Tuesday, November 4, 2025

पुस्तक समीक्षा | दर्द से ताहिली तक : भावनाओं की पैरवी करती ग़ज़लें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा | दर्द से ताहिली तक : भावनाओं की पैरवी करती ग़ज़लें | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण


पुस्तक समीक्षा
दर्द से ताहिली तक : भावनाओं की पैरवी करती ग़ज़लें
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
ग़ज़ल संग्रह  - दर्द से ताहिली तक
कवयित्री     - सपना ‘क्षिति’
प्रकाशक     -  जवाहर पुस्तकालय हिन्दी पुस्तक प्रकाशक एवं वितरक मथुरा-281001 (उ.प्र.)
मूल्य       - 250/-
---------------------
फारसी से उर्दू और उर्दू से हिन्दी में आई ग़ज़ल विधा को एक देशकालजयी काव्य विधा कहा जा सकता है। जब बात आती है हिन्दी और उर्दू की मिश्रित ग़ज़लों की तो अपने आप कौंधने लगती हैं अमीर खुसरो की हिन्दवी ग़ज़लें। अमीर खुसरो ने अपनी ग़ज़लों के शेरों में प्रथम पंक्ति फारसी में कहा तो दूसरी पंक्ति तत्कालीन हिन्दी में। जैसे-
जे-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज चूँ जुल्फ ओ रोज-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

अमीर खुसरो की इन सूफ़ियाना हिन्दवी ग़ज़लों ने ग़ज़ल विधा को सार्वभौमिक स्वरूप दिया। वर्तमान में हिन्दी ग़ज़लों में उर्दू की प्रचुरता से समावेश भी लिता है, भले ही उसे हिन्दवी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है किन्तु हिन्दी और उर्दू का संतुलित प्रयोग हिन्दी ग़ज़ल के अंतर्गत बहुप्रचलित है तथा मान्य भी है। इस संदर्भ में सपना ‘‘क्षिति’’ की ग़ज़लें हिन्दवी का स्मरण कराती हैं यद्यपि इसका आशय यह नहीं है कि उनकी ग़ज़लें अमीर खुसरो की ग़ज़लों के समकक्ष हैं किन्तु वे आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल विधा में भाषाई सौंदर्य के साथ सामने आती हैं।

यूं तो सपना ‘‘क्षिति’’ को काव्य सृजन की रुचि अपनी अवयस्क आयु से ही थी किन्तु जैसा कि उन्होंने अपने आत्मकथ्य में लिखा है कि विवाह के बाद उनके लेखन पर लगभग प्रतिबंध लग गया। यह बहुतेरी स्त्रियों के साथ हुआ है और होता रहता है कि ससुराल में सहयोग न मिलने से उनकी सृजनात्मकता धुंधली पड़ने लगती है। कई बार तो स्त्रियां अपनी साहित्यिक सृजनात्मकता को भूल कर घ-गृहस्थी की पर्याय बन कर रह जाती हैं। सपना ‘‘क्षिति’’ के साथ भी यही हो रहा था किन्तु उन्होंने विरोधों के समक्ष घुटने नहीं टेके। वे अपने आत्मकथ्य में लिखती हैं कि ‘‘चुनौतियों का सामना मुझे करना पड़ा। गजलों की तरफ मेरा रुझान 2017 से हुआ। उर्दू भाषा मुझे शुरू से ही अपनी ओर आकर्षित करती थी सो मैंने उम्दा गजलकारों को पढ़ना प्रारंभ कर दिया और इस तरह गजलों पर भी अपना हाथ आजमाना प्रारंभ कर दिया। ऐसा नहीं कि मैंने अन्य विधाओं में सृजन करना बंद कर दिया है। मैं आज भी हर विधा में लिखती हूँ। मैं अपनी गजलें या गीत लिखकर धुन बनाकर गाती भी हूँ। मैंने गजलों में मापनी को प्राथमिकता नहीं दी है क्योंकि मेरा मानना है कि यदि गजलों में भावों की भरमार हो तो ही वो दिलों तक पहुँचती हैं उसके लिये मापनी का होना अनिवार्य नहीं है।’’

ग़ज़ल में मापनी की अवहेलना प्रायः नहीं की जाती है अपितु इसे दोषपूर्ण भी माना जाता है। यद्यपि हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू या फारसी मापनी अर्थात मीटर का पालन नहीं किया जाता है फिर भी मात्रिक छंद के स्वभाव को आत्मसात किया गया है। गेय ग़ज़लें मीटर के लिहाज़ से त्रुटिपूर्ण हो कर भी श्रवण में क्षम्य हो जाती हैं किन्तु जब वही ग़ज़लें पारखियों की दृृष्टि से गुज़रती हैं तो उन्हें दोषपूर्ण ठहराए जाने में एक पल नहीं लगता है। सपना ‘‘क्षिति’’ ने अपनी कई ग़ज़लों में मापनी की अवहेलना कर के जोखिम उठाया है किन्तु उनकी ग़ज़लें भावनात्मक दृष्टि से परिपक्व एवं महत्वपूर्ण हैं।

शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह (म. प्र.) के हिन्दी के प्राध्यापक डॉ. कीर्तिकाम दुवे ने ‘‘खामोशी की जुबां’’ शीर्षक से संग्रह की भूमिका में लिखा है कि ‘‘सपना जी का प्रस्तुत गजल-संग्रह ये लगभग 80 रचनायें हैं, उनकी विषय-वस्तु भी बहुत व्यापक है। उनकी हर गजल को पढ़ते हुये मैं नये-नये अनुभव लोक से गुजरा, उन्होंने अपने ज्ञान, अनुभव और भाषा का सुन्दर सामंजस्य किया है। उन्होंने हर भाव को अपने केनवास पर उकेरा है-वे अपनी सच्चाई और साफगोई से बात करने व रखने में माहिर हैं। उनके पास भाषा की बड़ी ताकत है, मैंने अपने जीवन में पहली बार उर्दू और फारसी के इतने शब्दों से परिचय प्राप्त किया, जो मैंने सुने नहीं थे, क्षिति जी के पास हिन्दी-उर्दू का व्यापक शब्द संसार है, वे बाह्य आवरण रदीफ और काफिये को नहीं साधतीं, वे कई गजलों में उसकी आत्मा को छूती हैं। कई जगह उनकी प्रतिभा चमत्कृत करती है, उनकी गजलें दर्शन के कारण शायरी को नया फलसफाप्रदान करती हैं-यह गजल-संग्रह आम पाठक से लेकर दानिश्वरों तक सबको अपनी तरह का सुकूँन देगा। यह गजल के नीचे फुटनोट है, इसलिए क्लिष्ट शब्दों को समझने में दिक्कत नहीं होगी।’’

‘‘दर्द से ताहिली तक’’ की ग़ज़लों में भावनाओं की प्रधानता जीवन को भरपूर जीने का आग्रह करती हैं। कवयित्री सपना ‘‘क्षिति’’ अपने जीवन में जो दुख और विरोध झेले उनसे उन्हें जीने और आगे बढ़ने का माद्दा मिला जो कि उनकी ग़ज़लों में साफ़ देखा जा सकता है। ‘‘ग़ज़ल गुनगुनाओ’’ के रूप में वे संग्रह की पहली ग़ज़ल में ही आग्रह करती हैं कि- 
खुशियों की गजल गुनगुनाओ तुम।
खफा-खफा क्यूँ हो मुस्कुराओ तुम।
उल्फत को लगाके गले जी लो अब,
हसीं खुदाई नेमत को निभाओ तुम।
हों कितनी भी गर्दिशें घबराना नहीं,
चुनौती मान, ना शिकस्त खाओ तुम।

कुछ ग़ज़लें पूरी तरह उर्दू में बयान की गई हैं। जैसे एक ग़ज़ल है ‘‘कशिश’’। ज़िन्दगी को ख़्वाबों और हक़ीकत के बीच ही जिया जाता है इसीलिए कवयित्री अपने ख़्वाबों की चर्चा करती हुई कहती हैं कि-
बड़ी कशिश है मिरे ख़्वाबों में।
नफासत है उनके ही शबाबों में ।
शबो-फजर ये चहकते हैं रहते,
रहते हैं मुकम्मली के रुआबों में ।
कभी संजीदा तो कभी हैं शोख़
दिलकशी है इक उनकी ताबों में ।
मिरी तो हर नफस में ये हैं जी रहे,
जवाब नहीं है इनका जवाबों में।

जमाने का यह चलन है कि कुछ भी अच्छा करने वाले के मार्ग में बाधाएं खड़ी की जाती हैं। उन्हें रोकने और हतोत्साहित करने का यत्न किया जाता है। टोंकाटाकी तो आम बात है। जिसका मसले से कोई सरोकार न भी हो, वह भी टोंकने में कोताही नहीं बरतता है। ऐसे लोगों को नज़रअंदाज़ कर के जीवन जीने का आह्वान करती हैं कवयित्री सपना ‘‘क्षिति’’ -
जहां में कुछ तो लोग कहेंगे ही।
सरगोशियाँ जरूर ये तो भरेंगे ही।
परवाह ना कर जी ले खुलकर,
कयासों के दरिया तो बहेंगे ही।
पहनकर शोखियाँ निकल पड़,
बढ़ती उम्र के भी लम्हे डरेंगे ही।

जो दुख के दरिया को पार कर लेता है फिर उसे कोई डर सता नहीं सकता है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अपने दर्द को हथियार बना कर जीने वाले ज़िन्दगी केा खुल कर जीना सीख जाते हैं। एक ग़ज़ल के चंद शेर देखिए -
बरहम बहुत थी तकदीर मिरी दर्दों-गम से,
मैंने उसमें भी बेशुमार हौसला जगा दिया।
मुद्दतों जलाके दिल बनाया है उसे कुंदन,
जमाने को अपना फैसला भी बता दिया।
थकी नहीं है अब तक ‘‘क्षिति’’ चलते हुये,
तबस्सुम ने गर्दिशों को भी सता दिया ।

इस संग्रह में एक बड़ी प्यारी-सी ग़ज़ल है जिसमें कवयित्री ने खुद को दुआ देने की बात कही है। अन्यथा लोग दुनियावी दुख-सुख में इतने डूब जाते हैं कि उन्हें खुद का खयाल नहीं रह जाता है। विशेष रूप से पारिविारिक जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे लोग तथा बहुधा स्त्रियां अपनी ओर ध्यान ही नहीं दे पाती हैं, ऐसे सीाी लोगों के लिए यह गज़ल बहुत मायने रखती है-
खुद को भी दुआ दे, देखो कभी,
गमों का बोझ उतार फेको कभी।
खुद में ही है खुदा इल्म रहे तुम्हें,
खुद से भी मुहब्बत सीखो कभी।

कवयित्री सपना ‘‘क्षिति’’ में ग़ज़लगोई है और साथ ही भावप्रवणता भी। बस, मापनी के जोखिम को न उठाते हुए वे ग़ज़लें कहें तो उनकी ग़ज़लों का सैद्धांतिक महत्व भी बढ़ जाएगा। वैसे भावनाप्रधान ग़ज़लें होने के कारण ये सीधे दिल को छूती हैं और प्रभावित करती हैं। इस लिहाज़ से संग्रह पठनीय है।
---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer
#पुस्तकसमीक्षक #पुस्तक #आचरण #DrMissSharadSingh

1 comment: