Friday, December 1, 2023

चर्चा प्लस | स्वतंत्रतापूर्व किए गए वे प्रयास जिसने बदल दिया स्त्रियों का जीवन | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
स्वतंत्रतापूर्व किए गए वे प्रयास जिसने बदल दिया स्त्रियों का जीवन
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       राजनीतिक स्तर पर स्त्रियों को आरक्षण दिए जाने की पैरवी की जाती है लेकिन क्या इससे बेहतर यह नहीं है कि स्त्रियों और बालिकाओं को एक अच्छा वातावरण मिले, एक सुरक्षित माहौल मिले? आज स्त्रियों के प्रति होने वाले अपराधों में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। क्या हमारे आज के प्रयास स्वतंत्रतापूर्व के प्रयासों के मुकाबले कमजोर और खोखले हैं जो स्त्रियों के प्रति सामाजिक सोच में पर्याप्त सुधार नहीं हो पा रहा है। तो चलिए देखते हैं स्वतंत्रतापूर्व के उन प्रयासों को जिन्होंने स्त्रियों के जीवन में उल्लेखनीय परिवर्तन लाया।
भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा इतनी खराब कभी नहीं रही जितनी कि विदेशी हमलावरों के यहां आ कर अधिकार कर लेने के बाद हुई। जिन स्त्रियों को संकट से जूझने के लिए तैयार करने और आत्मरक्षा के तरीके सिखाए जाने चाहिए थे, उन्हें अपने जीवन से पलायन करने का रास्ता दिखाया गया। चाहे सती प्रथा हो या जौहर की प्रथा, उसे जीवन से पलायन ही कहा जाएगा। संभवतः और भी कई सदियों तक स्त्रियों को इन कुरीतियों को ढोते रहना पड़ता यदि कुछ समाज सुधारकों द्वारा दृढ़तापूर्वक प्रयास नहीं किए जाते।  
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में स्त्रियों की दशा सुधारने की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण प्रयास किए गए। इन प्रयासों में भारतीय समाजसेवियों के साथ ही अंग्रेज सुधारकों का भी योगदान था। फ्रांसीसी क्रांति के बाद योरोपीय देशों में स्त्री जागरूकता का तेजी से विस्तार हुआ जिसका प्रभाव ब्रिटिश शासित देश पर भी पड़ा। भारत में स्त्री उद्धार की शुरुआत स्त्री-शिक्षा के प्रसार और सती प्रथा के विरोध के रूप में हुई। सन् 1815 ई. में राजा राममोहन राय ने स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए सबसे पहले सार्वजनिक बहस छेड़ी। इसके साथ ही उन्होंने सतीप्रथा पर चोट करते हुए एक लेख प्रकाशित कराया। अंग्रेज सुधारकों ने सतीप्रथा को ‘पशुता’ की संज्ञा प्रदान की और इसे मनुष्यता विरोधी कहा। इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य पंडित मृत्युंजय विद्यालंकार ने तर्क दिया कि सती प्रथा की कोई शास्त्रीय मान्यता नहीं है। सन् 1818 में बंगाल के तत्कालीन गवर्नर लार्ड विलियम बैंटिक ने  समूचे बंगाल में सती प्रथा पर रोक लगा दी। सन् 1829 में जब वे भारत के गर्वनर जनरल बने तो उन्होंने सती प्रथा उन्मूलन एक्ट पास करते हुए देश में सती प्रथा को अवैधानिक एवं आपराधिक कृत्य घोषित किया। लज्जा की बात यह थी कि सन् 1830 में रूढ़िवादी हिन्दुओं ने कलकत्ता में एक धर्म सभा की स्थापना की और सती प्रथा उन्मूलन एक्ट के विरोध में याचिका प्रस्तुत की। इसका परिणाम यह हुआ कि सती प्रथा एक्ट में ‘स्वैच्छिक’ और ‘बलात्’ सती का विभाजन किया गया। ‘स्वैछिक’ सती होने को अवैधानिकता से छूट मिल गई।
इससे पूर्व राजा राममोहनराय को अपनी भाभी को सती होते देखना पड़ा था जिसका उनके मन में अपार क्षोभ था। इस घटना के बाद ही उन्होंने ‘ए कान्फ्रेन्स बिटविन एन एडवोकेट फाॅर एन्ड एन अपोनेन्ट टू दि प्रैक्टिस आफ बर्निंग विडोज़ अलाइव’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने यह सिद्ध किया कि विधवा स्त्री के सती होने का कोई प्राचीन पौराणिक प्रमाण नहीं है और यह कहीं नहीं लिखा है कि विधवा स्त्री को सती होना चाहिए। राजा राममोहन राय की इस पुस्तक के विरोध में 128 पंडितों ने एक घोषणापत्र जारी करते हुए पुस्तक में दिए गए तर्क को झूठा बताया।  इसके प्रत्युत्तर में राजा राममोहन राय ने दलील दी कि सती होना स्त्री का वह धार्मिक कृत्य है जो वह आत्मबलिदानी स्वभाव के कारण स्वेच्छा से करना चाहे तो भले ही करे किन्तु उसे सती होने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है। यह तीव्र प्रतिक्रियावादियों के सामने एक कदम पीछे हटने जैसा तर्क था जो पश्चिमी स्त्रियों की तुलना में भारतीय स्त्रियों को आत्मबलिदानी कह कर महिमामंडित किए जाने की धारणा का परिणाम था।
दूसरा प्रयास स्त्री शिक्षा के प्रसार के रूप में सामने आया जब सन् 1810 में अंग्रेजों द्वारा लड़कियों के लिए विद्यालय खोले गए। भारत में स्त्री शिक्षा के प्रसार में इसाई मिशनरियों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। सन् 1827 तक बंगाल के मात्र हुगली जिले में मिशनरियों द्वारा बारह कन्या पाठशालाएं संचालित की जाने लगी थीं। इसाई मिशनरियों को इसाई धर्म फैलाने वाला मान कर बंगाल में हिन्दू और ब्राह्मण कन्या शालाएं आरम्भ की गईं। इस टकराव में जाति एवं आर्थिक भेदभाव की सबसे बड़ी विसंगति उभर कर सामने आई। इसाई मिशनरियों में जहंा निर्धन तथा दलित वर्ग की बालिकाओं के लिए शिक्षा के द्वार खुले हुए थे, वहीं हिन्दू कन्या शालाओं में धनिक एवं उच्चवर्ग की बालिकाएं ही पढ़ सकती थीं।
महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले जिन्हें ज्योतिबा फुले के नाम से भी जाना जाता था, ने पूना में लड़कियों के लिए पहला विद्यालय खोला। सन् 1852 तक ज्योतिबा फुले ने तीन कन्या पाठशालाएं तथा दलितों के लिए एक विद्यालय खोला। ज्योतिबा फुले दलितों और स्त्रियों को सामाजिक अधिकार दिलाने का प्रयास कर रहे थे जिससे उन्हें तीव्र सामाजिक प्रतिरोध झेलना पड़ा। पुरातनपंथी उच्चवर्गीय कट्टर हिन्दुओं को यह सहन नहीं हो पा रहा था कि दलित और स्त्रियां अपने अधिकारों की बातें करें। किन्तु इससे समाज सुधार आन्दोलन थमे नहीं।
    ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा विवाह पर लगे प्रतिबंध को समाप्त करने के लिए सन् 1850 में आंदोलन आरम्भ किया। उन्होंने बांग्ला भाषा में एक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें विधवा विवाह को शास्त्र सम्मत ठहराया। कट्टरपंथियों के विरोध के बाद भी विधवा विवाह आन्दोलन को व्यापक समर्थन मिला। यहां तक कि बंगाल के शांतिपुर के जुलाहे भी समर्थन में उतर आए और उन्होंने कपड़ों में विधवा विवाह के समर्थन  वाली गीत-पंक्तियां बुन दीं। ईश्वचंद्र विद्यासागर ने सन् 1855 में भारत के गर्वनर जनरल को एक याचिका सौंपी जिसमें विधवा विवाह को कानूनी मान्यता दिए जाने का आग्रह किया। उच्चवर्ग के कट्टरपंथियों द्वारा इसका तीव्र विरोध किया गया और इसे सभी हिन्दू मान्यताओं के लिए चुनौती के रूप में माना। अंगे्रजी शासक भी उस समय भारतीय समाज के उच्चवर्ग को रुष्ट नहीं करना चाहते थे। अतः सन् 1856 में जो विधवा विवाह कानून लागू किया गया उसे समाज सुधारकों ने ‘मुर्दा पत्र’ की संज्ञा दी। परिणामस्वरूप कानून लागू होने के बाद चालीस वर्ष में मात्र पांच सौ विधवाओं के विवाह हुए। इस कानून में एक पेंच सम्पत्ति के अधिकार को लेकर था। विधवा स्त्री के विवाह के बाद उसे अपनी पूर्व सम्पत्ति से वंचित होना पड़ सकता था।
दयानन्द सरस्वती ने बलपूर्वक कहा कि आर्य-भारत में बहुपत्नी प्रथा, बाल विवाह, विधवा स्त्रियों के बहिष्कार जैसी कोई प्रथा थी ही नहीं। उन्होंने बालिका शिक्षा का भी समर्थन किया।
उन दिनों बालिकाशिक्षा का अर्थ था कि बालिकाएं पाक कला, सिलाई-कढ़ाई और सेवा-सुश्रुषा में निपुण हो जाएं। किन्तु ज्योतिबा फुले ने परिवार के इस तथ्य पर जोर दिया कि यदि स्त्री को बहुमुखी शिक्षा दी जाए तो परिवार के बच्चे भी बहुमुखी शिक्षा के प्रति आकृष्ट हो सकेंगे।  
दूसरी ओर मुस्लिम समाज में सर सैयद अहमद खान ने सुधार का बीड़ा उठाया। उन्होंने मुस्लिम स्त्रियों के लिए शिक्षा की पैरवी की किन्तु इसके साथ ही उनका कहना था कि स्त्रियों को घर में रह कर शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
सन् 1870 के दशक में समाज सुधार आन्दोलन स्पष्ट रूप से दो गुटों में बंट गया। एक गुट वह था जिसमें ब्राह्मण समाज सुधारक थे और दूसरा गुट गैरब्राह्मण समाज सुधारकों का था। गैरब्राह्मण समाज सुधारक जातीय भेदभाव का खुलकर विरोध करते थे। इसी क्रम में ज्योतिबा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसके अंतर्गत विधवा विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया गया। इसकी एक विशेषता यह भी थी कि विवाह सादगीपूर्ण होते थे तथा गैरब्राह्मण पुरोहितों द्वारा कराए जाते थे। इन विविध प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि उन्नीसवीं सदी के अंत में तथा बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में कई महिला समाज सुधारक सामने आईं। रमाबाई, स्वर्णकुमारी देवी, सरलादेवी चैधरानी, भगिनी निवेदिता, सुशीला देवी, मैडम भीकाजी रुस्तमजी कामा, एनी बेसेंट आदि ने स्त्री-उद्धार की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए। लोग परम्परागत ढांचे से बाहर निकलकर सोचने लगे, महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया जाने लगा। 1917, 1926 और 1927 में क्रमशः भारतीय महिला संघ, भारतीय महिला परिषद व अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना हुई तथा स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मुद्दों पर विचार किया गया। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों को लागू करने के लिए 1950 में संवैधानिक उपाय किये गए।
जो रास्ता स्वतंत्रतापूर्व बनाया गया, उसी पर चलते हुए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्त्रियों के हित में कई महत्वपूर्ण कानून बन सके। भारत में संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग’ शब्द से प्रारम्भ है, जिसका अर्थ है - स्त्री और पुरुष को समानता का दर्जा दिया गया। इस ‘हम’ में स्त्री एवं पुरुष दोनों शामिल हैं।  संविधान का लक्ष्य नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय विश्वास और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देना है। यह बन्धुता को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्र की एकता आश्वस्त करती है। भारतीय संविधान में मूल अधिकारों के सन्दर्भ में महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण प्रावधान किये गये हैं। फिर भी आज स्त्रियां स्वयं को असुरक्षित अनुभव करती हैं। स्त्रियों को सुरक्षित माहौल देने के लिए एक बार फिर सामाजिक सोच में बुनियादी परिवर्तन जरूरी है।  
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