चर्चा प्लस
घर से ही शुरू होती है अपराध की पहली सीढ़ी
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
समाज में अपराध कब नहीं थे? हमेशा थे। किन्तु अब दिनों-दिन अपराध की जघन्यता बढ़ती जा रही है। कोई इंटरनेट को दोष देता है तो कोई पहनावे को, तो कोई वर्तमान वातावरण और संगत को। क्या अतीत में पहनावों में परिवर्तन नहीं हुए? या फिर आपसी संपर्क नहीं रहा? अतीत तो युद्धों के भयावह वातावरण से ग्रस्त था। बलशाली अतीत में भी अपराध करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि वे अपराध कर के बच जाएंगे। बलशाली आज भी अपराध करते हैं और लंबे समय तक बचे भी रहते हैं। लेकिन जो चिंताजनक अंतर आया है वह ये कि अब मध्यम और निम्न मध्यमवर्ग में भी अपराधी मानसिकता जड़ें जमाती जा रही है। सच्चाई यही है कि अपराधी मानसिकता घर से ही शुरू होती है।
एक भीली लोककथा है- एक युवक था जोे राजा के महल में चोरी करने घुसा और पहरेदारों द्वारा बंदी बना लिया गया। न्यायाधीश ने इसे जघन्य अपराध माना। उसने कहा कि जो युवक राजा के महल में चोरी कर सकता है, वह कोई भी बड़ा अपराध कर सकता है, इसलिए इसे सार्वजनिक स्थल पर मृत्युदंड दिया जाए। इससे अन्य अपराधियों को भी सबक मिलेगा। नगर के चैक पर उस युवक को फांसी की सजा दी जानी थी। तयशुदा दिन उसे चैक पर लाया गया। उस युवक की मां का रो-रो कर बुरा हाल था। वह युवक अपनी मां की इकलौती संतान था। युवक के मरने के बाद मां अकेली रह जाने वाली थी। मां ने न्यायाधीश के पैर पकड़े लेकिन न्यायाधीश टस से मस न हुआ। तब वह रोती हुई अपने बेटे को अंतिम बार देखने उसके निकट पहुंची। मां ने दहाड़ें मारते हुए कहा,‘‘बेटा मैं तुम्हें बचा नहीं पा रही हूं। मुझे माफ कर दो।’’
मां की बात सुन कर युवक ने कहा,‘‘हां मां, तुम मुझे बचा नहीं पा रही हो। यदि तुमने मुझे उस दिन एक झापड़ लगा कर रोक दिया होता जिस दिन मैंने पहली चोरी की थी, तो आज मुझे इस तरह मरना नहीं पड़ता।’’
बेटे की बात सुन कर मां अवाक रह गई। वह अपने बेटे की ओर ताकने लगी।
‘‘मां, मैं सच कह रहा हूं। जब मैं मिठाई की दूकान से एक लड्डू चुरा कर लाया था तब तुमने मुझे डांटने के बजाए मेरी पीठ ठोंक कर शाबाशी दी थी। इसके बाद मेरा साहस बढ़ता गया और तुम्हारी शाबाशियां भी बढ़ती गईं। मैं चोरियां करता रहा और तुम मुझे बचाती रहीं। इसी का परिणाम हुआ कि मेरा साहस इतना बढ़ गया कि मैं राजमहल में चोरी करने पहुंच गया। जो आज तुम मुझे बचा नहीं पा रही हो तो अब इसमें रोना कैसा, क्योंकि बचाने वाला समय तो वर्षों पहले निकल गया है।’’
मां को बेटे की बात सुन कर अपनी गलती का अहसास हुआ। लेकिन अब उस गलती को सुधारा नहीं जा सकता था। अब उसे अपने बेटे के बिना जीना था और वह भी एक गहरे पछतावे के साथ।
यह तो है एक सीधी-सादी आदिवासी लोककथा लेकिन इसमें जो संदेश मौजूद है वह आज के उन माता-पिता को भी सबक देता है जो अपने बच्चों की ढिठाई को अनदेखा करते रहते हैं। कल और आज में अंतर बहुत तगड़ा है। कल यानी विगत में बच्चे अपने माता-पिता और अभिभावक का कहना मानते थे। उन्हें पलट कर जवाब नहीं देते थे। बेज़ा ज़िद नहीं करते थे। अपनी बात मनवाने के लिए घर के सामानों की तोड़-फोड़ नहीं करते थे। मगर अब ये सारे विघ्वंसक लक्षण 70 से 80 प्रतिशत बच्चों में देखे जा सकते हैं। गोद में पल रहा शिशु नहीं जानता कि मोबाईल क्या है? किन्तु एक रोशनी चाली चमकती हुई वस्तु के प्रति उसका सहज आकर्षण उसे मोबाइल पाने के लिए उकसाता है। माता-पिता यह देख कर निहाल हो जाते हैं कि उनका अबोध शिशु अभी से मोबाइल मांग रहा है। वे उसे मोबाइल पकड़ा देते हैं। वहीं शिशु जब थोड़ा बड़ा होता है तो उसे लगता है कि वह जिद कर के अपनी मनचाही वस्तु पा सकता है। वह उसमें सफल भी हो जाता है। उसके भीतर एक ज़िद और ढिठाई पनपने लगती है।
कुछ समय पहले मेरे घर मेरे एक परिचित अपने बेटे की दो संतानों यानी अपने पोेते-पोती को ले कर आए। दोनों बच्चे बहुत छोटे थे। पोता तीन साल का रहा होगा तो पोती पांच साल की। वे लोग आ कर ड्राइंगरूम में बैठे। मैंने मुस्कुरा कर पड़े प्यार से दोनों बच्चों से उनके नाम पूछे। मेरा इतना पूछना ही मुझ पर भारी पड़ गया। मुझे खुद से बात करता पा कर वे दोनों बच्चे दूसरे ही पल बेख़ौफ़ हो गए और मेरे घर के ड्राइंगरूम की और नास्ते की जो दुर्दशा उन्होंने की, वह शब्दातीत है। उनके जाने के बाद उनके लिए एक ही विशेषण मेरे दिमाग में आया, वह था ‘‘सुनामी’’। मैंने सोचा कि उन दोनों नासमझ बच्चों के इस तरह उद्दंड होने के पीछे क्या कारण हो सकता है? तो सबसे पहले मुझे उनके माता-पिता ही दोषी नज़र आए। इसी के साथ मुझे अपना बचपन भी याद आया। मेरी मां ने मुझे और मेरी दीदी को हमेशा समझाया कि दूसरे के घर जा कर शांत बैठना चाहिए। बिना पूछे दूसरे के सामानों को हाथ नहीं लगाना चाहिए। जब तक मैं इशारा न करूं तब तक नास्ते की प्लेट की ओर हाथ भी नहीं बढ़ाना। ये सारे सबक हम दोनों बहनों ने गांठ बांध रखे थे। जब दूसरे लोग हमारे व्यवहार को देख कर मां से कहते कि ‘‘आप की बच्चियां कितनी सुशील हैं, शांत हैं।’’ तो मां ही नहीं, हम लोग भी खुशी से भर जाते। इस तरह हमें लगभग अबोध अवस्था से ही प्रशंसा पाने वाले व्यवहार करने की आदत डाली गई।
पर आज स्थितियां बिलकुल उलट हैं। मेरी एक युवा परिचित अपने बेटे की तारीफ करते हुए कहा करती है कि ‘‘इसके हाथ से तो कोई चीज सही-सलामत बचती ही नहीं है। नया से नया खिलौना चार दिन में तोड़-ताड़ कर एक कोने में फेंक देता है। मेरा जिद्दी बच्चा!’’ उसका यह लाड़ भरा स्वर अनजाने में उसके बेटे को और जिद्दी बनाता जा रहा है। वह जान गया है कि वह तोड़-फोड़ कर के नई चीजें हासिल कर सकता है।
बच्चे तो घर की फुलवारी के वे खूबसूरत फूल होते हैं जिन्हें अच्छाई के खाद-पानी से पालना-पोसना जरूरी है। आज अवयस्क अपराध की दर आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रही है। क्या यह भयावह नहीं है कि अवयस्क चार स्कूली बच्चे अपने से छोटी क्लास में पढने वाली एक नन्हीं बच्ची के साथ अनैतिक कार्य करते हैं और फिर उसे मार कर नहर में फेंक देते हैं। यह रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना कोई आम घटना नहीं है लेकिन इससे मिलती-जुलती घटनाएं अब प्रकाश में आने लगी हैं जब नाबालिग युवकों ने नाबालिग बच्चे या बच्ची के साथ अनैतिक कार्य किया। मामले की तह में जाने पर हर बार यही कारण सामने आया कि वे अवयस्क अपराधी इंटरनेट पर आपत्तिजनक दृश्य देख कर अपराध के लिए प्रेरित हुए। अब सोचने की बात है कि वे नाबालिग अपराधी मोबाइल या इंटरनेट साथ ले कर तो पैदा नहीं हुए होंगे। माता-पिता ने ही वह सुविधा उन्हें उपलब्ध कराई होगी। यह कह कर माता-पिता अपनी जिम्मेदारी से नहीं मुकर सकते हैं कि वे नहीं जानते थे कि उनके बच्चे इंटरनेट पर क्या देख रहे हैं? यदि माता-पिता बच्चों को मोबाइल सौंप रहे हैं तो यह उनकी ड्यूटी है कि वे इस बात का ध्यान रखें कि बच्चे किन साईट्स पर सर्फिंग कर रहे हैं। बच्चों को अच्छी और बुरी साईट्स के बारे में खुल कर समझाएं। बच्चों के दोस्त बन कर उनकी माॅनीटरिंग करें। क्योंकि जो बुराई बचपन में बच्चों के दिमाग में घर कर लेती है, उनके बड़े होने के साथ वह भीतर ही भीतर बढ़ती जाती है। पहली चोरी या पहली गलत हरकत पर ही उन्हें टोंकना और डांटना ज़रूरी है, अन्यथा सिर से पानी गुज़रने के बाद कुछ नहीं किया जा सकता है।
अपराध मनोविज्ञानी अपराध के मुख्य कारण मानते हैं- भावनात्मक अस्थिरता, हीनता की भावना तथा पारिवारिक वातावरण। चाहे कुण्ठा हो, हीन भावना हो अथवा उग्रता हो, अधिकतर मनोविज्ञानी यही मानते हैं कि यह प्रवृतियां हर मनुष्य के भीतर पाई जाती हैं। जिस मनुष्य में ये प्रवृतियां जितनी अधिक प्रभावी रहती हैं, वह उतने बड़े अपराध करता है।
सन् 1991 में एन्थोनी हाॅपकिंस अभिनीत हाॅलीवुड की एक फिल्म आई थी जिसका नाम था ‘‘द साइलेंस आफॅ द लैंब्स’’। यह फिल्म लेखक थाॅमस हैरिस के उपन्यास ‘‘द साइलेंस आफॅ द लैंब्स’’ पर आधारित थी। इस फिल्म को पूरी दुनिया में बड़ी सराहना मिली तथा इसे प्रमुख पांच श्रेणियों के लिए अकादमी अवार्ड दिया गया। अपराधकथा पर आधारित फिल्मों में इसे सबसे प्रभावशाली फिल्म मना गया। एन्थोनी हाॅपकिंस ने इस फिल्म में एक पूर्व मनोचिकित्सक एवं नरभक्षी अपराधी डाॅ. हैनिबल लैक्टर की भूमिका निभाई थी। एफबीआई का एक प्रशिक्षु अधिकारी एक अन्य सीरियल किलर को पकड़ने के लिए डाॅ. हैनिबल लैक्टर से लगातार बातचीत करता है ताकि वह सीरियल किलर की मानसिकता को भांप कर उसके अगले कदम का पता लगा सके तथा उसे अगला अपराध करने से रोक सके। यह माना जाता है कि थाॅमस हैरिस का उपन्यास ‘‘द साइलेंस आफॅ द लैंब्स’’ अमरीकी इतिहास के दो सबसे कुख्यात सीरियल किलर से प्रभावित था जिनमें से एक था थियोडोर टेड बंडी। दूसरा था डाॅ. अल्फ्रेडो बल्ली ट्रविनो। इस फिल्म में यही बताया गया था कि जब अपराधी मानसिकता जटिल हो जाती है तो उसे सामान्य सोच वाला व्यक्ति समझ नहीं पाता है। यह मानसिक जटिलता विशेष परिस्थितियों में पनपती है और विशेष माहौल में ही बढ़ती है। इसलिए बेहतर है कि बचपन से ही बच्चों को एक ऐसा स्वस्थ माहौल दिया जाए जिसमें वे दूसरे को दुख, कष्ट अथवा हानि पहुंचाने के बारे में कभी न सोचें। यह परिवार और समाज के ऊपर है कि वह अपराधयुक्त वातावरण चाहता है अथवा अपराध मुक्त वातावरण। अच्छे बच्चे भी इसी समाज में रहते हैं और बुरे बच्चे भी। अच्छे बच्चे बड़े हो कर अच्छे नागरिक बनते हैं और बुरे बच्चे बड़े हो कर बड़े अपराधी बन जाते हैं।
अवयस्क अपराधियों के लिए जुवेनाईल कोर्ट होता है तथा उन्हें सजा भुगतने के लिए बाल सुधारगृह भेजा जाता है। लेकिन यदि परिवार में ही बच्चों पर ध्यान दिया जाए तो उनके बाल अपराधी बनने की नौबत ही न आए। आजकल यह नौबत इसलिए भी आने लगी है क्योंकि माता-पिता दोनों कामकाजी होते हैं। परिवार विकेन्द्रित होता है। आया अथवा केयरटेकर के जिम्मे बच्चों की परवरिश होती है। एक आया को उतने अधिकार नहीं रहते हैं जितने एक मां, दादा या नानी को होते हैं। या फिर एक पिता, दादा या नाना को अधिकार होते हैं। संयुक्त परिवार में बच्चों को एक अनुशासित माहौल अपने-आप मिल जाता है जबकि एकल परिवार में बच्चों को अनुशासित रखने माता-पिता का दायित्व बढ़ जाता है। कुछ परेंट्स तो इस दायित्व को साध लेते हैं किन्तु अधिकांश लापरवाह होते चले जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चल पाता है कि उनकी संतान अपराध की ओर कब मुड़ गई।
आज जब अपराध चारो ओर से बच्चों को अपने शिकंजे में कसने को तैयार बैठा है ऐसे में माता-पिता, अभिभावकों एवं शिक्षकों को भी चैकन्ना रहना जरूरी है। उनका चैकन्नापन बच्चे को अपराध से दूर रख सकता है। मनोविज्ञानी कहते हैं कि बच्चों की छोटी-छोटी गलतियों पर भी ध्यान दें। यदि वे बार-बार उस गलती को दोहरा रहे हैं तो उन्हें अनदेखा कर के प्रोत्साहित न करें, बल्कि उन्हें सही रास्ता दिखाएं। भले ही इसके लिए उन्हें कड़ाई से डांटना ही क्यों न पड़े। आज की एक डांट उन्हें कल के बड़े अपराध से बचा सकती है।
--------------------------
#DrMissSharadSingh #चर्चाप्लस #सागरदिनकर #charchaplus #sagardinkar #डॉसुश्रीशरदसिंह
#प्रेरकलेख #प्रेरक #inspirational #inspirationalarticle #motivational #अपराध #बचपन #Crime #childhoodcrime #criminalpsychology
No comments:
Post a Comment