Tuesday, August 13, 2024

पुस्तक समीक्षा | 10 प्रतिनिधि कहानियां | समीक्षक डाॅ (सुश्री) शरद सिंह | आचरण

आज 13.08.2024 को  #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई डॉ उर्मिला शिरीष जी की पुस्तक "10 प्रतिनिधि कहानियां" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
उर्मिला शिरीष की ”दस प्रतिनिधि कहानियां” खोलती हैं चेतना के दस द्वार  
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक  - दस प्रतिनिधि कहानियां
लेखिका - उर्मिला शिरीष
प्रकाशक - किताबघर प्रकाशन, 4855-56, 24, अंसारी रोड, दरियागंज,  नईदिल्ली-110002
मूल्य    - 550/- (हार्डबाउंड)
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         उर्मिला शिरीष की कहानियों की बुनावट में एक आत्मीय स्निग्धता है। उनकी कहानियां पढ़कर ही समझ में आ जाता है कि वे कहानी लिखने के लिए नहीं लिख रही हैं अपितु वे अपने और पराए अनुभवों को बारीकी से विश्लेषित कर समझने के लिए कथानक के फॉर्मेट में पिरो रही हैं। हिंदी साहित्य में उर्मिला शिरीष आज एक स्थापित नाम है। उनकी कई कहानियां और उपन्यास में पढ़ चुकी हूं तथा उनके दो उपन्यासों “खैरियत है हुजूर” और “चांद गवाह” की समीक्षा भी अपने इसी कॉलम में कर चुकी हूं। उनके कथा साहित्य में मुझे जो सबसे अच्छी बात लगती है वह ये कि वे कथानक को लेकर दोहराव नहीं करती हैं। हमेशा एक नया कथानक, एक नई बात, एक नई शैली यानी एक मुकम्मल नयापन। उनके कथानक का वातावरण और उसमें रचे गए संवाद सहसा पात्रों के बीच पहुंचा देते हैं। जब पाठक स्वयं को कथानक का हिस्सा महसूस करने लगे तो समझिए कि यह कथाकार के लेखन की सबसे बड़ी सफलता है।
किताबघर प्रकाशन की योजना ‘‘दस प्रतिनिधि कहानियां सीरीज’’ के अंतर्गत कथाकार उर्मिला शिरीष का कहानी संग्रह ‘‘दस प्रतिनिधि कहानियां’’ प्रकाशित हुआ है। इस 228 पृष्ठ के संग्रह में कुल 10 कहानियां हैं। जब कुल 10 प्रतिनिधि कहानियां हैं, तो स्पष्ट है कि वह चुनिंदा, लोकप्रिय और बेहतरीन ही होंगी। लेकिन जब कथाकार को स्वयं अपनी कहानियों में से मात्र 10 को प्रतिनिधि के रूप में चुनना हो तो यह भी एक चुनौती ही है। एक रचनाकार के लिए तो उसकी हर रचना महत्वपूर्ण होती है। ऐसे में पाठकों की पसंद को आधार बनाना सबसे सटीक प्रक्रिया है और इसी चयन प्रक्रिया को अपनाया है कथाकार उर्मिला शिरीष ने। 
उर्मिला शिरीष अपने पात्रों और कथानक को इतनी सहजता से सामने रखती हैं कि सब कुछ एक चलचित्र से भी अधिक दृश्यात्मक लगता है। इस संग्रह की पहली कहानी ‘‘सिगरेट’’ में पाठक चानी और प्रिया  के निकट पहुंच जाते हैं, इतने निकट मानो जिस कमरे में चानी और प्रिया मौजूद हैं उसी कमरे की दीवार से अपनी पीठ टिकाकर वे दोनों की बहस देख सुन रहे हो। सिगरेट तो एक प्रतीक है। एक ऐसा प्रतीक जो स्वयं भी जलती है और अपने पीने वाले को भी जलकर राख कर देती है। सिगरेट पीने वाला इस बात को जानता है, समझता है, फिर भी उससे अपना मोह भंग नहीं कर पता है। मोह सिगरेट से ही नहीं दो मनुष्यों के बीच भी मौजूद है जो सामाजिक रूप में पति-पत्नी हैं- चानी और प्रिया। प्रिया को अगर चानी से मोह नहीं होता तो वह उसके सिगरेट पीने की आदत, लड़कियों से फ्लर्ट करने की आदत आदि ऐसे मसलों को लेकर उसे कब का छोड़ चुकी होती। यह मोह ही तो था जिसके वशीभूत प्रिया चानी को सिगरेट की तमाम बुराइयां गिनती है, चानी को उसकी गिरती हुई सेहत याद दिलाती है और फिर उसे उदास और फ्रस्ट्रेटेड होते देख कर खुद ही चानी के होठों से सिगरेट लगा देती है, भले ही झुंझलाती हुई। यह दांपत्य जीवन का एक ऐसा दृश्य है जो लगभग हर एक परिवार में दिखाई दे सकता है, बेशक सिगरेट की जगह शराब, जुआ, लॉटरी, औरतबाजी, अपने पक्ष के परिजनों का अंधसमर्थन अथवा पत्नी रूपी स्त्री को दोयम दर्जे की समझना इत्यादि कोई भी मुद्दा हो सकता है। यह कहानी परिवार विमर्श में स्त्री पक्ष को बड़ी तर्क भरी सहृदयता से प्रस्तुत करती है।
संग्रह की दूसरी कहानी है ‘‘चींख’’। स्त्री चाहे किसी भी आयु वर्ग की हो जब उसका बलात्कार होता है तो उसे अपनी खुद की चींख जीवपपर्यंत सुनाई देती रहती है। लोग यही कहते हैं कि उसकी अस्मिता तार-तार हो गई। लोगों की दृष्टि में अस्मिता का अर्थ बेहद संकुचित होता है। वे इसे स्त्री देह से आगे नहीं ले जा पाते हैं। देह के शुद्ध, अशुद्ध के समीकरण में ही सारा गुणा-भाग उलझा रहता है। कोई भी यह सोचने का कष्ट नहीं करता है कि एक स्त्री के लिए अस्मिता का क्या अर्थ है। वस्तुतः स्त्री की अस्मिता उसकी देह से परे होती है। बलात्कारी द्वारा उसकी देह को दी गई पीड़ा तो एक समय बात समाप्त हो जाती है किंतु बलात्कार की घटना से जो पीड़ा स्त्री के मन और आत्मा को पहुंचती है वह कभी खत्म नहीं होती है। क्योंकि समाज उसे कभी खत्म होने ही नहीं देता है। सामाजिक उपेक्षा और  प्रताड़ना मिलनी चाहिए सिर्फ और सिर्फ बलात्कारी को लेकिन उपेक्षा और प्रताड़ना की सजा आजीवन मिलती है बलत्कृत स्त्री को और उसके परिवार को। यही कारण है कि ऐसी अनेक घटनाओं में स्त्री का परिवार मामले को पुलिस तक नहीं ले जाता है। बदनामी के डर से लड़की को खामोश रहने की हिदायत दी जाती है। भले ही इससे बलात्कारी का मनोबल बढ़ता है और उसे मानो एक और अपराध करने की छूट मिल जाती है। बलात्कार जैसी संवेदनशील विषय पर लिखी गई कहानी ‘‘चींख’’ इससे जुड़े अनेक मुद्दों पर खुलकर चर्चा करती है। यह कहानी पीड़िता के पक्ष को मानवता के आधार पर देखे जाने का तीव्र आग्रह करती है।
       संग्रह की  तीसरी कहानी है ‘‘बांधो न नाव इस ठांव बंधु’’। यह कहानी पिता पुत्र के संबंध पर आधारित है। पिता का किसी दूसरी स्त्री के प्रति आकर्षण क्या उसका पुत्र स्वीकार कर सकता है? यह बड़ा जीवट प्रश्न है। एक पुत्र अपने प्रेम संबंधों के ‘‘पैचअप’’ और ‘‘ब्रेकअप’’ को तो बड़ी सहजता से व्यक्त कर सकता है, स्वीकार कर सकता है किंतु अपने पिता के अन्य स्त्री के प्रति आकर्षण मात्र से भी वह विचलित हो उठता है। क्या इस कहानी में पुत्र अपने पिता के प्रति सहज है अथवा असहज, यह कहानी पढ़ने पर ही पता चलता है। यह भेद मैं यहां नहीं खोलूंगी। इसे जानने के लिए इस कहानी को पढ़ना जरूरी है और तभी कहानी में मौजूद पात्रों के अंतरद्वंद्व, उनके संकोच, उनका खुलापन, उनकी उदारता, उनकी अनुदारता - यह सभी कुछ समझ में आ सकेगी। 
चतुर्थ कहानी है ‘‘निर्वासन’’। इसी नाम से उनका एक कहानी संग्रह भी है। यह बहुत महत्वपूर्ण कहानी है जो वृद्ध विमर्श को बखूबी रेखांकित करती है। दादा और पोते के बीच का जनरेशन गैप तथा परिवार में एक वृद्ध सदस्य की अनुपयोगिता जैसे ज्वलंत मुद्दे उठाती है यह कहानी। 
पांचवीं कहानी है ‘‘उसका अपना रास्ता’’। क्या किसी लड़की को अपना रास्ता चुनने की स्वतंत्रता होती है? उन युवा लड़कियों के सपनों, आकांक्षाओं और इच्छाओं की कहानी है यह, जो खुले आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरना चाहती हैं, अपनी जिंदगी को अपने ढंग से जीना चाहती हैं दुनिया को करीब से देखना चाहती हैं और अपनी क्षमताओं को साबित करना चाहती हैं। लेकिन जीवन का कटु, खुरदुरा यथार्थ ऐसी लड़कियों को कदम-कदम पर सीखता है कि यह जीवन सपनों की तरह सुंदर और आसान नहीं है। यहां छल, छद्म, भीतरघात और शोषण आदि सब कुछ मौजूद है। एक आम मध्यमवर्गीय परिवार का पिता क्या यह सोच सकता है कि उसकी बेटी किसी फैशन शो में भाग ले? वह तो यह देखकर ही आहत हो जाता है कि उसकी बेटी ने अपने कमरे की दीवार से महापुरुषों की तस्वीर हटाकर देसी- विदेशी मॉडलों की तस्वीर लगा रखी हैं। उसे चेतावनी भी देता है कि एक दिन तुम रोओगी, तब तुम्हें मेरी बातें समझ में आएंगी। क्या पिता द्वारा अपनी महत्वाकांक्षी बेटी को समझाने का यह तरीका सही था? बेटी का संघर्ष यहीं से, यानी अपने कमरे से ही शुरू हो जाता है। यह लंबी कहानी युवा लड़कियों के संघर्ष को बखूबी बयां करती है। इस कहानी को पढ़ते हुए कभी रोमांच होता है, तो कभी सिहरन होती है, कभी क्रोध आता है तो कभी दया आती है, तो कभी स्तब्ध रह जाने की अवस्था आती है। फिर भी एक वैचारिक ऊर्जा दृढ़ता के साथ पूरी कहानी में प्रवाहित होती रहती है।
‘‘पत्ते झड़ रहे हैं’’ संग्रह की छठीं कहानी है। यह दांपत्य जीवन के स्वप्न समेटे युवाप्रेम के झंझावातों की जटिलता जिसमें, प्रेम, छल आकांक्षा सब कुछ है, के मनोवैज्ञानिक पक्ष को अपने ढंग से उकेरती है।
सातवीं कहानी है ‘‘बिवाइयां’’। ‘‘जा के पांव न फटी बिवाई, वो का जाने पीर पराई’’- यह लोकोक्ति सबने सुनी है लेकिन कितनों ने महसूस की है, यह कहना कठिन है। जिसे कष्ट झेलने पड़ते हैं वही कष्टों की गहराई समझ पाता है। ‘‘बविाइयां’’ कहानी कर्ज में डूबे किसानों के द्वारा की जाने वाली आत्महत्या पर आधारित है। किसान जो इस देश की रीढ़ है, जो इस देश के नागरिकों को अन्न उपलब्ध कराता है, वह स्वयं कितना लाचार और विवश है इस कहानी को पढ़कर बखूबी महसूस किया जा सकता है।  
‘‘दीवार के पीछे’’ यह संग्रह की आठवीं कहानी है। यह कहानी सांप्रदायिकता के माहौल में दो युवाओं के बीच जन्मे प्रेम के प्राणांतक संघर्ष को लेखबद्ध करती है। ‘‘ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे/ एक आग का दरिया है और तैर के जाना है।’’ कुछ तैर पाते हैं कुछ नहीं। यह समाज की आग के दरिया में दो प्रेमियों के तैरने के प्रयास की कहानी है। 
‘‘यात्रा’’ कहानी एक मां-बेटी के जटिल मनः संबंधों को प्रस्तुत करती है। वही संग्रह की अंतिम कहानी ‘‘ऐ देश! बता तुझे क्या हुआ है’’ कोरोना काल की पीड़ा, हताशा एवं मानवता की भावनाओं को स्मरणीय तरीके से प्रस्तुत करती है।
कथाकार उर्मिला शिरीष को लंबी कहानी लिखने और उसे साधने में महारत हासिल है। दीर्घकाया की होने के कारण उनकी कहानियां औपन्यासिक आनंद का भी अनुभव कराती हैं। कहानी की लंबाई को साधना आसान काम नहीं होता है। कभी कथानक की लय टूटती है, तो कभी पात्रों के बढ़ने का संकट उत्पन्न हो जाता है, तो कभी कहानी के अंत का निर्णय त्रिशंकु बन कर रह जाता है। किन्तु ये सारी समस्याएं उर्मिला शिरीष की कहानियों में नहीं है। उर्मिला शिरीष की प्रत्येक लंबी कहानी उस नदी की भांति प्रवाहित होती है, जिसे पता है कि उसका उद्गम कहां है और उसे समुद्र में कहां जाकर मिलना है। उर्मिला शिरीष की भाषा की सादगी एक आकर्षक संसार रचती है, जिसमें कहीं भी क्लीष्टता नहीं है। सहज संवाद है और बोधगम्यता है।  यह कहानी संग्रह पठनीय है और संग्रहणीय भी। इस संग्रह की कहानियों द्वारा समाज के विभिन्न स्तरों, विभिन्न पक्षों एवं विस्तृत मनोविज्ञान को बखूबी समझा जा सकता है। 
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