Thursday, August 1, 2024

शून्यकाल | प्रेमचंद की दृष्टि में प्रेम वाया ‘‘प्रेम की वेदी’’ | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक नयादौर में मेरा कॉलम -                    शून्यकाल
प्रेमचंद की दृष्टि में प्रेम वाया ‘‘प्रेम की वेदी’’
- डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
        प्रेमचंद हिन्दी के महान कथाकारों में गिने जाते हैं। उन्होंने अपनी लेखनी से दलित, शोषित वर्ग के पक्ष को जिस गहराई से रखा, उसी गहराई से भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक संरचना का भी विश्लेषण किया। प्रेमचंद ने कथा साहित्य के साथ ही तीन नाटक भी लिखे। उन्हीं में से एक नाटक ऐसा है जो प्रेमचंद की दृष्टि से प्रेम को व्याख्यायित करता है। यह नाटक है ‘‘प्रेम की वेदी’’।
‘‘मोहब्बत रूह की खुराक है। यह वह अमृतबूंद है, जो मरे हुए भावों को ज़िन्दा करती है। यह ज़िन्दगी की सबसे पाक, सबसे ऊंची, सबसे मुबारक़ बरक़त है।’’ प्रेम की भावना पर यह कथन है कथाकार प्रेमचंद का।
    आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि प्रेमचंद के साहित्य में दलित, शोषित वर्ग के कष्टों भरे जीवन का खुरदुरापन है। यह भी माना जाता है कि प्रेमचंद के साहित्य में परंपरा और प्रगतिशीलता का द्वंद्व है।
प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन परिवार, समाज, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था मुखर होती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का बड़ी बारीकी से चित्रण किया। प्रेमचंद के साहित्य के संदर्भ में फैज अहमद फैज ने लिखा था कि ‘‘प्रेमचंद की उंगली पकड़कर हिंदी-उर्दू का कथा साहित्य सही मायनों में डी-क्लास हो पाया था।’’
प्रेमचंद के कथा एवं नाट्य साहित्य में स्त्री का पक्ष दृढ़ता से उभर कर आया है। वे समाज में स्त्री को सशक्त एवं सम्मानजनक स्थिति में देखना चाहते थे। 07 सितंबर 1934 को प्रेमचंद ने इंद्रनाथ मदान को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किए थे कि -‘‘स्त्री का मेरा आदर्श त्याग है, सेवा है, पवित्रता है, सब कुछ एक में मिला-जुला. त्याग जिसका अंत नहीं, सेवा सदैव सहर्ष और पवित्रता ऐसी कि कोई कभी उस पर उंगली न उठा सके।’’ 
किन्तु इस पत्र की शब्दावली का अर्थ यह नहीं था कि वे स्त्री को पुरुष की अनुगामिनी मानते थे। वे स्त्री को पुरुष के साथ चलने वाली उसकी शक्ति के रूप में देखते थे। यह तथ्य उनके नाटक ‘‘प्रेम की वेदी’’ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह नाटक जहां एक ओर प्रेमचंद के स्त्रीविमर्श को रेखांकित करता है, वहीं दूसरी ओर यह प्रेमचंद के प्रेमविमर्श को भी खुल कर सामने रखता है। ऐसा नहीं है कि उनकी रचनाओं ‘‘प्रेम का उदय’’, ‘‘त्यागी का प्रेम’’ या ‘‘प्रेम की होली’’ में प्रेम के विविध रूप नहीं आए हैं। किन्तु प्रेम का सबसे मुखर एवं तार्किक रूप मिलता है उनके नाटक ‘‘प्रेम की वेदी’’ में। उन्होंने सन 1923 से 1933 के बीच कुल तीन नाटक लिखे -‘‘संग्राम’’,‘‘कर्बला’’ तथा ‘‘प्रेम की वेदी’’।

‘‘प्रेम की वेदी’’ सीमित पात्रों का नाटक है जिसमें मिस जेनी, मिसेज गार्डन, उमा, योगराज, विलियम, लेडी डाॅक्टर, चम्पा, मिस डासन, मिसेज डगलस और रंजन नामक पात्र हैं। नाटक का कथानक कुछ इस प्रकार है कि जेनी मिजेस गार्डन की बेटी है। मिसेज गार्डन की आर्थिक दशा अच्छी नहीं है अतः वे जेनी का विवाह विलियम से कराना चाहती हैं। जबकि जेनी को विलियम विशेष पसंद नहीं है। वह अपनी बचपन की सहेली उमा के पति योगराज के प्रति आकर्षित हो जाती है किन्तु वह कोई सीमा नहीं लांघती है। 

जेनी को ऐसी विवाह व्यवस्था पर भी आपत्ति है जो उसके अनुसार स्त्री को पुरुष की दासी बना देती है। जेनी अपनी मां से तर्क-वितर्क करते हुए कहती है कि -‘‘ गुलाम नहीं तो और क्या है। रानियां है, वह भी गुलाम है। मजदूरिनें हैं, वह भी गुलाम हैं। मर्द की दुनिया वह है, जहां नाम है, धन है, सम्मान है। स्त्री की दुनिया वह, जहां पिसना और घुलना और कुढ़ना है। हर काम में औरत को मर्द की जवाबदेही करनी पड़ती है। अगर उसने चार पैसे ज्यादा खर्च कर दिये, तो मर्द की त्योरियां चढ़ गयीं। मर्द के नाश्ते में जरा देर हो गयी, तो औरत के सिर आफत आ गयी। अगर वह बगैर मर्द से पूछे कहीं चली गयी, तो मर्द उसके खून का प्यासा हो गया। अगर किसी मर्द से हंसकर बोली, तो फिर समझ लो कि उसकी कुशल नहीं। दिखाने को तो मर्द स्त्री की बड़ी इज्जत करता है, मोटर पर अच्छी जगह स्त्री की है, सलाम पहले मर्द करता है, स्त्री का ओवरकोट पुरुष संभालता है, स्त्री का हाथ पकड़कर गाड़ी से उतारता है, पहले स्त्री को बिठाकर आप बैठता हैय लेकिन यह सब दिखावे का शिष्टाचार है। पुरुष दिल में खूब समझता है कि उसने स्त्री की वह चीज छीन ली जिसकी पूर्ति में वह जितनी खातिरदारी करे, वह थोड़ी है। वह चीज स्त्री की आजादी है।’’

मां मिसेज गार्डन उसे टोकती हैं तो जेनी कहती है-‘‘ विचित्र नहीं, यथार्थ है। हम अपने टामी की कितनी खातिर करते है। उसे तांगे पर साथ बैठाते है, गोद में उठाते है, उसका मुंह चूमते है। गले से लगाते है, उसे साबुन से नहलाते हैं। लेकिन क्या बराबर हमारे मन में यह भाव नहीं रहता, कि वह हमारा कुत्ता है? उसने जरा भी कोई काम हमारी इच्छा के विरुद्ध किया और हमने उस पर हंटर जमाया। पुरुष विवाह करके स्त्री का स्वामी हो जाता है। स्त्री विवाह करके पुरुष की दासी हो जाती है। अगर वह पुरुष की खुशामद करती रहे, उसके इशारों पर नाचती रहे, तो उसके लिए रुपये है, गहने हैं, रेशमी कपड़े हैं, उस पर जान छिड़की जाती है, हृदय न्योछावर किया जाता है, लेकिन स्त्री ने जरा भी स्वेच्छा का परिचय दिया, जरा भी आत्मसम्मान प्रकट किया, फिर वह त्याज्य है, कुलटा है। पुरुष उसे क्षमा नहीं कर सकता। पुरुष कितना ही दुराचारी हो, स्त्री जबान नहीं हिला सकती। उसका धर्म है, पुरुष को अपना ख़ुदा समझे। मैं यह नहीं बरदाश्त कर सकती।’’

जेनी की इस विचारधारा को देख कर एक कौतूहल जागता है कि यदि नायिका विवाह को ले कर इतने कठोर विचार रखती है तो इस कथानक में प्रेम के तत्व कहां है? इतना ही नहीं, जब जेनी की सहेली नवविवाहित उमा जेवरों से सज-धज कर जेनी से मिलने आती है और अपने एक-एक जेवर दिखा कर पूछती है कि ये कैसे दिख रहे हैं? तो जेनी कंगन को गुलामी की हथकड़ी, हार को गुलामी की तौक़ (कैदियों के गले में पहनाई जाने वाली लोहे की हंसली) कहती है। इस पर उमा चिढ़कर कर कहती है कि -‘‘ जिसे तुम गुलामी की हथकड़ी और गुलामी की तौक़ कहती हो, उसे मैं व्रत और कर्तव्य और आत्मसमर्पण का चिह्न समझती हूँ।’’
जेनी यहां भी तक देती है कि - ‘‘यह व्रत यह कर्तव्य और यह आत्म-समर्पण एकतरफा क्यों? तुम्हारे ही लिए क्यों इन चिह्नों की जरूरत है? तुम्हारे पति के लिए क्यों जरूरी नहीं? जहाँ तक मेरा अनुभव है, उसके हाथों में न चूड़ियाँ हैं, न कंगन है, न गले में हार है, न माथे पर सिन्दूर का टीका है। यह क्यों? तुम्हें अपने व्रत पर स्थिर रखने के लिए बन्धन चाहिए, उसे बन्धन की जरूरत नहीं?’’ 
जेनी को जहां अपनी सहेली उमा का यूं आभूषणों से लदा होना गुलामी की निशानी प्रतीत होता है, वहीं उमा का पति योगराज उसे सुलझा हुआ और शालीन व्यक्ति लगता है। वह जानती है कि उसकी मां विलियम से उसका विवाह करना चाहती है ताकि दहेज न देना पड़े। किन्तु जेनी को योगराज की तुलना में विलियम आचार-व्यवहार में एकदम उजड्ड लगता है। कुछ दिन बाद योगराज और उमा दूसरे शहर चले जाते हैं। जहां एक दिन उमा का स्वास्थ्य खराब हो जाता है। लेडी डाॅक्टर योगराज को बताती है कि उसके अतिअभिसार के कारण उमा की तबीयत बिगड़ी है। वहीं उमा पत्नी के कर्तव्य के निर्वहन की भावना में डूबी अपने स्वास्थ्य की परवाह किए बिना पति की इच्छा पूरी करती रहती है जिससे वह कमजोर हो कर मुत्यु के निकट जा पहुंचती है। एक दिन जेनी को पता चलता है कि उमा मरणासन्न है तो वह उमा और योगराज के पास जाती है किन्तु उसके पहुंचने के पहले उमा की मुत्यु हो चुकी थी। योगराज उसे विलाप करता हुआ मिलता है। जेनी योगराज को सहारा देने के लिए वहीं रुक जाती है और उसी की कंपनी में एक हजार रुपए मासिक वेतन पर काम करने लगती है। उस समय के हिसाब से यह रकम बहुत बड़ी थी।

तीन महीने व्यतीत हो जाते हैं। योगराज जेनी में अपनी स्वर्गवासी पत्नी उमा को देखने लगता है और उससे विवाह की इच्छा प्रकट करता है किन्तु जेनी चाहते हुए भी उसे मना कर देती है। वह जानती है कि दोनों का धर्म अलग है अतः समाज उनका विवाह स्वीकार नहींे करेगा। योगराज धर्म के बंधनों को तोड़ने की बात कहता है तब जेनी कहती है-‘‘नहीं नहीं, मैं तुम्हें समाज में अछूत नहीं बनाना चाहती। तुम्हारा समाज से निकाल दिया जाना, मेरे लिए असह्य है मैं तुम्हें इतने घोर धर्म-संकट में नहीं डाल सकती। मेरे प्रति तुम्हारा जो सद्भाव हो, उस पर इतना भारी बोझ लादना कि कुछ दिनों में वह दब जाय, न मेरे लिए अच्छा है, न तुम्हारे लिए। मैं मानती हूँ, तुम मेरी खातिर वह अपमान और उपहास बर्दाश्त करोगे, लेकिन मैं इतनी स्वार्थी नहीं हूँ।’’

जेनी योगराज को छोड़ कर वापस मां के पास आ जाती है। किन्तु इस बीच विलियम जेनी की मां मिसेज गार्डन से कहता है कि जेनी पहले भी उसे पसंद नहीं करती थी और अब तो वह हजार रुपए महीना कमाती है जबकि उसकी अपनी आय मात्र 300 रुपए महीने की है। अतः अब वह जेनी से विवाह नहीं कर सकता है, नहीं तो उसे जेनी से दब कर रहना पड़ेगा। फिर वह कहता है कि जो स्त्री उसकी भावनाओं को समझती हो, उसका ख्याल रखती हो, वह उसी से विवाह करना चाहेगा। यह कहते हुए विलियम जेनी की मां मिसेज गार्डन को ‘‘प्रपोज’’ कर देता है। मिसेज गार्डन उसका प्रस्ताव स्वीकार कर उससे विवाह कर लेती हैं। इसलिए जब जेनी लौट कर मां के पास आती है तो विलियम उसका पिता बन चुका होता है। किन्तु जेनी मां और विलियम के निर्णय का स्वागत करती है। वह उनके लिए खुश होती है। कुछ समय बाद तार द्वारा सूचना मिलती है कि योगराज का निधन हो गया और अंतिम समय उसके होठों पर जेनी का नाम था। इस बीच जेनी रंजन नाम के एक युवक को पसंद करने लगी थी, किन्तु वही धर्म का बंधन आड़े आ रहा था। अतः जब उसे योगराज की मृत्यु की सूचना मिलती है तो उसे लगता है कि यदि वह धर्म के बंधन में उलझ कर न रहती और योगराज का प्रस्ताव मान लेती तो वह अवसादग्रस्त हो कर नहीं मरता, अपितु जीवित रहता। इस बात का अहसास होते ही जेनी रंजन से विवाह करने का निश्चय कर लेती है और हिन्दू रीति-रिवाज पर उसे कोई आपत्ति नहीं रह जाती है। उसे महसूस होता है कि वह एक और प्रेम को धर्म की वेदी पर बलिदान होते नहीं देख सकेगी।

इस नाटक में प्रेमचंद ने सामाजिक एवं पारिवारिक विमर्श के साथ ही प्रेम का विमर्श भी प्रस्तुत किया है। एक प्रेम जेनी का योगराज के प्रति, जिसमें आंतरिक इच्छाएं होते हुए भी सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिबद्धता है। दूसरा प्रेम योगराज का अपनी पत्नी उमा के प्रति, जिसमें वह अपनी प्रिय पत्नी को मात्र देह के रूप में देखता है और उसकी यही दैहिक अधिकार भावना उसकी पत्नी की मृत्यु का कारण बनती है। तीसरा प्रेम विलियम का जेनी के प्रति है जिसके कारण वह स्वयं को जेनी के अनुरूप बदलने का भरपूर प्रयास करता है किन्तु अंत में उसे अहसास होता है कि जेनी से अधिक तो उसकी मां मिसेज गार्डन उसे प्रेम करती हैं। चैथा प्रेम मिसेज गार्डन का विलियम के प्रति है जो पहले स्वयं मिसेज गार्डन पहचान नहीं पाती हैं किन्तु जेनी द्वारा विलियम को ठुकराए जाने और विलियम के विवाह-निवेदन पर उन्हें उस प्रेम का अहसास होता है तथा वे आयु का अंतर भूल कर विलियम को स्वीकार कर लेती हैं। पांचवा प्रेम जेनी का रंजन के प्रति है जिसे अलग धर्म का होने के कारण स्वीकार नहीं कर पा रही थी किन्तु अंत में उसे स्वीकार कर लेती है। क्योंकि वह समझ चुकी होती है कि समाज और धर्म से बड़ा प्रेम और प्रेमी का जीवन है।

इस तरह प्रेमचंद ने अपने नाटक ‘‘प्रेम की वेदी’’ में प्रेम के लगभग सभी पक्षों को विश्लेषणात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। कुल आठ अंकों में विस्तारित यह नाटक स्त्री की गरिमा, स्त्री-पुरुष की समानता तथा सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर प्रेम संबंधों का विवेचन करता है तथा एक तार्किक मानवीय रास्ता सुझाता है। यह नाटक प्रेम के प्रति प्रेमचंद के विचारों को प्रभावी ढंग से उद्घाटित करता है। प्रेमचंद ने अपने इस नाटक में प्रेम के भावनात्मक स्वरूप के साथ उसके व्यावहारिक रूप को भी इस प्रभावी ढंग से सामने रखा है कि इससे प्रेम के प्रति प्रेमचंद का समूचा दृष्टिकोण मुखर हो उठता है जो मानवता की कसौटी पर खरा उतरता है। 
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