Wednesday, December 27, 2023

चर्चा प्लस | यह समय है विगत के आकलन का | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस  
यह समय है विगत के आकलन का  
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                                                                        
      चंद दिनों में कैलेंडर का पन्ना पलट जाएगा और 2023 के स्थान पर 2024 दिखाई देने लगेगा। यह संकेत होगा कि जीवन का एक साल और गुज़र गया। हमने अपने समय को तारीखों में, कैलेंडरों में बांट रखा है ताकि हम अपने कार्यों को सुनिश्चित कर सकें, उनकी समय आबद्धता तय कर सकें। क्या सचमुच ऐसा कर पाते हैं? क्या वे सब काम जो हमने साल भर में कर लेने का तय किया होता हैं अथवा जिनके साल भर में पूरे हो पाने की हम आकांक्षा रखते हैं, क्या वे पूरे हो पाते हैं? इसी का तो आकलन करने का समय होता है साल का आखिरी माह, आखिरी सप्ताह, आखिरी दिन, आखिरी लम्हा।  
       साल गुज़रा है गुज़र जाएगा
       चंद  मुद्दों   पे   याद आएगा
जब एक पल बहुत कुछ होता है सब कुछ बदल देने को तो एक साल तो बहुत लम्बी अवधि है जिसमें बहुत कुछ बदल सकता है। लेकिन कभी-कभी कुछ चीजें साल भर में भी नहीं बदल पाती हैं। यह आकांक्षित बदलाव दो तरह का होता है- एक तो वह जिसकी हम स्वयं से अपेक्षा रखते हैं और दूसरी वह जिसकी हम दूसरों से अपेक्षा रखते हैं। स्वयं तो एक इकाई होते हैं किन्तु दूसरे कई इकाइयों में बंटे होते हैं। इन ‘दूसरों’ में हमारे परिजन से ले कर जिला प्रशासन और देश की सरकार भी हो सकती है।

चलिए बात शुरू करती हूं खुद से। मैंने वर्ष 2023 के आरंभ में सोचा था कि इस साल कम से कम एक उपन्यास तो जरूर लिख लूंगी। लेकिन सोचा हुआ नहीं कर पाई। लेखन तो निरंतर चलता रहा किन्तु उस दिशा में नहीं जिस दिशा में मैं एकांतिक यात्रा पर निकल जाना चाहती थी। कोई न कोई कारण ढूंढ कर उस पर जिम्मेदारी थोप कर स्वयं को मुक्त कर लेना आसान होता है। मैं भी कई कारण ढूंढ सकती हूं उपन्यास नहीं लिख पाने के। लेकिन इससे क्या होगा? जो काम होना चाहिए था, वह तो नहीं हो पाया और 365 दिन निकल गए। फिर भी इस मुद्दे को ले कर मुझे पछतावा नहीं है क्योंकि मैंने कोशिश की थी। हर बार मुझे लगा कि कथानक वह आकार नहीं ले रहा है जो उसे लेना चाहिए, तो मैंने उसे बार-बार रद्द किया। मैं मानती हूं कि रद्दी परोसने की अपेक्षा रद्द कर देना कहीं अधिक उचित होता है। हां, यहां यह बात जरूर है कि यदि यह कमिटमेंट खुद के बजाए किसी और से होता तो शायद मैं और कामों को कुछ समय के लिए स्थगित कर के कथानक का सही आकार गढ़ लेती।
सरकारी योजनाएं और सरकारी कामों में भी यही सब कुछ होता है। योजना, समय सीमा, कमिटमेंट और गुणवत्ता। एक वर्षीय, द्विवर्षीय अथवा पंचवर्षीय योजनाएं क्यों बनाई जाती हैं? इसीलिए न कि एक निर्धारित समय सीमा में काम पूरे किए जा सकें। जो वादे या कमिटमेंट जनता से किए गए हैं उन्हें गुणवत्ता के साथ पूरे किए जा सकें। लेकिन अफ़सोस कि जब से पंचवर्षीय योजनाओं की परिपाटी आरम्भ हुई है, अनेक कार्य ऐसे हैं जो पांच साल के निर्धारित समय में पूरे नहीं हो पाए। कुछ कमिटमेंट ऐसे निकले जिनके लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का दस वर्ष का समय निर्धारित था लेकिन राजनीति के हत्थे चढ़ कर संशोधनों के द्वारा उनका समय निरंतर बढ़ाया जाता रहा है। अर्थात् जो कार्य दस वर्ष में हो सकता था वह दस दशक में भी पूरा नहीं हो पा रहा है। अपनी बनाई समय रेखा को अपनी सुविधा के लिए लांघना आसान जो होता है। खैर, बड़ी-बड़ी बातें छोड़ कर अपने शहरों, गांवों और कस्बों की ओर आते हैं। इस ओर नज़र दौड़ाते ही स्व. दुष्यंत कुमार का यह शेर याद आने लगा है-
कहां तो तय था चराग़ां हरेक घर के लिए
 कहां  चराग़  मयस्सर नहीं शहर के लिए

इस ‘‘चराग़ां’’ को महज़ इलेक्ट्रीफिकेशन से मत लीजिए। यह विकास का वह आग्रह है जिसे पाने का अधिकार देश के हर नागरिक को है। हर नागरिक चाहता है कि उसे बिजली, पानी, रहने और खाने की सुविधा मिले। पहनने को कपड़े मिलें और एक सुरक्षा का वातावरण मिले। एक ऐसा वातवरण जिसमें उनके घर के बच्चे, महिलाएं अकेले निकलें ओर घूम-फिर का सुरक्षित घर लौटें। क्या यह सुरक्षित वातावरण अभी तक हमें मिल सका है? न ढाई साल की बच्ची सुरक्षित है और न सत्तर साल की महिला। घर का पुरुष जो अपने घर की महिलाओं और बच्चों की सुरखा के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानता है, आज लाचार दिखाई देता है क्योंकि उसका मुकाबला किसी सड़क चलते लफंगे से नहीं बल्कि ह्यूमेन ट्रेफिकिंग वालों अथवा संगठित गुंडा तत्वों से रहता है, जिनके सामने उसका टिक पाना संभव ही नहीं है। सन् 2023 में न तो रेप थमें और न गैंगरेप। जघन्य हत्याएं भी जारी रहीं और चोरी, मार-पीट भी। यह कोई एक शहर या एक क्षेत्र का मामला नहीं है, बल्कि पूरे परिवेश का मामला है।

   ‘विकास’ बहुत अच्छा और आकर्षक शब्द है। इस विकास को ‘स्मार्टनेस’ से जोड़ कर देखा जाने लगा है। ‘स्मार्टनेस’ भी अच्छी बात है, बशर्ते वह वास्तविकता में हो। काग़ज़ो पर तो बहुत कुछ होता है। काग़ज़ों पर लिखें पर विश्वास तभी होता है जब उसे चरितार्थ होते अपनी आंखों से देखते हैं। कुछ दशक पहले तक ‘‘महाभारत’’ का वह प्रसंग जिसमें मिट्टी के घड़ों में कौरवों के जन्म होने की बात लिखी है, हमें कपोलकल्पित लगती थी। पर जब हमारे समय की दुनिया की पहली टेस्टट्यूब बेबी ने जन्म लिया तो हमें ‘‘महाभारत’’ के पन्नों पर लिखी उस घटना पर विश्वास होने लगा। भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण के समय कृष्ण के द्वारा उसकी रक्षा करने की घटना पर हमें अभी भी विश्वास हमारे धर्म की सीमा तक ही होता है, जहां हम कृष्ण को ईश्वर मानते हैं। इसका कारण सिर्फ़ इतना है कि आज भरी सड़क में किसी स्त्री की अस्मत पर हाथ डालने वाले को रोकने अथवा उस स्त्री की सहायता करने वाला कोई दिखाई नहीं देता है। जिस दिन ऐसे लोग दिखाई देने लग जाएंगे, उस दिन ‘‘महाभारत’’ की उस घटना पर भी हमें यथार्थ बोध होने लगेगा। फिलहाल तो यही संशय तैरता रहता है कि ऐसी वास्तविकता कभी देखने को मिलेगी या नहीं?
कुछ पल ठहर कर सोचिए, विचारिए कि वर्ष 2023 में आपके शहर, गांव, कस्बे में कितने काम पूरे हो जाने चाहिए थे, पर पूरे नहीं हुए। वर्ष 2023 में ही कितनी सड़कें खोद कर छोड़ दी गई हैं, कितने तालाब गहरीकरण एवं सफाई की बाट जोह रहे हैं और कितनी नालियां खुली पड़ी हैं? वर्ष 2023 में कई राज्यों में पूरी की पूरी सरकार बदल गई, मंत्री बदल गए मगर शहर, गांव, कस्बे के हालात उतने नहीं बदले जितने बदल जाने चाहिए थे। यह हर शहर का मसला है कि यातायात पर कोई व्यवस्था अधिक दिन नहीं टिक पाती है। सड़कों को स्मार्ट यानी चौड़ी और खूबसूरत बना देने भर से सब कुछ नहीं सुधर सकता है। उन सड़कों पर गाड़ी दौड़ाने वालों, अचानक सड़क पार करने वालों में ट्रे्रेफिकसेंस जगाना भी जरूरी है। भले ही वह दण्ड के द्वारा ही क्यों न हो। वर्ष 2023 में नगरीय क्षेत्रों में सड़क दुर्घटनाएं कम नहीं हुईं। इसका एक कारण यह भी है कि सड़कों को आवारा पशुओं से छुटकारा अभी तक नहीं मिला है। इसलिए ट्रे्रफिक नियमों का पालन करने वाला व्यक्ति भी उस समय दुर्घटना का शिकार हो जाता है जब अचानक कोई आवारा पशु उसके अथवा उसकी गाड़ी के सामने आ जाता है। क्या सड़कों के सारे नियम मात्र यातायात सप्ताह के लिए सुरक्षित रहते हैं? उस सप्ताह या पखवारे के बाद सड़क पर आवारापशु चाहे डिस्को करें या वाहनचालक हिपहाॅप करें, सबको क्या पूरी छूट रहती है? दरअसल हम हर गुज़रते साल के साथ यातायात का कोई सबक नहीं लेते हैं। किसी दुर्घटना के बारे में सुनते या पढ़ते हैं तो यह नहीं सोचते हैं कि हताहतों में कभी हमारा नंबर भी आ सकता है, यदि अव्यवस्था या लापरवाही इसी तरह चलती रही। नाबालिग बच्चे सड़कों पर बाईक दौड़ाते हैं। इसके लिए सबसे पहले जिम्मेदार तो वे माता-पिता और अभिभावक होते हैं जो अपने नाबालिग बच्चों को बाईक सौंप देते हैं। वे न केवल अपने बच्चों का जीवन दांव पर लगाते हैं बल्कि राह चलने वाले अन्य लोगों के जीवन से भी खिलवाड़ करते हैं। वर्ष 2023 में ऐसी कई दुर्घटनाएं हुईं जिनमें वाहन नाबालिग युवा चला रहे थे।
   हवाओं को देखो तो क्या हो गया है
   ये तेवर नया  और  रुख भी नया है

यह सदियों पुरानी कहावत है कि ‘‘पुरुषों के दिल का रास्ता उनके पेट से हो कर गुज़रता है।’’ यानी यदि पुरुषों को भरपेट अच्छा खाना खाने को मिल जाए तो वे महिलाओं की बातें खुशी-खुशी मान लेते हैं।  यह हमारी संस्कृति की नहीं पाश्चात्य संस्कृति की कहावत है लेकिन मज़ाक के तौर पर हमारे देश में भी कही-सुनी जाती रही है। ठीक इसी फार्मूले को थोड़ा फेर बदल कर के वर्ष 2023 में गंभीरता से आजमाया गया महिलाओं पर। विशेष यह कि महिलाओं पर यह फार्मूला जम कर फलप्रद साबित हुआ। विश्वास न आए तो ‘‘लाड़ली बहना योजना’’ जैसी योजनाएं देख लीजिए। वर्ष 2023 में राजनीति ने यह सबक सीख लिया कि ‘काम के बदले अनाज’ जैसे फार्मूले की जगह ‘घर बैठे चंद रुपए पकड़ा देना’ अधिक कारगर साबित होता है। आखिर पेट की खातिर ही तो सारे प्रयास किए जाते हैं तो फिर यह फार्मूला हिट क्यों नहीं होता? राजकोष पर पड़ने वाले भार और निट्ठल्लेपन की प्रवृत्ति में ईजाफ़े की भला किसे पड़ी है? क्या इन दोनों परिस्थितियों को नए साल में सही तरीके से सम्हाला जा सकेगा? वह भी लोकसभा चुनाव के बाद?

वर्ष 2023 खिलाड़ियों के लिए नरम-गरम रहा। बात यदि राष्ट्रीय स्तर की करें तो कहीं हमने रिकार्डतोड़ पदक लिए तो कहीं फुटपाथ पर पदक रखने की नौबत आ गई। निशानेबाजी आदि खेलों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह हमारे खिलाड़ियों ने पदक बटोरे उसने साबित कर दिया कि यदि लगन हो तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है। वहीं महिला पहलवानों का मामला वर्ष भर से अधिक लम्बा खिंचा और परिणाम अभी भी अनिश्चित है। यह तो दबे स्वर में हमेशा कहा जाता रहा है कि कुछ कोच महिला खिलाड़ियों के साथ अनुचित व्यवहार करते हैं। फिर जब साक्षी जैसी ओलम्पिक खिलाड़ी ने ‘‘मीटू’’ की भांति खुल कर आवाज उठाई और कई खिलाड़ियों ने उसका समर्थन किया तब भी सरकार एवं खेल प्रशासन के द्वारा लम्बे समय तक चुप्पी साधे रखी गई। मानसिक त्रासदी से गुजरते खिलाड़ी अपना अमूल्य मैडल वापस करके अपना विरोध जताने पर विवश हो गए और कुछ ने तो अपना मैडल फुटपाथ पर छोड़ कर अन्याय के विरुद्ध रोष जताया। यह मसला 2023 में ही समाप्त नहीं हुआ है। 2024 को भी इस क्षोभ भरे पहलू को देखना होगा। साथ ही देखना होगा उस छोटे शहरों और कस्बों की ओर भी जहां नवोदित खिलाड़ी अभी अपने पर तोल रहे हैं। हम उन्हें उड़ने के लिए कैसा आसमान देने जा रहे हैं, इस भी नज़र रखनी होगी।

     यदि मैंने साहित्य की बात नहीं की तो यह अनुचित होगा। वर्ष 2023 साहित्य के लिए मिलाजुला वर्ष रहा। कुछ अच्छी किताबें आईं तो कुछ सामान्य। हमेशा ही ऐसा होता रहा है। अच्छी बात यह है कि उपन्यास और यथार्थ लेखन के क्षेत्र में थ्रिलर और सस्पेंस कथा ने फिर अपनी जगह बना ली है। इधर लगातार संजीव पालीवाल, मुकेश भारद्वाज, संजय सिंह जैसे कुछ ख्यातिनाम लेखकों ने थ्रिलर को हिन्दी पाठकों के हाथों में एक बार फिर लाया। इन्होंने इब्नेसफी, जेम्स हेडली चेईज़ और सुरेन्द्र मोहन पाठक के लेखन की यादें ताज़ा करा दीं। जिन युवा पाठकों ने पुराने लेखों को नहीं पढ़ा है उन्हें इस बात का अहसास दिलाया कि हिन्दी में भी बेहतरीन थ्रिलर लिखा जा सकता है। बाकी अन्य धारा का लेखन, प्रकाशन यथावत रहा।  
तो मित्रो, अब अगले साल यानी 2024 में भेंट होगी जब हम एक बार फिर नए संकल्पों के साथ परस्पर मिलेंगे और नई आशाओं को पल्लवित करेंगे। तब तक के लिए विदा!
   नए साल में फिर नई बात होगी                
   नई सुबह  होगी,  नई रात होगी  
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