Tuesday, December 5, 2023

पुस्तक समीक्षा | प्रेमचंद की कथा-परंपरा का स्मरण कराता उपन्यास: ‘‘मुक्तिधाम’’ | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

प्रस्तुत है आज 05.12.2023 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई युवा उपन्यासकार कार्तिकेय शास्त्री के उपन्यास "मुक्तिधाम" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा      
प्रेमचंद की कथा-परंपरा का स्मरण कराता उपन्यास: ‘‘मुक्तिधाम’’         
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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उपन्यास    - मुक्तिधाम
लेखक      - कार्तिकेय शास्त्री
प्रकाशक     - नोशन प्रेस डाॅट काॅम
मूल्य        - 199/-
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क्या है प्रेमचंद की कथा परंपरा? यह प्रश्न बार-बार उठता है जब कोई कथाकार कहता है कि वह प्रेमचंद की कथापरंपरा का अनुसरण कर रहा है। वस्तुतः यह कोई इतना कठिन प्रश्न नहीं है कि जिसका उत्तर न दिया जा सके। किन्तु प्रेमचंद की परंपरा को निर्वाह करना अवश्य कठिन है क्योंकि प्रेमचंद की कथा-परंपरा उन विचारों पर आधारित है जिन्हें हम संक्षेप में मानवीय-मूल्य कहते हैं। समाज के दलित, शोषितसमुदाय के पक्ष में पैरवीकार लेखन ही है प्रेमचंद कथापरंपरा। इस परंपरा का अनुसरण करते हुए एक युवा कथाकार ने अपना पहला हिन्दी उपन्यास लिखा है। उपन्यास का नाम है ‘‘मुक्तिधाम: पीड़ा में अनंत मैन की गाथा’’ और उपन्यासकार हैं कार्तिकेय शास्त्री। हिन्दी में उनका यह पहला उपन्यास वस्तुतः उनका दूसरा उपन्यास है। उनका पहला उपन्यास अंग्रेजी में था -‘‘दी नाईट आउट’’।
       एक युवा कथाकार। अपनी मातृभूमि से हजारों मील दूर दुबई में कार्यरत। लेकिन उसका मन में हर समय समाई रहती हैं अपने देश की स्थितियां और वातावरण। युवा उपन्यासकार कार्तिकेय के लेखन ने मुझे उनके पहले उपन्यास से ही प्रभावित किया था। कार्तिकेय का पहला उपन्यास - ‘‘दी नाईट आउट’’ । बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाले कुछ दोस्तों कुछ दोस्तों के नाईट आउट पर निकलने का खिलंदड़ा-सा कथानक। यद्यपि वह उपन्यास मामूली नहीं था, उसमें युवाविमर्श का गहरा रंग था। वर्तमान युवा जगत का गंभीर मनोविज्ञान था। उस उपन्यास को पढ़ कर सहजता से जाना जा सकता है कि आज का युवा कैसा जीवन जी रहा है तथा कैसा जीवन जीना चाहता है? यह उन्यास अंग्रेजी में था। ईमानदारी से कहूं कि उस उपन्यास को पढ़ने के बाद मुझे कार्तिकेय शास्त्री की रचनात्मक खूबियों का अनुमान तो हो गया था किन्तु यह नहीं सोचा था कि वे अपना अगला उपन्यास अपनी मातृ भाषा हिन्दी में लिखेंगे। जैसा कि आज कल कार्पोरेट जगत से जुड़े युवा कथाकारों का रुझान आंग्ल भाषा की ओर रहता है क्योंकि वह उनके लिए दैनिक जीवन से जुड़ी उनके लिए आसान भाषा होती है। दूसरी बात यह कि उन्हें लगता है कि वे एक ग्लोबल भाषा में साहित्य रच कर जल्दी ही वैश्विक स्तर पर छा जाएंगे। यद्यपि यह उनका सरासर भ्रम होता है। क्योंकि अगर रचना को कालजयी बनाने का श्रेय भाषा को ही होता तो कालिदास अथवा प्रेमचंद की कभी कोई वैश्विक पहचान नहीं होती। किसी भी रचना को वैश्विक बनाता है उसका कथानक एवं उसकी आत्मस्पर्शी शैली।
      अपने प्रथम उपन्यास के लोकार्पण के लिए कार्तिकेय शास्त्री के भारत (सागर) आने पर जब मेरी उनसे भेंट हुई थी तो उन्होंने चर्चा के दौरान बताया था कि उन्होंने जब प्रेमचंद की एक कहानी पढ़ी थी तो वे चकित रह गए थे। उन्हें देश का वह दृश्य दिखाई दिया था जो उनके लिए जाना-पहचाना तो था लेकिन उसके मर्म से वे परिचित नहीं थे। फिर उन्होंने कथाकार प्रेमचंद का और साहित्य पढ़ा। वे जितना पढ़ते गए, उतना प्रभावित होते गए। यह क्रम ‘‘दी नाईट आउट’’ के पहले का था। प्रेमचंद उनके मन-मस्तिष्क में समा गए किन्तु उन्होंने ‘‘दी नाईट आउट’’ पहले लिखा। शायद इसलिए कि उसका कथानक उनके जीवन के बहुत कंरीब था। शायद वे उस कथानक के साथ स्वयं को अधिक ‘कम्फर्टेबल’ अनुभव कर रहे थे। उनके इस निर्णय का परिणाम यह रहा कि ‘‘द नाईट आउट’’ के आज के युवाओं के यथार्थ के विवरण को सभी ने सराहा और उस दस्तक को सहर्ष स्वीकार किया जो कार्तिकेय ने अपने पहले उपन्यास के द्वारा साहित्य जगत के दरवाजे पर दी थी। संवेदनाओं की गहरी पकड़, रोचक बयानी और पात्रों से आत्मीय जुड़ाव कार्तिकेय के कथाकर्म की विशेषताएं हैं। ये सारी विशेषताएं उनके इस दूसरे तथा हिन्दी में पहले उपन्यास में शब्दशः मौजूद हैं।
        इसमें कोई संदेह नहीं कि कार्तिकेय ने प्रेमचंद के पात्रों को अपने उपन्यास में पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। यह आवश्यक भी है क्योंकि प्रेमचंद के पात्र आज भी समाज में मौजूद हैं और अपनी विडम्बनाओं को अथक झेल रहे हैं। जब हम समाचारपत्रों में पढ़ते हैं कि महाराष्ट्र या मध्यप्रदेश में सूखे और कर्जे के कारण किसी किसान ने आत्महत्या कर ली है तो हमें सहसा प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ के होरी, धनिया, गोबर याद आ जाते हैं। ‘पूस की रात’ आंखों के सामने कौंध जाती है। तब महसूस होता है कि किसानों की परिस्थितियां उतनी नहीं बदली हैं जितनी बदल जानी चाहिए थीं। ग्रामीण अंचल में तो दशा बदतर ही है। शोषित वर्ग आज भी शोषण का शिकार बना हुआ है। वस्तुतः आज उसके शोषित होने के लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। क्योंकि जिसमें प्रतिरोध का साहस नहीं है वह, शोषण का शिकार होगा ही। ऐसे ही शोषित पात्र मिलेंगे कार्तिकेय शास्त्री के इस उपन्यास ‘‘मुक्तिधाम’’ में। इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जहां जीवन के अंत के बाद अस्तित्व का समापन होता है अर्थात् मुक्तिधाम में ठीक वहीं से कथानक का वास्तविक उद्देश्य धनुष टंकार की ध्वनि के समान गूंजता है। जिसकी झंकार देत तक विचारों को झंकृत करती रहती है। उपन्यास को पढ़ते हुए कई स्थानों पर यह स्मरण नहीं रह जाता है कि हम किसी नवोदित उपन्यासकार की कृति पढ़ रहे हैं। एक सधा हुआ कथानक, मंजी हुई शैली। पात्रों की सटीक प्रस्तुति। लेखक के रचनाकर्म के प्रति आश्वस्ति जगाता है यह उपन्यास।
      प्रेमचंद ने हिन्दी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया जिसने हिन्दी साहित्य को विषयगत विस्तार दिया तथा कथा साहित्य द्वारा समाज को समझने का एक नया दृष्टिकोण दिया। प्रेमचन्द का कथा साहित्य जितना तत्कालीन परिस्थितियों पर खरा   उतरता है, उतना ही वर्तमान परिवेश में भी प्रतिबिम्बित होता है। प्रेमचंद की रचनाओं में गरीब   श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्रण मिलता है। ‘सद्गति’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’   और ‘गोदान’ में मिलता है। ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ के किसान आज भी गांवों में देखे   जा सकते हैं। प्रेमचंद का वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए   ‘‘नवाब राय’’ के नाम से कहानी लिखना आरम्भ किया। जब सरकार ने उनका पहला कहानी  संग्रह ‘सोजे वतन’ ज़ब्त कर लिया,  तब उन्हेांने प्रेमचंद के नाम से कहानियां लिखनी आरंभ कीं।  प्रेमचंद के लेखन से जुड़ी यह घटना बड़ी दिलचस्प है कि जब वे गोरखपुर में थे तो वहां में बुद्धिलाल नाम के पुस्तक विक्रेता से उनकी मित्रता हो गई। वे बुद्धिलाल की दूकान की कुंजियां स्कूलों में बेचने लगे और बदले में उन्हें उसकी दूकान से उपन्यास घर ले जा कर पढ़ने को मिल जाते थे। इस प्रकार दो-तीन वर्ष तक वे लगातार उपन्यास पढ़ते रहे। इसी दौर में उन्हें अहसास हुआ कि उपन्यास में भारतीय ग्रामीण सच्चाई का अभाव है, जो कि कथा साहित्य में प्रमुखता से आना चाहिए। इसीलिए प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में शोषण, रूढ़ियों, अंधविश्वास, कुरीतियों आदि पर कठोर प्रहार किया और मानवीय संवेदना को आधार त्तव के रूप में समाहित किया।  
                         हर युग की समस्याएं और जटिलताएं अलग अलग होती हैं। इसी तरह हर व्यक्ति  अपनी परंपरा का अभिन्न और अविच्छिन्न अंग है, लमही और सागर के ग्रामीण अंचल की समस्याएं समपीड़ा का बोध कराती हैं। लमही के प्रेमचंद अगर होरी की पीड़ा को देखते हैं तो सागर के कार्तिकेय हरि की त्रासदी को अपने शब्दों में बांधते हैं। प्रेमचंद यदि धनिया साहस और संघर्ष को लिपिबद्ध करते हैं तो कार्तिकेय प्रेमिला की जीवटता को मुखर करते हैं। दरअसल, कार्तिकेय प्रेमचंद के लेखन से प्रभावित ही नहीं अपितु तादात्म्य स्थापित कर चुके हैं अतः वे आज के समाज में प्रेमचंद के पात्रों की उपस्थिति का अन्वेषण करते हैं तथा यथास्थिति उन्हें सामने लाते हैं। यह लेखक की खूबी है कि वह पाठकों को अपने साथ ले कर चलने में सक्षम है। पाठक इस उपन्यास से गुजरते हुए नौ रस का अनुभव करेगा। वह हरि के भोलेपन और नासमझी पर हंसेगा, उसके प्रेम को देख कर आह्लदित होगा, उसके समर्पण को देख कर प्रसन्नता का अनुभव करेगा और उसके संघर्ष को देख कर विषाद की लहरों में डूब जाएगा। गोपाल, मुंशी जैसे खलपात्र उसे क्रोधित करेंगे तो वहीं, चिकित्सालय परिसर के अमानवीय व्यवहार जुगुप्सा से उसका साक्षात्कार कराएंगे। अर्थात् पाठक जीवन के नौरस के साथ चलवित्र की भांति घटनाओं को अपनी आंखों के सामने घटित होते हुए अनुभव करेगा। हरि, गांव का सफाई कर्मचारी है जो अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है। उसकी पत्नी, प्रेमिला, शारीरिक शोषण का शिकार होती है। यह एक इंसान की पीड़ा की, विवशता की पराकाष्ठा है। इस उपन्यास में अनेक छोटी-बड़ी घटनाएं हैं जो पात्रों के पाश्र्व में ले जा कर खड़ा कर देंगी, चौंकाएंगी, हंसाएगीं, रुलाएंगी और बार-बार सोचने पर विवश करेंगी कि हम यह किस तरह के समाज में जी रहे हैं। आद्योपांत पढ़ लेने पर भी उपन्यास के कथानक कई-कई दिनों तक मन को आलोड़ित करता रहेगा और यह अनुभव कराएगा कि आप एक सशक्त उपन्यास के पन्नों से हो कर गुज़रे हैं।  
        कार्तिकेय शास्त्री ने अपने उपन्यास में लेखक ने निम्नवर्ग एवं निम्न-मध्यम वर्ग की दशा को बड़ी बारीकी से रेखांकित किया है। प्रेमिला जैसे स्त्रीपात्र एक अलग स्त्रीविमर्श रचते हैं। संघर्ष के नाना रूप उपन्यास में आए हैं जो आंदोलित करते हैं। साथ ही लेखक की गहरी संवेदनशीलता से भी परिचित कराते हैं। कार्तिकेय शास़्त्री का शैक्षिक एवं कार्यक्षेत्र हिन्दी माध्यम का नहीं है किन्तु पारिवारिक वातावरण ने उन्हें हिन्दी से सतत जोड़े रखा है। इसीलिए उनकी भाषाई पकड़ यदि अलंकारिक नहीं तो कमजोर भी नहीं है। उन्होंने आम बोलचाल की भाषा को चुना है। यह आम पाठकों के लिए सुविधाजनक है। बेशक उपन्यास का शिल्पपक्ष कहीं-कहीं शिथिल हो गया है तथा कुछ विसंगतियां भी हैं किन्तु कथानक सशक्त है। किसी भी युवा कथाकार के पहले उपन्यास में उससे बहुत अधिक आशाएं रखना भी उचित नहीं है क्योंकि साहित्य जब जीवन के अनुभवों अथवा अनुभवों की निकटता से हो कर गुज़रता है तो धीेरे-धीरे और अधिक सशक्त होता जाता है। साथ ही यह अकाट्य सत्य है कि साहित्य में ‘‘परफेक्शन’’ को ले कर हर व्यक्ति का अपना अलग दृष्टिकोण होता है। विशेष यह है कि यह उपन्यास अपने पीछे कई प्रश्न छोड़ जाता है जिनमें सबसे बड़ा प्रश्न है कि हम 21 वीं सदी में ‘विश्वगुरु’ बनने का सपना देखते हैं लेकिन हमारे अपने समाज और व्यवस्था में एक बड़ा वर्ग शोषण और उपेक्षा का जीवन जीने को विवश है, यह स्थिति आखिर कब सुधरेगी? यह प्रश्न समाज को आत्मावलोकन करने का तीव्र आग्रह करता है। ‘‘मुक्तिधाम’’ अर्थात् श्मशान, यानी वह स्थान जो जीवन के थम जाने का साक्ष्य-स्थल होता है, यह उपन्यास उस अंतिम स्थल को प्रतीक बना कर जीवन को संवारने का रास्ता प्रस्तावित करता है। ‘‘मुक्तिधाम’’ को पढ़ने के बाद कार्तिकेय शास्त्री के भीतर उपस्थित कथाकार में प्रबल संभावनाएं स्पष्ट अनुभव की जा सकती हैं। यह भी आशा की जा सकती है कि आगे चल कर वे हिन्दी कथा साहित्य में अपनी एक अलग पहचान बनाएंगे।  
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