Tuesday, November 18, 2025

पुस्तक समीक्षा | ये मात्र कहानियां नहीं वरन जीवन की डायरी के पन्ने हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

पुस्तक समीक्षा | ये मात्र कहानियां नहीं वरन जीवन की डायरी के पन्ने हैं | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण
पुस्तक समीक्षा 
ये मात्र कहानियां नहीं वरन जीवन की डायरी के पन्ने हैं
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक      - नानी की डायरी 
लेखिक      - उर्मिला शिरीष
प्रकाशक     - सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, एन-77,पहली मंज़िल, कनाॅट सर्कस, नई दिल्ली-110001
मूल्य       - 550/-
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आधुनिक हिन्दी कथा जगत के परिदृश्य में उर्मिला शिरीष एक प्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ नाम है। उनकी कहानियां मन और जीवन के एक-एक शब्द करीने से सामने रखती हैं जिससे उन कहानियों का पाठक कथानक में स्वयं को ढूंढ निकालता है। यही अच्छी कहानियों की खूबी होती है कि जब पाठक को कहानी अपने जीवनानुभव की कहानी प्रतीत हो। ‘‘नानी की डायरी’’ उर्मिला शिरीष का अद्यतन कहानी संग्रह है जिसे नई दिल्ली के सस्ता साहित्य मण्डल ने प्रकाशित किया है। इस कहानी संग्रह में कुल 13 कहानियां हैं। ‘‘नानी की डायरी’’ संग्रह की सबसे अंतिम कहानी है लेकिन इस कहानी की समसामायिकता एवं सामाजिक सरोकार इस पर सबसे पहले चर्चा करने का आग्रह करते हैं।
‘‘नानी की डायरी’’ एक ऐसी स्त्री की डायरी है जिसका बचपन गांव में व्यतीत हुआ। विवाह के उपरांत ग्रामीण परिवेश में ही चार अक्षर लिखना-पढ़ना सीखा ताकि परदेस में रहने वाले अपने पति की चिट्ठियां पढ़ सके और उसे पत्र लिख सके। उदारमना ससुर ने ही उसे इसके लिए प्रेरित किया था। समय के साथ परिस्थितियां बदलीं। नानी ने डायरी लिखनी आरम्भ की। रोज नहीं, कभी-कभी। उस डायरी में उसने निजी जीवन के अलावा किसान आंदोलन के प्रति अपने दृष्टिकोण को भी लिखा। उस पीड़ा को भी लिखा जो घर के बंटवारे के रूप में उपजी, साथ ही उस अवसाद को भी जो गांव की ज़मीन को बेचने के लिए आए बेटे, पोते आदि के कारण घेरने लगा था। वस्तुतः किसी भी व्यक्ति का जीवन जितना शांत जल की भांति दिखाई देता है, वस्तुतः सतह के नीचे उतनी ही तीव्र हलचल मची रहती है। भीतर ही भीतर भावनाओं की लहरें थपेड़े मारती रहती हैं। ‘‘नानी की डायरी’’ स्त्रीविमर्श के प्रश्न उठाती हुई वृद्ध विमर्श तक जा पहुंचती है तथा पाठक के मन से सीधा संवाद करती है। डायरी शिल्प में लिखी गई अत्यंत प्रभावी कहानी है यह। 
अब बात संग्रह की पहली कहानी की जिसका नाम है ‘‘सत्तर साल का बूढ़ा पेड़’’। विकास के चक्र से यदि सबसे अधिक गरदनें किसी की कटीं हैं तो वे हैं वृक्ष। चाहे शहरों और गांवों का विकास हो या सड़कों की लेन की संख्या बढ़ाई जाए, सबसे पहले पुराने से पुराने वृक्षों पर ही आरियां चलती हैं। ऐसा ही एक सत्तर साल पुराना पेड़ जिसे कहानी की नायिका के पूर्वज ने लगाया था अपनी जन्मभूमि पर अकेला पड़ गया। उसे लगाने वाला परलोक सिधार गया तथा उसके बच्चों ने रोजी-रोटी के सिलसिले में शहरों की ओर रुख किया। उसी परिवार की एक स्त्री को अपनी पुरानी भूमि एवं पुराने पेड़ से लगाव हुआ और वह उसे तथा उस वनभूमि को बचाने चल पड़ी। गांव के लोगों के लिए यह पागलपन भरा कदम था। कुछ-कुछ मायावी भी। जिसे बात को समझना कठिन हो वह मायावी ही लगती है। उस पुराने वृक्ष के प्रति उस स्त्री का लगाव गांव के लोगों के लिए अबूझ था और वहां बस जाने की उसकी हठ मायावी। यह कहानी पर्यावरण संरक्षण की पैरवी करती हुई प्रकृति और मनुष्य के पारस्परिक संबंधों की प्रगाढ़ता का संदेश देती है। उर्मिला जी के कथा लेखन की यह विशेषता है कि वे कहीं भी उपदेशात्मक नहीं होती हैं, वरन इस ढंग से अपनी बात कहती हैं कि पढ़ने वाला स्वयं उससे तादात्म्य बिठा ले।
कहानी ‘‘विलोम’’  एक स्त्री के स्वाभिमान एवं अपनी अस्मिता के प्रति उसकी सजगता को सामने रखती है तो वहीं ‘‘तिकड़म’’ कहानी उस कटु सत्य से साक्षात्कार कराती है जिससे कभी न कभी सभी को किसी न किसी रूप में जूझना ही पड़ता है। पिता की मृत्यु वह आपात स्थिति होती है जो सिर से सुरक्षा का साया तो छीनती ही है, अचानक अनेक मुसीबतों के सामने धकेल देती है। 
‘‘‘‘गुनाह-ए-इश्क़’’ वह मसला है जो बालिग लड़के-लड़कियों को भी प्रेम में पड़ कर विवाह करने की अनुमति नहीं देता है। ऐसे मामलों में सबसे पहले परिजन द्वारा यही घोषण की जाती है कि आज से मेरा बेटा/बेटी मेरे लिए मर गया/गई है। कई बार तो यह भी देखने में आता है कि घर से भाग कर प्रेमविवाह करने वाली बेटी को मृत घोषित कर के धूम-धाम से उसका श्राद्ध भी कर दिया गया। ऐसी ही एक विडबना भरे संघर्ष का विवरण है ‘‘गुनह-ए-इश्क़’’ में। 
‘‘सुयोग्य पुत्रों के नाम’’ और ‘‘जन्मभूमि’’ कहानियां संवेदनाओं को झंकृत कर देने वाली कहानियां हैं। पुश्तैनी मकान, गांव और गांव के परिवेश का मोह हर व्यक्ति को होता है। दरअसल यह सब मात्र भौतिक वस्तुएं नहीं होतीं वरन जीवन की जड़ें होती हैं, भावनाओं की थाती होती हैं और इनमें होती है सरोकारों की एक दीर्घ उपस्थिति। ये दोनों कहानियां पढ़ कर महसूस की जा सकती हैं। 
‘‘बहस के बाहर’’, ‘‘न्याय देवता’’, ‘‘परिंदों का लौटना’’, ‘‘बाबू की पूूजा’’ ब्रेक-अप’’ और ‘‘लालटेन मार्च’’ जीवन के रंगमंच के विविध किरदारों, उनकी चेष्टाओ, आकांक्षाओं, आशाओं, टूटन, बिखराव एवं उम्मींद की वे तस्वीर प्रस्तुत करती हैं जिनमें परंपरा, संस्कार एवं आधुनिकता के बीच के टकराव साफ देखे जा सकते हैं। अतीत एवं वर्तमान जीवन के सारोकारों के अंतर को साफ पढ़ा जा सकता है। ये कहानियां यह भी याद दिलाती हैं कि संबंध विश्वास पर टिके होते हैं। प्रेम में फिजिकल रिलेशन हो या न हों किन्तु यह सबसे पहले मान लिया जाता है कि फिजिकल रिलेशन तो होंगे ही। ‘‘ब्रेक अप’’ कहानी का एक अंश देखिए-
‘‘उसके भी फिजिकल रिलेशन रहे हैं।’’
‘‘वह तो पापा के सामने कसम खाकर कह रही थी कि उसका किसी के साथ कोई प्रेम संबंध नहीं रहा। न कोई फ्रेंड है। मैं वर्जिन हूँ। जब पापा ने उसको बताया कि तुम्हारी दोस्त तुम्हारे बारे में तरह-तरह की बातें कहती है तो वह रो-रोकर कसमें खाने लगी थी।’’
‘‘तब उसने पापा से झूठ बोला था। पापा उसको बेटी की तरह मानते हैं। उसके पापा के साथ पापा की दोस्ती रही है, इसलिए झूठ बोल गई...। पापा ने उसे बचपन से देखा था...।’’
प्रेम संबंधों में सच-झूठ की तह तक उतरे बिना ही हर कोई दरोगागिरी करने लगता है। यह कहानी संबंधों की कोमलता और संकटों को बयान करती है। वैसे विवरण की बीरीकियों को उर्मिला शिरीष इस ढंग से अपनी कहानियों में पिरोती हैं कि कथानक में सौ प्रतिशत दृश्यात्मकता उतर आती है। जैसे उदाहरण के लिए कहानी ‘‘न्याय देवता’’ के इस अंश को लें- ‘‘नंदू भइया का जन्म गांव में हुआ था आजादी के दस साल बाद यानी उन्नीस सी सत्तावन में। आजाद भारत में जन्मे नंदू भइया रंग-रूप, कद-काठी में आम भारतीयों की तरह थे। गेहुँआ रंग, काली आँखें, घुँघराले बाल, पर दुबले-पतले। नंदू भइया ने गाँव में बिताए बचपन को जी भरकर जिया था। कुश्ती लड़ना, तालाब में तैरना। कुएँ से पानी भरना, कसरत करना, बैलगाड़ी चलाना, लकड़ियाँ काटना और इन सबके बीच में पढ़ाई करना। पढ़ाई के पीछे नंदू भइया की प्रेरणा या कहना चाहिए आकर्षण था गाँव में आने वाले अफसरों की गाड़ियों। गाँव के मुखिया या पंचायत अध्यक्ष द्वारा उन अफसरों की जाने वाली आवभगत। उनका रुतबा। नंदू भइया के दिल-दिमाग में ये बात घर कर गई थी कि ये तमाम चीजें रुतबा, मान-सम्मान, अपनी पढ़ाई, अपनी बुद्धि और अपनी मेहनत से पाई जा सकती हैं। इसके लिए न तो पूँजी की जरूरत है न किसी और की सहायता की। बस नंदू भइया के सपनों ने उड़ान भरना शुरू कर दी। वे नियमित रूप से स्कूल जाते। स्कूल क्या एक हॉल भर था जिसमें बच्चे अपने घर से लाई गई चटाई पर बैठते। एक टूटा-फूटा बोर्ड टॅगा रहता था। जिसका इस्तेमाल पढ़ाई-लिखाई के लिए शायद ही कभी होता हो। हाँ, उसके कोनों पर मास्टर जी का गमछा, छोटा-सा थैला और चावियों का गुच्छा जरूर टॅगा होता था। स्लेट-बत्ती, कॉपी और पेंसिल से ही सारी पढ़ाई-लिखाई होती थी। खड़ीपाई, पहाड़े और वर्णमाला मास्टर जी मौखिक रटवाते थे। उनके हाथ में थमी छड़ी को देखकर आधे बच्चे तो डर के मारे हकलाने लगते थे, बिना मास्टर जी के कुछ कहे अपना हाथ आगे बढ़ा देते जिस पर छड़ी की मार गहरे निशान छोड़ देती थी। किताबें शहर से आ जाती थीं। स्कूल का भवन बहुकर्मी भवन था। इसी में पढ़ाई के लिए एक हॉल बना था। जैसे ही गाँव में किसी बड़े परिवार में शादी होती।’’ 
इतना विवरण पढ़ने के बाद कोई भी बता सकता है कि नंदू भैया कौन है? हा घर, हर परिवार में एक नंदू भैया अवश्य होते हैं, बस, देखने की बात यह होती है कि परिजन अथवा लोकजन उनकी खूबियों को पहचान पाते अथवा उन्हें जान पाते हैं या नहीं। 

उर्मिला शिरीष की कथा शैली तो प्रभावी है ही, उनकी भाषा भी सरल, सुबोध एवं आमजन की होती है। साहित्य के नाम पर अनावश्यक अलंकारिकता का बोझ वे अपनी कहानियों पर नहीं डालती हैं जिससे उनकी कहानियां पाठक के करीब बैठ कर उनसे बतियाती हैं। ‘‘नानी की डायरी’’ कहानी संग्रह की भी सभी कहानियां मात्र कहानियां नहीं वरन जीवन के डायरी के पन्ने हैं जिन्हें पढ़ कर जीवन के विविध पक्षों को पढ़ा जा सकता है। इन कहानियों की रोचकता इन्हें बार-बार पढ़े जाने के लिए उकसाती है। इस संग्रह की प्रकाशकीय खूबी यह भी है कि इसे डायरी के आकार में ही प्रकाशित किया गया है जिससे यह देखते ही कौतूहल जगाती है। निःसंदेह यह एक उम्दा कहानी संग्रह है।      
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1 comment:

  1. नानी की डायरी की सुंदर समीक्षा

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