखी जा रही उर्दू तर्ज़ की ग़ज़लों के लिए इसे बहुत आवश्यक नहीं माना जाता है क्योंकि इसमें नुक्तों की त्रुटियों की अधिक संभावना रहती है। इस संग्रह में भी ऐसी त्रुटियां मौज़ूद हैं। यह वस्तुतः प्रूफ की त्रुटि मानी जा सकती है। बहरहाल, किसी उर्दू शब्द में नुक्ते का निर्वाह दिखना और किसी में निर्वाह न होना तनिक अटपटा लगता है। बेशक़ इससे ग़ज़ल का कलेवर बाधित नहीं हुआ है। जैसे यह ग़ज़ल देखी जा सकती है-
ज़मीर मेरा मुसीबत में मर गया कैसे ?
सवाल पूछ न मैं अपने घर गया कैसे ?
कमाल देख परेशां हूं, कुदरती या रब ?
जरा सी देर में दर्या उतर गया कैसे ?
जुबां पै तेरी यकीनन है नाम हमदम का,
ये रंग तेरे लबों का निखर गया कैसे ?

ग़ज़ल अपने स्वरूप को ले कर जिस गंभीरता की मांग करती है, वह गंभीरता शायर ‘‘कंवल’’ की ग़ज़लों में उपस्थित है। ये गजलें हमारे आसपास सघन होती असंवेदना पर प्रहार करने में सक्षम हैं-  
इक भिखारिन अमीरों को क्या दे गई।
वो तो बरकत की उनको दुआ दे गई।
आंख में नींद औ नींद में ख़्वाब में,
वो चली आई अपना पता दे गई।
जब गजल आई महफिल में मेरे निकट,
ज़र मुझे क़त्ओ-अश्आर का दे गई।

 जमाने की स्वार्थपरता शायर को रह-रह कर कचोटती है। यह स्थिति उसकी दृष्टि से छिपी नहीं है कि योग्य व्यक्ति को कोई सहारा नहीं देता है जबकि यदि व्यक्ति रसूख वाला है तो अयोग्य होने के बावज़ूद भी अनेक हाथ उसकी मदद को बढ़ जाते हैं। यह विडम्बना देख कर शायर कह उठता है-
यहां कोई गर गिर जाये तो कोई हाथ नहीं देता।
पड़े कोई कठिनाई में  तो  कोई साथ नहीं देता।
बिछी हैं इधर चौतरफा जीवन की कुटिल बिसातें,
पर, अगर बुलंदी हासिल हो तो कोई मात नहीं देता।

शायर सी.एल. ‘‘कंवल’’ की ग़ज़लें सादगी लिए हुए हैं। प्रभावी हैं। भावी संभावनाओं के प्रति आश्वस्त भी करती हैं। संग्रह का कव्हर भी आकर्षक है तथा संग्रह के नाम को रेखांकित करता है किन्तु उसमें दो तरह के चिन्हों का प्रयोग खटकता है। पुस्तक के आवरण चित्र पर दीवार का चित्र और उस दीवार पर प्रश्नचिन्ह का अंकन सटीक है लेकिन ठीक उसके ऊपरी भाग में संग्रह का नाम ‘‘दीवार किसलिये!’’ संबोधनचिन्ह ‘‘!’’ के साथ दिया गया है। इसे आवरणसज्जा की त्रुटि ही कहेंगे पर अच्छे काग़ज़, अच्छी छपाई के बावजूद इससे पुस्तक की दृश्यात्मक प्रभाव पर असर पड़ता है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि संग्रह की ग़ज़लों के तेवर पाठक के मन को आलोड़ित करेंगे और चिंतन के लिए विवश करेंगे। हमारा देश सांस्कृतिक विविधता का देश है अतः इन विविधताओं के बीच वैमन्यता की दीवार खड़ी नहीं होनी चाहिए, यही आग्रह है इस संग्रह की ग़ज़लों का और इस दृष्टि से संग्रह पठनीय है।
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