Wednesday, December 6, 2023

चर्चा प्लस | डाॅ. अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस (6दिसम्बर) पर विशेष | बाबा साहब के जीवन में विशेष महत्व रखने वाली स्त्रियां | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
डाॅ. अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस (6दिसम्बर) पर विशेष:
  बाबा साहब के जीवन में विशेष महत्व रखने वाली स्त्रियां
  - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
       डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल’ के जरिए स्त्रियों को समान अधिकार और संरक्षण दिए जाने की पैरवी की। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि स्त्रियों को संपत्ति, विवाह-विच्छेद, उत्तराधिकार, गोद लेने का अधिकार दिया जाए। स्त्री का विवाह की उसकी मर्जी के बिना न किया जाए। स्त्रियों को पढ़ने का भरपूर अवसर दिया जाए। ऐसे स्त्री-अधिकारों के पक्षधर डाॅ. अम्बेडकर के जीवन को भी कुछ स्त्रियों ने प्रभावित किया था। डाॅ. अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के अवसर पर यहां प्रस्तुत हैं मेरी पुस्तक ‘‘डाॅ. अम्बेडकर का स्त्रीविमर्श’’ का एक अंश।
डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने अपने जीवन में स्त्रियों के हित की रक्षा करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कदम उठाए। उनके इन कदमों के पीछे वे स्त्रियां मौजूद थीं जिन्होंने जाने-अनजाने डाॅ. अम्बेडकर के जीवन को प्रभावित किया। उनमें जीवनदायिनी मां भीमाबाई, बुआ मीराबाई, सौतेली मां जिजाबाई, प्रथम पत्नी रमाबाई प्रमुख थीं।

       जीवनदायिनी मां भीमाबाई - डाॅ. अम्बेडकर की मां भीमाबाई वाक्चातुर्य की धनी, सुन्दर, सुशील और धर्मपरायण थीं। वे अत्यन्त स्वाभिमानी थीं। रामजी सकपाल अपने अल्प वेतन से पैसे बचाकर भीमाबाई के पास भेजते थे जो पूरे परिवार के लिये पर्याप्त नहीं था। परिवार के खर्चों को पूरा करने के लिये भीमाबाई ने सान्ताक्रूज में सड़क पर बजरी (कंकड़-पत्थर) बिछाने की मजदूरी का काम करना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद भाग्य ने करवट ली और रामजी सकपाल की योग्यता को पहिचान कर उन्हें पूणे के पन्तोजी विद्यालय में पढ़ने का अवसर दिया गया परीक्षा पास करने के उपरान्त उन्हें फौजी छावनी के विद्यालय में अध्यापक का पदभार सौंपा गया। शीघ्र ही उन्हें प्रधान अध्यापक बना दिया गया। वे लगभग चौदह वर्ष तक प्रधान अध्यापक रहे। जिससे उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती गयी। इस बीच भीमाबाई ने तेरह संतानों को जन्म दिया जिनमें सात संताने ही जीवित रहीं, शेष का बचपन में ही निधन हो गया था।
भीमाबाई बहुत अधिक व्रत-उपवास करती थीं। साथ ही उनकी बीमारी का सही निदान न होने के कारण स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा। रामजी सकपाल का स्थानांतरण अलग-अलग छावनियों में होता रहता था। महू (मध्यप्रदेश में इन्दौर के निकट) में रहते समय रामजी सकपाल और भीमाबाई ने कामना की कि उनका एक ऐसा पुत्र उत्पन्न हो जो दीन दुखियों की सेवा करे। भीमाबाई की यह प्रार्थना शीघ्र ही फलीभूत हुई और उन्होंने 14 अप्रैल 1891 को एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम भीमराव रखा गया। भीमराव को अपनी मां का स्नेह अधिक समय तक नहीं मिल पाया। अस्वस्थता के कारण भीमाबाई का निधन हो गया।
भीमराव अपनी मां को ‘बय’ कह कर पुकारते थे। उन्हें अपनी मां से अगाध स्नेह था। मां की मृत्यु के उपरान्त भी वे अपनी ‘बय’ को कभी भुला नहीं सके। स्वाभिमान, दृढ़ इच्छाशक्ति और किसी भी संकट का साहस के साथ सामना करने का गुण भीमराव को अपनी मां भीमाबाई से मानो अनुवांशिक रूप में मिला था। यह गुण भी उन्हें अपनी मां से ही मिला था कि कोई भी काम छोटा नहीं होता है। ये सारे गुण भीमराव को जीवन में सतत आगे बढ़ाते रहे।

    बुआ मीराबाई - मीराबाई डाॅअम्बेडकर की बुआ थीं। वे उत्साही होने के साथ परिवार-प्रबंधन में निपुण थीं। दुर्भाग्यवश उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं था। पति से अनबन के कारण उन्हें मायके में अपने छोटे भाई रामजी सकपाल के साथ रहना पड़ रहा था। भीमराव की मां भीमाबाई का निधन होने के बाद मीराबाई ने भीमराव को मां की कमी नहीं होने दी। भीमराव के प्रति उनका अगाध स्नेह था। मीराबाई अत्यंत मितव्ययी थीं। किन्तु बालक भीमराव को यही लगता था कि बुआ के पास पर्याप्त पैसा है। इसीलिए जब भीमराव के मन में विचार आया कि कुली का काम कर के वे परिवार को इच्छित सहयोग नहीं कर सकते हैं और उन्हें मुंबई जा कर मिल में काम करना चाहिए, तो उन्हें मुंबई जाने के लिए धन की आवश्यकता का अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि बुआ जिस बटुवे को हमेशा अपनी कमर में खोंसे रहती हैं, उसमें अवश्य इतना पैसा निकल आएगा कि वे उस पैसे से मुंबई पहुंच जाएंगे। वे बुआ से पैसे मांग कर अपने मुंबई जाने का इरादा प्रकट नहीं करना चाहते थे। अतः उन्होंने बुआ के बटुए से चुपचाप पैसे निकालने का निश्चय किया। रात को भीमराव और उनके बड़े भाई बुआ की दाईं-बाईं ओर सोते थे तथा यह क्रम बदलता रहता था। जिस रात भीमराव बटुवे की ओर सोए, उन्होंने चुपके से बटुवा खोल कर देखा। बटुवे में झाँकते ही वे सन्न रह गए। बटुवे में मात्र दो पैसे थे। भीमराव का यह भ्रम टूट गया कि बुआ के पास पर्याप्त पैसे हैं। वे सोच में पड़ गए कि इतने कम पैसों में बुआ इतने सारे सदस्यों का लालन-पालन कैसे कर रही हैं? उन्हें अपने किए पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने मुंबई जाने का निश्चय छोड़ कर पढ़ाई में मन लगाने का निश्चय किया। उन्हें लगा कि पढ़-लिख कर ही वे परिवार का सहारा बन सकते हैं। इस घटना के बाद भीमराव के व्यक्तित्व का कायाकल्प हो गया। पढ़ाई के प्रति उदासीन रहने वाला बालक पढ़ाई के प्रति समर्पित हो गया। जो शिक्षक पहले भीमराव के ठीक से न पढ़ने की शिकायत उनके पिता से करते रहते थे, वे अब भीमराव की बुद्धिमानी को देखते हुए उन्हें आगे पढ़ाने का आग्रह करने लगे। यह परिवर्तन बुआ मीराबाई के मितव्ययी स्वभाव और ममत्व के कारण हुआ।

  सौतेली मां जिजाबाई - भीमाबाई की मृत्यु के बाद डाॅ. अम्बेडकर के पिता रामजी सकपाल ने दूसरा विवाह जिजाबाई से किया। जिजाबाई विधवा थीं। जिजाबाई भी रामजी सकपाल के प्रति पूर्ण समर्पिता रहीं। किन्तु बालक भीमराव को उस समय अपनी सौतेली मंा पर बहुत क्रोध आता था जब वे उनकी ‘बय’ अर्थात् मां भीमाबाई के कपड़े और जेवर पहन लेती थीं। एक बार त्यौहार के अवसर पर जिजाबाई ने भीमाबाई के कपड़े-जेवर पहन लिए। यह देख कर उन्हें अपनी सौतेली मंा पर बहुत क्रोध आया। वे अपनी सौतेली मंा जिजाबाई से झगड़ा करने लगे। उसी समय रामजी सकपाल घर आ गए। उन्होंने झगड़े का कारण पूछा तो बालक भीम ने कारण बता दिया। यह सुन कर पिता ने भीमराव को ही डांट दिया। इस पर भीमराव को लगा कि उन्हें स्वयं पैसे कमाने होंगे। इसीलिए उन्होंने ढोर चराए, खेत पर काम किया और तो और कुली का भी काम किया। यद्यपि इसके बाद उनके ज्ञानचक्षु खुल गए और वे समझ गए कि यदि वे परिवार की सहायता करना चाहते हैं तो उन्हें अध्ययन में मन लगाना होगा।
आयु के बढ़ने के साथ-साथ भीमराव अपनी सौतेली  मां  जिजाबाई के मनोविज्ञान को समझते गए और वे उनके चिड़चिड़े स्वभाव को अनदेखा कर उन्हें सदा मान-सम्मान देते रहे। यहां तक कि जिजाबाई की मृत्यु के शोक में डूबे होने के कारण उन्होंने नवम्बर 1997 में दलित वर्ग द्वारा आयोजित सम्मेलन में भाग नहीं लिया।

           पत्नी रमाबाई - डाॅ. अम्बेडकर जब मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की तभी उनके विवाह के लिए योग्य लड़की की खोज शुरू कर दी गई। उनके लिए रामीबाई को पसन्द किया गया। उस समय रामीबाई नौ साल की थीं और भीमराव सोलह साल के थे। विवाह के बाद रामीबाई का नाम बदल कर रमाबाई रखा गया। रमाबाई बचपन से ही शांत स्वभाव की थीं। वे मितव्ययी और सहनशील भी थीं। मैट्रिक उत्तीर्ण छात्र भीमराव को संविधान निर्माता बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर के स्वरूप तक पहुंचने में रमाबाई के समर्पित सहयोग को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। डाॅ. अम्बेडकर उच्चअध्ययन के लिए अमेरिका गए उन दिनों रमाबाई गर्भवती थीं। शीघ्र ही उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम गंगाधर रखा गया। दुर्भाग्यवश गंगाधर बचपन में ही परलोक सिधार गया। उनके दूसरे पुत्र यशवंत का स्वास्थ्य प्रायः खराब रहता था जिसकी चिकित्सा के लिए वे जूझती रहती थीं किन्तु अपने पति डाॅ. अम्बेडकर के अध्ययनकार्य को बाधित नहीं होने देती थीं। लंदन में अध्ययन के समय डाॅ. अम्बेडकर को अपने मित्र से उधार  मांग कर काम चलाना पड़ा। उस समय भी रमाबाई ने धन की कमी का उलाहना अपने पति को कभी नहीं दिया। उनका प्रयास यही रहता था कि पारिवारिक विषमताओं का प्रभाव डाॅ. अम्बेडकर के जीवन पर न पड़ने पाए और वे निश्चिन्त भाव से अपने महान उद्देश्यों की पूर्ति में संलग्न रहें। रमाबाई के इस समर्पित भाव का डाॅ. अम्बेडकर के जीवन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और वे भारतीय समाज की प्रत्येक स्त्री की जीवनदशा एवं संघर्षों के बारे में गहराई से समझ सके।
     सविता देवी - पत्नी रमाबाई की मृत्यु के उपरान्त डाॅ. अम्बेडकर ने सामाज में जातिगत एकता का आदर्श स्थापित करते हुए ब्राह्मण परिवार की विधवा स्त्री सविता देवी से विवाह किया। सविता देवी सुशिक्षित थीं। पुत्र यशवंत राव के विवाह में डाॅ. अम्बेडकर के सम्मिलित न हो पाने पर सविता देवी ने मां के रूप में विवाह में सहयोग दिया।  वे डाॅ. अम्बेडकर के अंतिम समय तक उनके साथ रहीं तथा उनके कार्यों में उन्हें सहयोग देती रहीं। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम शारदा कबीर था। डाॅ. अम्बेडकर के साथ ही उन्होंने ने भी बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था।
         डाॅ. अम्बेडकर के जीवन से जुड़ी इन सभी स्त्रियों ने प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से उन पर अपना स्थाई प्रभाव डाला। इन स्त्रियों के जीवन और समाज में उनके स्थान तथा उनके कर्तव्यबोध के प्रति डाॅ. अम्बेडकर सदा चिन्तनशील रहे तथा इससे उन्हें समाज में स्त्री की दशा को समझने का पर्याप्त अवसर मिला।       
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