Tuesday, November 25, 2025

चर्चा प्लस | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर

चर्चा प्लस | हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | सागर दिनकर 


पुस्तक समीक्षा
हिन्दी काव्य परंपरा से समृद्ध सजलें
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
--------------------
काव्य संग्रह  - रश्मियों का अपहरण
कवि            - ज.ल. राठौर ‘प्रभाकर’
प्रकाशक     - शिवराज प्रकाशन, म.न. 1/1898, गीता गली, मानसरोवर पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्य       - 395/-
---------------------
हिन्दी काव्य ने अपनी परम्पराओं को सहेजते हुए सदा नूतनता को स्वीकार किया है। यही कारण है कि हिन्दी काव्य आज भी निरन्तर समृद्ध होता जा रहा हैं। हिन्दी में गजल के प्रभाव से उर्दू शब्दों का समावेश अधिक हो गया था किन्तु सजल ने हिन्दी काव्य को हिन्दी भाषा के वास्तविक स्वरूप से पुनः जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। जहां तक हिन्दी के संस्कृतनिष्ठ भाषाई सौंदर्य का प्रश्न है तो व्यक्तिगत रूप से मेरा यह  मानना रहा है कि यदि हिन्दी के भाषाई सौंदर्य से साक्षात्कार करना है तो जयशंकर प्रसाद के काव्य को पढ़ना चाहिए। यह इसलिए कि प्रसाद ने संस्कृतनिष्ठ परिष्कृत हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया। दैनिक संवाद में भले ही अंग्रेजी और उर्दू के शब्द सहज रूप से आ जाते हैं किन्तु जब बात साहित्य की हो तो भाषाई शुद्धता का आग्रह अनुचित नहीं है। हर भाषा का अपना एक सौंदर्य होता है और यह सौंदर्य तभी पूर्णरूप से प्रकट होता है जब उसमें मौलकिता हो, शुद्धता हो। हिन्दी की नई काव्य विधा सजल ने इस आग्रह को दृढ़ता से स्थापना दी है। यद्यपि अब सजल विधा नूतनता के प्रथम सोपान पर नहीं है, वरन यह कई सोपान चढ़ती हुई अपनी पहचान स्थापित कर चुकी है। इसका श्रेय है डाॅ. अनिल गहलौत जी को।
रोचक तथ्य यह है कि सजल विधा अधुनातन तकनीक के गवाक्ष से हो कर साहित्य के प्रांगण में पहुंची है। इस संबंध में डाॅ. अनिल गहलौत ने अपनी पुस्तक ‘‘सजल और सजल का सृजन विज्ञान’’ में लिखा है कि -‘‘हमारे मोबाइल के वाट्स एप ग्रुप ‘‘गजल है जिंदगी’’ के साथियों से हमने सन 2016 में हिंदी को बचाने की अपनी इस चिंता को साझा किया। हमने कहा कि क्यों न गजल के समकक्ष हम हिंदी की एक अपनी विधा लाएँ जिसकी भाषा और व्याकरण के तथा शिल्प के अपने मानक हों। हमारे ग्रुप में अनेक हिंदी के विद्वान कवि, गजलकार, प्रोफेसर, समीक्षक और समाजसेवी जुड़े हुए थे। एक माह के सघन विचार-मंथन के उपरांत सहमति बनी। सजल विधा के नाम पर तथा सजल के अंग-उपांगों के हिंदी नामों पर सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। सजल की भाषा, व्याकरण और शिल्प के मानक भी सुनिश्चित किए गए। सजल की लय का आधार हिंदी छंदों की लय को मान्य किया गया। उसके उपरांत 5 सितंबर 2016 को उस ग्रुप पर सजल विधा के हिंदी साहित्य में पदार्पण की घोषणा की गई और ग्रुप का नाम बदलकर ‘‘सजल सर्जना’’ कर दिया गया। इस विमर्श में हमारे सहयोग और समर्थन में, श्रम और समय देकर सजल विधा को रूपायित करने में, प्रारंभ में जिनकी प्रमुख भूमिका रही उनके नाम हैं- वाराणसी के डॉ.चन्द्रभाल ‘‘सुकुमार’’, डॉ.रामसनेहीलाल शर्मा ‘‘यायावर’’, श्री विजय राठौर, श्रीमती रेखा लोढ़ा ‘‘स्मित’’, श्री विजय बागरी ‘‘विजय’’, डॉ० मोरमुकुट शर्मा, श्री संतोष कुमार सिंह, डॉ.बी.के.सिंह, डॉ० रामप्रकाश ‘‘पथिक’’, डॉ० राकेश सक्सेना, श्री रामवीर सिंह, श्री ईश्वरी प्रसाद यादव, श्री महेश कुमार शर्मा, श्रीमती कृष्णा राजपूत, एड. हरवेन्द्र सिंह गौर तथा डॉ.एल.एस.आचार्य आदि। (पृष्ठ 42-43)
ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजलों पर चर्चा करने से पूर्व सजल के उद्भव पर दृष्टिपात कर लेना मुझे इसलिए उचित लगा कि यदि इस संग्रह के जो पाठक सजल विधा से भली-भांति परिचित न हों, उन्हें भी इस नूतन विधा के उद्भव की एक झलक प्राप्त हो जाए। इस विधा को अस्तित्व में आए दस वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। यह सुखद है। किसी भी विधा का विकास तभी संभव होता है जब उसके प्रति साहित्य जगत में विश्वास हो और उसका स्वागत किया जा रहा हो। सजल विधा से गहराई से जुड़े सागर, मध्यप्रदेश निवासी ज.ल.राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी में सजल को ले कर मैंने सदैव असीम उत्साह देखा है। वे सजल विधा के प्रति आश्वस्त हैं, आस्थावान हैं तथा सतत सृजनशील रहते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के इस सजल संग्रह में उनके द्वारा संग्रहीत सजलों को पढ़ते समय उनके वैचारिक एवं भावनात्मक विस्तार से भली-भांति परिचय हुआ जा सकता है। ‘प्रभाकर’’ जी अपने सजलों में शांति, अहिंसा, प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्यता आदि विविध बिन्दुओं पर चिंन्तन करते दिखाई देते हैं। वर्तमान में सबसे अधिक पीड़ादायक हैं आतंकी गतिविधियां जो सम्पूर्ण मानवता पर प्रहार कर के प्रत्येक मानस को विचलित कर देती हैं। इस संदर्भ में ‘प्रभाकर’’ जी के एक सजल की कुछ पंक्तियां देखिए-
आँधी करने लगी आक्रमण ।
दीप-शिखा संकट में हर क्षण।
बाढ़ विकट उन्मादी आई ।
डूबा शांति-क्षेत्र का कण-कण।
‘‘प्रभाकर’’ जी स्थिति की विषमताओं का अवलोकन कर के ठहर नहीं जाते हैं वरन वे उन कारणों पर भी चिंतन करते हैं जो समस्त अव्यवस्था के मूल में है। वे लिखते हैं-
तिमिरण इतना पसरा क्यों है।
सूरज अभी न सँवरा क्यों है ।
तुम करते विघटन की बातें 
मन में इतना कचरा क्यों है ।
कवि को पता है कि अव्यवस्थाओं का कारण छल, छद्म और भ्रष्टाचार है। इसीलिए कवि के हृदय में क्रोध भी उमड़ता है और वह अपनी लेखनी के द्वारा सब कुछ जला कर भस्म कर देना चाहता है, जिससे एक ऐसे संसार की रचना हो सके जिसमें सुख और शांति का वातावरण हो। इसीलिए कवि ‘‘प्रभाकर’’ उपचार की बात भी लिखते हैं -
आग लिखता हूँ सदा, अंगार लिखता हूँ।
ओज से परितप्त कर, ललकार लिखता हूँ।
अंधकारों का नहीं, साम्राज्य बढ़ पाए।
रश्मियों की मैं सतत, बौछार लिखता हूँ।
कवि इस बात से व्यथित भी हो उठता है कि अपात्र सुपात्र बने घूम रहे हैं तथा अयोग्य व्यक्ति छद्म के सहारे योग्यता के सिंहासन पर प्रतिष्ठित हैं। भाषाई संदर्भ में वे पाते हैं कि स्वयं हिन्दी भाषी हिन्दी की अवहेलना कर रहे हैं। यह सब कवि के लिए दुखद है, असहनीय है -
कैसा हुआ जगत का हाल !
चलता काग हंस की चाल !!
सूखा कहीं, कहीं है बाढ़ ।
मौसम ने बदले सुर-ताल ।।
ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ जी ने अतीत के संदर्भों के आधार पर वर्तमान का आकलन भी किया है। जैसे वे अपने एक सजल में कुन्ती पुत्र कर्ण का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
जन्म से वह कर्ण कौन्तेय था।
नियति ने बना दिया. राधेय।।
समय को समझ सका है कौन ?
समय है अटल, सचल, अविजेय ।।
राष्ट्रहित-चिंतन से हम दूर ।
निजी हित-पोषण पहला ध्येय ।।
जब निज हित पोषण की भावना प्रबल हो जाती है तो प्रकृति तक का हनन होने लगता है। वनों का अवैध निर्बाध काटा जाना, पर्वतों को खण्डित किया जाना, बढ़ते प्रदूषण को अनदेखा किया जाना कवि के हृदय को सालता है। कवि ‘‘प्रभाकर’’ की ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
धरती पर बढ़ रही घुटन है।
सहमा-सहमा आज गगन है।।
सिसक रही हैं सबकी साँसें ।
बहका-बहका रुग्ण पवन है।।
देखा जाए तो कवि ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ अपने सजलों के माध्यम से जहां मार्ग के कंटकों के प्रति ध्यान आकर्षित करते हैं तो वहीं वे कंटकों के उन्मूलन तथा पीड़ा का  निदान और उपचार भी सुझाते हैं। यह कवि के भीतर उपस्थित सकारात्मकता की द्योतक है। यूं भी प्रत्येक सृजनकार को आशावादी होना ही चाहिए। निराशा का उच्छेदन आशा से ही किया जा सकता है। इस दृष्टि से कवि ‘‘प्रभाकर के सजल हिन्दी काव्य की वैचारिकी को परंपरागत रूप से समृद्ध करते हैं। ज.ल. राठौर ‘‘प्रभाकर’’ के सजल शिल्प की दृष्टि से डाॅ. अनिल गहलौत द्वारा स्थापित किए गए सजल के सृजन-विज्ञान के मानक पर भी खरे उतरते हैं। ‘‘प्रभाकर’’ जी के सजलों का भाषाई सौंदर्य काव्यात्म तत्वों का रसास्वादन कराता है तथा विन्यास सजल विधा में उनकी पकड़ को दर्शाता है। यह सजल संग्रह पाठकों को काव्य की एक नई विधा का सुरुचिपूर्ण आस्वाद कराएगा।        
  ---------------------------
#पुस्तकसमीक्षा #डॉसुश्रीशरदसिंह  #bookreview #bookreviewer
#पुस्तकसमीक्षक #पुस्तक #आचरण #DrMissSharadSingh

No comments:

Post a Comment