Wednesday, December 13, 2023

चर्चा प्लस | सिनेमा में खल-महिमा का ट्रेडीशन और ट्रेंड: संदर्भ ‘‘एनिमल’’ | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
सिनेमा में खल-महिमा का ट्रेडीशन और ट्रेंड: संदर्भ ‘‘एनिमल’’
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      ऐसा नहीं है कि मात्र हमारे देश में ऐसी फिल्में बनती हैं जिनमें खलनायकों को नायक की तरह प्रस्तुत किया जाता है। पर यह भी सच है कि बालीवुड में ‘‘खलनायक’’ जैसी फिल्म बन चुकी है जिसमें एक खल चरित्र वाला पात्र ही नायक था। यानी एक खलनायक नायक। अब हाल ही में एक और फिल्म आई है ‘‘एनिमल’’। बेशक ‘‘खलनायक’’ और ‘‘एनिमल’’ में मात्र इतना ही साम्य है कि दोनों में एक खल चरित्रवाला नायक है। ऐसा नायक जो बुराइयों से भरपूर है किन्तु उसमें भी नायकत्व को दिखाए जाने का प्रयास किया गया है। यदि इस तरह के सिनेमा के हिसाब से देखें तो ‘‘नायकत्व’’ (हीरोइज़्म) की परिभाषा ही औंधेमुंह गिरती दिखाई देती है। नायकत्व तो उस चरित्र को कहते हैं जिसका अनुकरण कर के जीवन में अच्छाइयों का, वीरता का, उदारता का, सम्मान का संचार किया जा सके। किन्तु सिनेमाई खल-नायकत्व को देखें तो ऐसे पात्र का अनुकरण करके व्यक्ति अपने रहे-सहे गुणों को भी बिसार बैठेगा।
यह बात विचार करने की है कि रजतपट पर जितने खलचरित्रों को महिमा मंडित कर के प्रस्तुत किया गया है, उसकी अपेक्षा सद्चरित्रों पर कम ही ध्यान दिया गया। धार्मिक सिनेमा इसमें शामिल नहीं है। आम जनजीवन से उठाए गए खास चरित्रों में से खलचरित्रों के जीवन को पूरी सहानुभूति एवं पक्षधारिता के साथ दर्शकों के सामने परोसने का काम क्यों किया जाता है? क्या इसके पीछे यह तो नहीं कि ऐसे चरित्रों के लिए आर्थिक सहयोग सुगमता से मिल जाता है? यह बात विवादास्पद हो सकी है क्योंकि किसी फिल्मकार की स्वतंत्रता का प्रश्न है। किन्तु स्वतंत्रता यदि उस दिशा की ओर जाने लगे जो युवाओं को गलत पाठ पढ़ा सकती है तो इस पर विचार किया जाना जरूरी है।  
सिनेमा में विपरीत चरित्रों को महिमामंडित करने का चलन हाॅलीवुड से ही शुरू हुआ था। फिल्म ‘‘गाॅड फादर’’ इसी चलन का एक हिस्सा थी। फिर भी वह फिल्म उन परिस्थितियों को न्यायोचित ढंग से प्रस्तुत करती थी जिसके चलते अपराध जगत के ‘‘गाॅड फादर’’ का जन्म हुआ। एक शरणार्थी बालक विदेशी, अपरिचित भूमि पर जीवन संघर्ष के लिए वह बनता चला जाता है जो उसे नहीं बनना चाहिए था। बेशक उस चरित्र में क्रूरता है, कठोरता है लेकिन वह मनोरोगी नहीं है। भारतीय सिनेमा तो हमेशा हाॅलीवुड की ओर मुंह किए बैठा रहता है। मर्लिन ब्रांडो और अल पचीनो जैसे अभिनेताओं द्वारा अभिनीत ‘‘गाॅडफादर’’ 1972 पर बाॅलीवुड में ‘‘धर्मात्मा’’ बनाई गई जिसमें मुख्यभूमिका फिरोजखान की थी। अब यही फिल्म 2022 में बनी सलमान खान और नयनतारा को ले कर जो वस्तुतः चिरंजीवी की दक्षिण की फिल्म की रीमेक थी। ‘‘जो जीता वही सिकंदर’’ ‘‘ब्रेकिंग अवे’’ पर थी, अब तो ओटीटी प्लेटफार्म तक में हाॅलीवुड की काॅपी रीमेक या इंस्पायर्ड के नाम पर धड़ल्ले से आ रही हैं। ‘‘‘प्लेयर्स’’ हाॅलीवुड की मशहूर फिलम ‘‘द इटालियन जाॅब’’ पर बनी, फिल्म ‘‘बैंग-बैंग’’ नाईट एण्ड डे’’ की रीमेक थी। ‘‘कांटे’’ को ‘‘रिज़वायर डाॅग’’ से प्रेरित कहा गया। ‘‘मर्डर’’ तो ‘‘अनफेथफुल’’ की काफपी ही थी। एक लम्बी सूची है जो गिनाई जा सकती है कि कौन-सी बाॅलीवुड फिल्म किस हाॅलीवुड फिल्म की काॅपी थी। बहरहाल, यहां मुद्दा काॅपी किए जाने का नहीं बल्कि ‘‘एंटीकैरेक्टर वर्शिपिंग’’ का है। यदि जिन चंद फिल्मों का यहां काफपी के सिलसिले में उल्लेख किया गया उन पर ध्यान दिया जाए तो वे सभी की सभी अपराध आधारित फिल्में हैं ‘‘जो जीता वही सिकंदर’’ को छोड़ कर। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया गया कि पिछले कुछ दशक में यह अपराध और अपराधी को ग्लोरीफाई करने वाली फिल्मों का ट्रेडीशन-सा बनता जा रहा है। इधर जो फिल्में आईं उनमें अंडरवल्र्ड और गैंगस्टर की दुनिया के इर्दगिर्द बनीं ‘‘गॉड मदर’’, ‘‘वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई’’, ‘‘सरकार’’, ‘‘वास्तव’’, ‘‘शूटआउट एट लोखंडवाला’’, ‘‘शूटआउट एट वडाला’’, ‘‘हसीना’’, ‘‘काठियावाड़ी’’, ‘‘डी कंपनी’’ आदि बनीं। इनमें से कुछ तो बाकायदा खलचरित्रों की बायोपिक थी जो उनके संघर्ष से ज्यादा गलत मार्ग से दबदबा बनाने का रास्ता सुझाने वाली प्रतीत होती थीं। इस तरह की फिल्मों में जिस तबके के युवा दर्शकों को सबसे अधिक दिलचस्पी रहती है, उनके लिए ये फिल्मों गलत प्रेरणा देने वाली साबित होने के पूरे खतरे रहे हैं।
फिल्म रणवीर कपूर अभिनीत ‘‘एनीमल’’ में ‘‘कबीर सिंह’’ की तरह साइको पात्र हीरो के स्थान पर है। जिसकी हरकतों को देख कर मन में जुगुप्सा उत्पन्न होने लगेगी। यह पात्र ‘‘कबीर सिंह’’ से भी कई हाथ आगे है। ऐसे पात्र को हीरो की तरह पेश करने के पीछे निर्माता-निर्देशक की क्या संदेश देने की मंशा है, यह समझ पाना कठिन है। पिछले कुछ दशक में बाॅलीवुड में ऐसी फिल्में आईं जिनमें मनोरोगी व्यक्ति को हीरो के रूप में प्रस्तुत किया गया।

अनुराग कश्यप की ‘‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’’ को भारतीय सिनेमा की सबसे हिंसक फिल्म कहा गया था। लेकिन निर्देशक संदीप रेड्डी वांगा ने हिंसा का अपना ही पिछला रिकार्ड तोड़ते हुए ‘‘एनिमल’’ पेश कर दिया। जी हां, ‘‘कबीर सिंह’’ संदीप रेड्डी वांगा की ही फिल्म थी जिसमें एक साइको डाॅक्टर नशे और यौनसंबंध का पागलपन तक आदी है। अपने इस पागलपन के सामने उसे अपने पिता की आयु के व्यक्ति की भी परवाह नहीं रहती है और न ही एक डाॅक्टर के नाते अपने मरीज की परवाह करता है। ऐसे अजीबोगरीब कैरेक्टर को फिल्म के अंत तक खींचतान कर नायक का दर्जा दिलाया जाता है। अब ‘‘एनिमल’’ का हिंसा से भरा कथानक है जिसके लिए इसे अभी तक की की सबसे वायलेंट फिल्म कहा जा रहा है। ऐसा पात्र जो अपने पिता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सम्य समाज के सारे नियम तोड़ जानवर बन जाता है।
कहानी फ्लैशबैक से आरम्भ होती है जिसमें वृद्ध हीरो अपने अतीत के बारे में सोचता है। अतीत में वह एक ऐसा बालक था जो अपने पिता से अटूट प्रेम करता था। पिता के प्रेम में बचपन से ही उसने नियम तोड़ने शुरू कर दिए थे। जैसे पिता को जन्मदिन की शुभकामनाएं कहने के लिए वह अपने स्कूल से भागर कर पिता के पास जाता है। मगर पिता को अपने बिजनेस से फुर्सत नहीं रहती है। वह पिता का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए हिंसा अपनाने लगता है जिससे पिता-पुत्र के बीच की दूार कम नहीं होती, बल्कि और बढ़ जाती है।
युवा होते साइको विजय (रणबीर कपूर) की एक ही धुन है कि वो किसी तरह अपने पिता का अटेंशन हासिल करे और उन्हें प्रभावित कर सके। मगर उसकी हिंसक वृत्ति और हरकतें उसे पिता से दूर करती जाती हैं। विजय नाम का यह बालक एक दिन कॉलेज में पढ़ने वाली अपनी दीदी के साथ रैगिंग करने वालों को सबक सिखाने के लिए मशीनगन चला देता है। तब उसका पिता उसे हॉस्टल भेज देता है। उसका जीजा ने उसके पिता के बिजनेस एम्पायर को हड़प लेता है। वह जीजा के साथ अभद्रता करता है। तब तक वह स्वयं को सबसे शक्तिशाली पुरुष यानी अल्फा मेल समझने लगता है। अपने प्रभाव के मद में वह नायिका की मंगनी तुड़वा कर उसे लेकर विदेश चला जाता है और उससे विवाह कर लेता है। दो बच्चों क पिता बनने के बाद विजय को पता चलता है कि उसके पिता को गोली मार दी गई है तो वह भारत वापस आता है और हिंसा का तांडव शुरू कर देता है। हिंसक और विक्षिप्त पात्र के रोल को रणबीर कपूर ने भले ही अच्छे ढंग से निभाया हो लेकिन हीरो के रूप में इस पात्र का औचित्य समझना कठिन है। एक फिल्म रिव्यूवर के अनुसार-‘‘मार-काट के दृश्यों में जहां उनकी वहशत झलकती है, वहीं रोमांटिक दृश्यों में वे इरॉटिक अंदाज में दिखते हैं।’’

फिल्म ‘‘एनिमल’’ को ‘‘ए’’ सर्टीफिकेट के दायरे में रखा गया है। हमारे देश में जहां विदेशी फिल्मों पर सख़्ती से सेंसर किया जाता है, वहीं अपने देश की फिल्मों को उन्हीं प्रसंगो पर छूट दे दी जाती है। विदेशी फिल्म के चुंबन दृश्य आपत्तिजनक लगते हैं लेकिन हिरोईन का अश्लीलता की हद तक जा पहुंचने वाला आईटम डांस सेंसर की कैंची से बच निकलता है। जिन शब्दों को टेलीविजन पर विदेशी फिल्मों से ‘‘बीप’’ कर दिया जाता है, वे ही शब्द बाॅलीवुड की फिल्मों में धड़ल्ले से छोड़ दिए जाते हैं। फिल्म ‘‘मस्ती’’ और उसके सीक्वेल्स तो अधिकांश लोगों को याद होंगे क्योंकि वे आज भी टेलीविजन के चैनल्स पर आराम से दिखाए जाते हैं।
आज जब हम ‘‘जय श्रीराम’’ जैसे मर्यादा पुरषोत्तम के नाम के अभिवादन को प्रयोग में लाते हुए प्रसन्न होते हैं और शांति का अनुभव करते हैं वहीं, ‘‘एनिमल’’ जैसी हिंसक, इरोटिक फिल्म के जरिए युवाओं को क्या सिखाना चाहते हैं? यही कि बड़ों से कैसे अभद्रता की जाए? स्त्रियों को किस तरह उपभोग की वस्तु समझा जाए? या फिर हर समस्या का समाधान रक्त की नदी से हो कर ही निकले? जब हम अमेरिका के शहरों की ऐसी घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं या सुनते हैं कि नाबालिग आयु के छात्र ने पिस्तौल या राईफल से अपने ही क्लास के बच्चों को गोलियों से भून दिया तो हम उस विकसित देश के विकास और खुलेपन को कोस कर तसल्ली कर लेते हैं। लेकिन यदि ‘‘एनिमल’’ से प्रभावित हो कर कोई युवा ऐसी ही हरकत अपने देश में कर बैठेगा तो हम किसे कोसेंगे? सामाजिक वातावरण यू भी कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं। आए दिन बलात्कार और अपहरण की घटना घटित होती रहती हैं। ऐसे में किसी साइको पात्र को महिमामंडन के साथ प्रस्तुत करना भला कहां तक उचित है? यदि हर नागरिक भारतीय संविधान को ताक में रख कर अपना-अपना संविधान निर्धारित करने लगेगा तो कानून व्यवस्था का तो पूरा सत्यानाश हो जाएगा। जो व्यवस्था पशु समाज में प्रचलित है उसे मानव समाज पर आरोपित किया जाने लगे तो पशुओं और इंसानों में अंतर ही कहा रह जाएगा? हजारों साल में विकसित हुई सभ्यता चकनाचूर हो जाएगी।

अब प्रश्न उठता है कि हमारी भारतीय फिल्मों में ऐसे विपरीत चरित्र के पात्रों को नायक क्यों बनाया जाता रहा है, जिसकी संख्या अब और अधिक बढ़ गई है। बीच में कुछ अच्छे कथानकों वाली फिल्में भी आईं जैसे मिल्खा सिंह, धोनी आदि की बायोपिक, पैडपैन, बजरंगी भाईजान आदि। लेकिन ‘‘हसीना’’ काठियावाड़ी’’ जैसी फिल्मों ने बीच-बीच में झटके भी दिए। यहां समझना होगा कि परिस्थितिजन्य अपराध और साइको अपराध में भी बारीक अन्तर होता है। परिस्थितिजन्य अपराध में सुधरने की गुंजाइश रहती है लेकिन साइको अपराध में अपराधी के सुधरने में संदेह रहता है। क्योंकि साइको अपराधी का मस्तिष्क अपराध के प्रति ही आकृष्ट रहता है। ऐसा व्यक्ति हिंसा को ही अपने सभी मसलों के हल मान लेता है। रहा सवाल फंडिग का तो ‘‘डी कंपनी’’ जैसी फिल्म के लिए कोई ‘‘डी टाईप’’ इंसान फंडिग कर भी सकता है लेकिन ‘‘एनिमल’’ के लिए धन उपलब्ध करा कर समाज और सभ्यता से भला कौन खिलवाड़ करना चाहेगा? अब क्या बाॅलीवुड हर कीमत की सनसनी को हर कीमत पर बेचने का ट्रेंड सेट करना चाहता है? यदि ऐसा है तो यह बात वाकई चिंताजनक है। या फिर यह ओटीटी पर मिली हुई छूट का साईड इफैक्ट तो नहीं है जिसके मुकाबले हिंसा और विक्षिप्तता को पैसा कमाने का माध्यम बनाया जा रहा हो?
गैंगस्टर वाली अपराध कथाओं के फिल्मांकन के ट्रेडीशन से साइको अपराध के ट्रेंड तक आ पहुंचना कोई अच्छा संकेत नहीं है। ‘‘एनिमल’’ के हीरोइज्म को ट्रेंड बनने से रोकने के लिए सरकार, दर्शकों, निर्माताओ, निर्देशकों तथा स्वयं अभिनेताओं को भी लगाम कसनी होगी। बाॅलीवुड के स्वर्णिम इतिहास को भी यूं ग्रहण नहीं लगने दिया जा सकता है।       
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