प्रस्तुत है आज 26.12.2023 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई लेखक आर.के.तिवारी के लघुकथा संग्रह "कौन है वहां?" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
‘‘कौन है वहां? ’’ : लघु कथाओं का संवेदनशील संसार
- समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
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कहानी संग्रह - कौन है वहां?
लेखक - आर. के. तिवारी
प्रकाशक - एनडी पब्लिकेशन, बाधापुर ईस्ट, नई दिल्ली -110044
मूल्य - 150/-
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एक बार कथासम्राट प्रेमचंद से किसी ने पूछा था कि आप कहानिया क्यों लिखते हैं? तो उन्होंने बड़े शांतभाव से उत्तर दिया कि ‘‘मैं समाज को उसकी वास्तविकता से मिलवाना चाहता हूं और इसके लिए मुझे कथालेखन सही माध्यम लगता है।’’ बड़े मार्के की बात कही थी प्रेमचंद ने। वस्तुतः हम सभी समाज का हिस्सा हैं, चाहे लेखक के रूप में हो या पाठक के रूप में अथवा साहित्य से विरत रहने वालों के रूप में। मसला ये है कि हम समाज के यथार्थ को देख कर भी अनदेखा कर देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के इसके अपने कारण हो सकते हैं लेकिन उन कारणों के पीछे छिप कर यदि हम समाज की विद्रूपता को अनदेखा करते हैं तो इसका अर्थ है कि हम स्वयं को धोखा देने का प्रयास करते हैं। एक सजग कथाकार इसी समाज से कथानक चुनता है और उसे कहानी के रूप में रेखांकित कर के सबसे सामने रखता है। कथाकार आर.के. तिवारी की लेखनयात्रा सेवानिवृत्ति के उपरांत शुरू हुई और एक भजन संग्रह के बाद उनका पहला उपन्यास आया ‘‘करमजली’’। समीक्षकों की सहमति-असहमति के बीच रास्ता बनाते हुए इस उपन्यास ने लेखक को पहचान दी। यहीं से आरम्भ हुई आर.के. तिवारी की कथालेखन यात्रा। सबसे अच्छी बात यह है कि वे निरंतर सृजनरत हैं। उपन्यास, कहानियां, लघुकथाएं आदि निरंतर लिख रहे हैं। उनकी सृजन की इस निरन्तरता ने उनके लेखन को मांजा है। उनका सद्यः प्रकाशित लघुकथा संग्रह है ‘‘कौन है वहां?’’।
‘‘कौन है वहां?’’ संग्रह का यह नाम जिज्ञासा जगाता है। विशेष रूप से इस समय जब हिन्दी साहित्य जगत में थ्रिलर उपन्यासों का दौर फिर आ गया है। यही कारण है कि मैंने सबसे पहले इसी शीर्षक की कहानी को पढ़ा। सस्पेंस जगाने वाली यह कहानी रहस्य, रोमांच वाली थ्रिलर नहीं है। अपराध कथा भी नहीं है। किन्तु इस कहानी में जो कुछ है वह कम रोमांचित करने वाला नहीं है। यह एक समाज विमर्श की ऐसी कहानी है जो समाज के पीड़ित तबके से साक्षात्कार कराती है। वैसे कहानी एक सस्पेंस से ही शुरू होती है जब एक व्यक्ति खाली रखी सीमेंट पाईप के पास से गुज़रता है और उसे अचानक एक आहट सुनाई देती है। वह भयभीत हो जाता है। लेकिन जब एक पाईप से से कुछ लोग बाहर आते हैं तो उन्हें देख कर, उनकी बातें सुन कर वह व्यक्ति एक सामाजिक सच को अपनी आंखों से देखता है और महसूस करता है। यह लघुकथा आकार में लघु होते हुए भी वृहद वैचारिक संसार समेटे हुए है। इस कहानी को पढ़ कर व्यक्ति सोचने पर विवश हो जाएगा कि यह हम कैसे समाज में रह रहे हैं? ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा कहां खो गई है?
लेखक आर.के. तिवारी की कहानियों में सामाजिक विसंगतियों एवं असंतुलन के विविध आयाम देखे जा सकते हैं। इस संग्रह की कहानियों में कथाकौशल का चमत्कार भले न हो किन्तु परिपक्व कथानक हैं। शिल्प की सादगी लिए ये कहानियां पाठकों की चेतना को झकझोरने में सक्षम हैं। ‘‘भालू राजा और मुनिया’’ मनुष्य और वन्यपशु के बीच एक कोमल संबंध की सुंदर कहानी है। वहीं ‘‘बरसाती नाला और राजन काका’’ ग्रामीण अंचल की समस्या को सामने रखते हुए मानवता का गहन पाठ पढ़ा देती है। ग्रामीण अंचल में आज भी ऐसे क्षेत्र हैं जहां बच्चों को स्कूल तक पहुंचने के लिए बिना पुल वाले नदी, नाले पार करने पड़ते हैं। बारिश के दिनों में स्थिति और अधिक गंभीर हो जाती है। ऐसे ही एक गांव की कहानी है यह जहां बच्चों को बरसाती नाला पार कराने वाले राजन काका को बच्चे अचानक खो देते हैं और यह उनके लिए सबसे बड़े सदमें का विषय होता है। एक मात्र सहारे का छिनना किसी के लिए भी त्रासद हो सकता है, फिर बच्चों के लिए तो यह और अधिक दुखदायी साबित होता है।
संग्रह में एक कहानी है ‘‘वह कुम्हार’’। यह प्रश्न हमारे मन में कभी न कभी अवश्य जागता है कि हम माॅल या किसी भी बड़े शोरूम में जा कर कोई मोल-भाव किए बिना सामान की ऊंची कीमत चुका देते हैं। भले ही हमें मालूम होता है कि इसमें शोरूम चार्ज वसूला जा रहा है जिसका उस वस्तु की लागत या उसके असल मुनाफे से कोई लेना-देना नहीं है। उस पल हम सब जानते, समझते हुए भी ऊचे दाम चुकाने के गर्व के साथ खरीददारी कर लेते हैं। वहीं जब हम किसी फुटपाथ के छोटे दूकानदार के पास पहुंचते हैं तो उससे जमकर मोल-भाव करते हैं। यदि वह हमारे मनचाहे दाम पर सामान देने से मना कर देता है तो हम उसे कोसने से नहीं चूकते हैं। मानो धनी को और धनी बनाना और ग़रीब को लूटना हमारा किरदार हो। यह कटु सत्य लेखक ने ‘‘वह कुम्हार’’ कहानी में प्रस्तुत किया है। कहानी की विशेषता यह है कि इसमें इस लूट का पश्चाताप करने का रास्ता भी सुझाया गया है। अर्थात् अपनी अंतर्रात्मा में झांकने का आग्रह करती है यह कहानी।
‘‘आत्मग्लानि’’ पारिवारिक रिश्तों की बुनावट की कहानी है। घर में नौकरीपेशा पति की तुलना में सेवानिवृत्त ससुर की बहू द्वारा अवहेलना की जाती है। कमउम्र बेटी भी अपनी मां के इस व्यवहार को देखती है और समझने का प्रयास करती है। फिर वहीं अपने पिता के सामने अपनी मां के व्यवहार की सच्चाई कह कर आईना दिखा देती है। पारिवारिक रिश्तों की टूटन के इस दौर में यह कहानी रिश्तों को अपनत्व और गरिमा के साथ निभाने की बात करती है। रिश्ते परिवार के ही नहीं, पड़ोस के भी होते हैं। यह कहा भी जाता है कि संकट आने पर रिश्तेदार तो देर से आ पाते हैं, पहले पड़ोसी ही काम देता है। ऐसे ही पड़ोस के रिश्ते की चर्चा है कहानी ‘‘पड़ोसन मौसी’’ में। एक महिला जो बच्चों में मौसी के नाम से लोकप्रिय थी, वह वस्तुतः मोहल्ले में किसी की कुछ नहीं थी। एकाकी जीवन जीने वाली मौसी पडोसियों की अवहेलना की शिकार रहती है। उसके बीमार पड़ने पर कोई उसकी खोज-खबर नहीं लेता है। जब लोगों को अपनी गलती का अहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। यह कहानी हमें उस महानगरीय कथित सभ्यता की ओर ले जाती है जो गंावों में भी पांव पसारती जा रही है और लोगों के बीच बेगानापन बढ़ता जा रहा है।
‘‘उसे मेरी ज़रूरत थी और मुझे उसकी’’ यह कहानी जिस कथानक को ले कर चली है वह लगभग अछूता है। यूं तो यह एक मकान मालकिन और उसके किराएदार की कहानी है। किन्तु इस कहानी का मूल मानवता की रेशमी तंतुओं से बुना हुआ है। मकान मालकिन अपने बच्चों का पेट भरने के लिए कमरा किराए से देने को विवश थी, वहीं दूसरी ओर किराएदार अपनी सीमित आर्थिक क्षमता के अनुरूप किराए का कमरा पाना चाहता था। मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर चलते हुए दोनों परस्पर एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। निरा मानवता का रिश्ता, और कुछ भी नहीं। काश, लोग कमज़ोर व्यक्ति की विवशता का लाभ उठाने के कुत्सित प्रयास छोड़ देते और इस कहानी के पात्रों की भांति मानवता की दृष्टि से सोचते तो यह समाज आज संवेदनाओं की कमी से न जूझ रहा होता। सामाजिक परिदृश्य स्वस्थ और प्रसन्नता भरा होता।
‘‘कुछ मत कहो उन्हें बुरा लग जाएगा’’ सवा इक्कीस लाईनों की लघुकथा है, पर यह बताती है कि उचित समय पर यदि कोई बात नहीं कही जाए, मात्र इस झिझक से कि कहीं उन्हें बुरा न लग जाए, तो इसका परिणाम पछतावे के सिवा और कुछ नहीं होता है। यदि हमें किसी व्यक्ति या किसी संबंध के संदर्भ में कुछ गलत लग रहा है तो इस बारे में ठीक उसी समय आगाह कर देना सही होता है। भले ही उस समय उस व्यक्ति को सच सुनना बुरा लगे किन्तु बाद में उसे इस बात की तसल्ली होगी कि किसी गलत रिश्ते से बंधने से पहले ही उसे बचा लिया गया। और कह देने वाला भले ही उस समय बुरा बने किन्तु बाद में उसे खुद भी पछतावे का सामना नहीं करना पड़ेगा।
पिछले कुछ दशक में शहरों का विस्तार हुआ है और अत्याधुनिक सुविधाओं के नाम पर वर्षोंं पुराने पेड़ों की बलि दी गई है। विगत तीन-चार साल से जब श्राद्धपर्व आता है तो यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि कौवे कहां चले गएं लोग अपने पितरों को अन्नदान करने के लिए कौव्वों को श्राद्धभोग कराना चाहते हैं लेकिन कौव्वे दिखाई ही नहीं देते हैं। इस विषय पर जब मेरी किसी से चर्चा होती है तो मैं उनसे यही कहती हूं कि कौव्वे ऊंचे वृक्षों पर धोसले बनाते हैं। जब हमने बड़े-ऊंचे वृक्ष ही काट डाले यानी उनके घर, उनकी बस्ती ही मिटा डाली तो वे यहां क्यों आएंगे? वृक्षों के काटे जाने और पक्षी प्रजातियों पर आने वाले आवासीय संकट पर आधारित है कहानी ‘‘बसेरा’’। एक किसान के खेत की मेड़ पर एक बड़ा पेड़ और कुछ छोटे पेड़ लगे थे। कहानी में किसान मनुष्यों का प्रतिनिधि है और वे पेड़ जंगल के प्रतिनिधि। किसान अपनी घरेलू जरूरतों के अनुसार पहले छोटे पेड़ों को और फिर बड़े पेड़ की शाखाओं को भी काटता जाता है। उन पेड़ों पर रहने वाले पक्षी बेघर होते जाते हैं। सिर्फ एक पक्षी परिवार बचता है जो बड़े पेड़ की बची चंद शाखाओं के सहारे बसेरा पाए हुए था। किसान और फिर उसकी पत्नी की मृत्यु के साथ ही उनका वह बसेरा भी छिन जाता है। यह एक संदेशप्रद लघुकथा है।
अकसर यह कहा जाता है कि गरीब का कोई महत्व नहीं होता। वह मरे या जिए, उसके लिए दो आंसू बहाने वाला भी कोई नहीं होता है। आपराधिक मनोवृति के संवेदनहीन लोगों के लिए गरीब व्यक्ति शोषण की एक वस्तु मात्र होता है। यदि एक गरीब उनके हाथों समाप्त हो भी जाए तो वे दूसरा शिकार ढूंढ लेते हैं। ‘‘गरीब’’ शीर्षक कहानी इसी दुरावस्था का घटनाक्रम प्रस्तुत करती है। फलों का जूस बेचने वाला एक ठेले वाला दिहा़ड़ी मजदूर की भांति ही होती है। रोज की बिक्री में से उसे परिवार पालना होता है और साथ ही अगले दिन जूस निकालने के लिए फल भी खरीदने होते हैं। ठेला लगाने का किराया तो देना ही पड़ता है। उस पर भी यदि असामाजिक तत्व प्रतिदिन उसके ठेले पर आ कर उससे मुफ्त में जूस पीने लगें तो वह भला क्या कमा पाएगा? उसके लिए परिवार पालना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में वह अवसाद से घिर कर आत्महत्या जैसा कदम उठाने को विवश हो जाए तो इसके लिए दोषी किसे ठहराया जाना चाहिए? किन्तु गरीब की मौत के दोषी तो ढूंढे ही नहीं जाते हैं। किसी हादसे में बहुसंख्यक गरीबों का मरना भी आंकड़ों में तब्दील हो कर रह जाता है। वहीं, उनकी मृत्यु के उत्तरदायी दूसरे गरीबों को अपना शिकार बनाने में जुट जाते हैं।
संग्रह में कुल 51 लघुकथाएं हैं। इन कथाओं से गुज़रते हुए एक बात तो तय हो जाती है कि लेखक ने अपने अनुभव एवं अवलोकन क्षमता का भरपूर उपयोग किया है। समाज के प्रायः छूटे रह जाने वाले पक्षों को बखूबी उठाया है। लेखक आर.के. तिवारी की प्रथम पुस्तक से ही मैं उनके लेखन को निरंतर देख रही हूं और यह देख कर प्रसन्नता होती है कि कथालेखन के प्रति उनमें गहरी लगन है। उनका संवेदनात्मक संसार विस्तार लेता जा रहा है। वे मानवीय संबंधों से ले कर पर्यावरण तक अपनी दृष्टि दौड़ाते हैं। भाषाई पकड़ निरन्तर मजबूत हो रर्ही है। जिसका साक्ष्य है उनका यह लघुकथा संग्रह। कथाकार आर.के.तिवारी संस्कृतनिष्ठ शब्दों के पांडित्य में उलझने के बजाए सरल, सहज शब्दों का चयन करते हैं जिससे उनकी प्रत्येक लघुकथा संवाद करती प्रतीत होती है। इस संग्रह के कलेवर में कोई कमी नहीं है किन्तु यदि कमी है तो मुद्रण की सटीकता की। प्रूफ की गलतियां भूमिका से ही आरम्भ हो गई हैं जो खटकती हैं। अन्यथा समूचा लघुकथा संग्रह एक ऐसा संवेदनशील संसार रचता है जिसमें सामाजिक एवं पारिवारिक चिंतन के अनेक तत्व निहित हैं। आर.के. तिवारी का यह लघुकथा संग्रह पाठकों को निश्चितरूप से पसंद आएगा, साथ ही उन्हें आंदोलित भी करेगा।
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