आज 06.08.2024 को #आचरण में प्रकाशित मेरे द्वारा की गई श्री राजगोपाल सिंह वर्मा जी की पुस्तक "स्वर्णा: टैगोर की अल्पचर्चित विदुषी बहन की जीवनी" की समीक्षा।
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पुस्तक समीक्षा
विश्वप्रसिद्ध भाई की विस्मृत विदुषी बहन की जीवनी है “स्वर्णा”
समीक्षक - डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - स्वर्णा: टैगोर की अल्पचर्चित विदुषी बहन की जीवनी
लेखक - राजगोपाल सिंह वर्मा
प्रकाशक - पेंगुइन स्वदेश, पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया प्रा.लि., चौथी मंज़िल कैपिटल टाॅवर-1, एमजी रोड गुरुग्राम, हरियाणा।
मूल्य - 299/-
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जितना चुनौती भरा होता है इतिहास लेखन, उतनी ही चुनौती भरा होता है किसी व्यक्ति की जीवनी का लेखन। एक ऐसा सच जो एक व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं चरित्र से सघन परिचय कराता है किन्तु वहीं उससे जुड़े कई व्यक्तित्वों के प्रभामंडल के पीछे छिपे सच को भी सामने ले आता है। वस्तुतः यह एक व्यक्ति का ऐसा इतिहास होता है जो तत्कालीन समय, दशा और विचार को प्रदर्शित करता है। देश की स्वतंत्रता से पूर्व रहे किसी व्यक्ति की जीवनी परतंत्र भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की कथा भी कहता चलता है क्योंकि उस समय हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ा हुआ था। इसके साथ ही संघर्ष जारी था स्त्री समाज में जागरूकता लाने का और उन्हें उनके अधिकार दिलाने का। राजा राममोहन राय जैसे व्यक्ति निरंतर इस बात के लिए प्रयत्नशील रहे की महिलाओं को समाज में सम्मान मिले तथा सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा से मुक्ति मिले। सती प्रथा के साथ ही एक बहुत बड़ी समस्या थी विधवाओं के साथ होने वाले अन्याय की। जो विधवाएं सती नहीं होती थीं उन्हें जीवनपर्यंत अपार उपेक्षा एवं कष्ट सहने पड़ते थे। उनका जीवन एक सज़ा पाए कैदी से भी बदतर होता था। समाज में एक विधुर को पुनर्विवाह करने का अधिकार था किंतु विधवा को नहीं। विधवाओं को समाज में सम्मान दिए जाने और उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार मिल सके इस हेतु भी संघर्ष जारी था। इसी दौरान बंगाल में रवीन्द्रनाथ टैगोर एक ऐसे चर्चित साहित्यकार के रूप में स्थापित हुए जिन्हें आगे चलकर नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। रवींद्रनाथ टैगोर का परिवार साहित्यिक विचारों से सुसम्पन्न था। उनकी बड़ी बहन स्वर्ण कुमारी बहुत ही विदुषी लेखिका, विचारक एवं कुशल संपादक थीं। किंतु रवीन्द्रनाथ टैगोर की आभा के सम्मुख उनकी बहन की प्रतिभा को भुला दिया गया। एक बार फिर इस विदुषी महिला को उसकी संपूर्ण प्रतिभा के साथ सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया है इतिहासकार एवं जीवनी लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने। उनकी पुस्तक है ‘‘स्वर्णा: टैगोर की अल्पचर्चित विदुषी बहन की जीवनी’’।
राजगोपाल सिंह वर्मा एक प्रबुद्ध रचनाकार हैं । उनके लेखन सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे गहन शोध के बाद अपनी कृति को पूर्णता प्रदान करते हैं। वे प्रत्येक तथ्य को ढूंढते हैं, जांचते-परखते हैं और फिर उसे लेखबद्ध करते हैं। यह रचनाप्रक्रिया उनकी कृतियां स्वयं बताती हैं। राजगोपाल सिंह वर्मा की प्रमुख कृतियां हैं-जॉर्ज थॉमस: हांसी का राजा (जीवनी), 1857 का शंखनाद उत्तर दोआब लोक का संघर्ष (उपन्यास), चिनहट: 1857: संघर्ष की गौरव गाथा (इतिहास), किंगमेकर्स, औपनिवेशिक काल की जुनूनी महिलाएं (इतिहास), तारे में बसी जान (कहानी संग्रह), जाने वो कैसे लोग थे: 1857 के क्रान्तिकारी (उत्तर प्रदेश के अल्पचर्चित क्रान्तिवीरों की प्रेरणादायक कहानियाँ) तथा द लेडी ऑफ टू नेशन: लाइफ एंड टाइम्स ऑफ राना बेगम (अंग्रेजी जीवनी) तथा बेगम समरू का सच। इनमें से “बेगम समरू का सच” मैं पढ़ चुकी हूं और इसी काॅलम में उसकी समीक्षा भी कर चुकी हूं। दरअसल, “बेगम समरू का सच” लेखक की वह पहली कृति थी जिसे मैंने पढ़ा था। उसे पढ़ते समय मुझे लेखक की विषय के प्रति गहन दृष्टि और श्रम का बोध हुआ, जिसने मुझे आश्वस्त किया कि ऐसे लेखक अभी भी लेखन की प्रतिबद्धता को बखूबी निभा रहे हैं। राजगोपाल सिंह वर्मा इतिहास के पन्नों में दर्ज़ उपेक्षित किरदारों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। स्वर्णा कुमारी के बारे में कलम चलाते हुए लेखक ने जिन पक्षों को उजागर किया है, वे जितने रोचक हैं उतने ही जोखिम भरे हैं।
महर्षि देवेन्द्रनाथ एवं सारदा देवी की पुत्री स्वर्णा के रवीन्द्रनाथ टैगोर सहित आठ बहन-भाई थे। बहनें थीं सौदामिनी, सुकुमारी एवं सरतकुमारी। भाई थे द्विजेन्द्रनाथ, हेमेन्द्रनाथ, सत्येद्रनाथ, ज्योतिरिन्द्रनाथ, रवीन्द्रनाथ। स्वर्णा कुमारी का विवाह जानकीनाथ घोषाल से 12 वर्ष की अवयस्क आयु में हुआ था, जबकि जानकीनाथ घोषाल की आयु उस समय 27 वर्ष थी। स्वर्णा कुमारी ने तीन बेटियों हिरण्मयी देवी, उर्मिला, सरला देवी तथा एक बेटे ज्योत्सनानाथ को जन्म दिया। उनकी बेटी सरला देवी महात्मा गांधी के बहुत निकट रहीं। सरला के पति रामभुज दत्त चौधरी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहने के साथ ही उर्दू साप्ताहिक समाचार पत्र “हिन्दुस्थान” के संपादक भी थे। लेखक ने पृष्ठ 37 में लिखा है कि ‘‘गांधीजी सरला से बहुत प्रभावित हुए और उसकी तरफ आकर्षित हो गए। बाद में गांधी-सरला देवी की नजदीकियाँ लाहौर के साथ-साथ और जगह भी चर्चा का विषय बनने लगीं। गांधीजी ने सरला की कविताओं और लेखों को बहुत पसन्द किया और उनका अपने भाषणों में तो जिक्र किया ही, उन्हें अपने समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ और अन्य पत्रिकाओं में भी स्थान दिया। सरला ने उनके साथ पूरे भारत की यात्राएं कीं। जब वे साथ नहीं होते थे तो वे दोनों आपस में पत्रों का आदान- प्रदान किया करते थे।’’
बाद में सरला देवी के इकलौते बेटे दीपक से महात्मा गांधी की पोती राधा का विवाह हुआ था। इस प्रकार की जानकरियों ने पुस्तक की तथ्यात्मक को बढ़ाया है और कई बंद पन्नों को खोला है।
पुस्तक की केंद्रबिंदु स्वर्णा कुमारी की जीवनी के उन सभी पक्षों को विविध शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है जिनसे उस महिला का जीवनसंघर्ष मुखर होता है जो कुलीन एवं आर्थिक सुसम्पन्न बंगाली परिवार की थी किन्तु स्त्री होने के नाते उसकी राह में बाधाएं औरों से कम नहीं थीं। स्वर्णा कुमारी जन्म से ही कुशाग्र बुद्धि की थी। उन्हें अपने पिता देवेन्द्रनाथ ए्वं बड़े भाई सत्येंद्र नाथ से सदा प्रोत्साहन मिला। उन्होंने उपन्यास, कविताएं, सामाजिक लेख, विज्ञान विषयक लेख आदि लिखने के साथ ही ‘‘भारती’’ नामक पत्रिका का संपादन भी किया।
लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने एक आश्चर्यचकित करने वाला तथ्य यह भी उजागर किया है कि स्वर्णा कुमारी को लेखन, संपादन तथा अनुवाद के प्रसंग में सबसे अधिक विरोध अपने छोटे भाई रवीन्द्रनाथ का ही झेलना पड़ा। लेखक ने इस बात पर खेदसहित आश्चर्य व्यक्त किया है कि जहां स्वर्णा कुमारी ने अपने छोटे भाई रवींद्रनाथ टैगोर को अपना काव्य संग्रह समर्पित किया, वहीं टैगोर ने अपनी विदुषी बड़ी बहन के नाम एक भी कृति समर्पित नहीं की। वहीं, जब स्वर्णा कुमारी की पुस्तक अंग्रेजी में अनूदित हुई तो इसका रवीन्द्रनाथ ने आलोचनात्मक शब्दों में विरोध किया। लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा ने पृष्ठ 137 में लिखा है कि ‘‘रवीन्द्रनाथ टैगोर स्वर्णा कुमारी देवी के इस दूसरे उपन्यास ‘एन अनफिनिश्ड सान्ग’ का प्रकाशन किए जाने के अन्य कारणों से भी बहुत विरुद्ध थे। उनका कहना था कि ‘देवी की इस कृति में प्रमाणिकता की कमी है, क्योंकि उनको बाहरी दुनिया का बहुत मामूली अनुभव रहा था’। ऐसा कहना रवीन्द्रनाथ टैगोर को शोभा नहीं देता था, क्योंकि इस उपन्यास के लेखन में स्वर्णा कुमारी देवी ने बहुत परिश्रम किया था। इसीलिए अन्ततः प्रकाशन के बाद उसे पाठकों का बहुत स्नेह मिला। तत्कालीन समाज की स्थितियों के सन्दर्भ में यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक माना जाता है।’’
स्वर्णा कुमारी के प्रति रवीन्द्र नाथ टैगोर का दुराव संपादन के क्षेत्र में भी प्रकट हुआ जब उन्होंने स्वर्णा के संपादन में प्रकाशित होने वाली ‘‘भारती’’ पत्रिका के समकक्ष ‘‘बंगदर्शन’’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इस संदर्भ में लेखक ने पृष्ठ 64 में लिखा है कि “‘भारती’ को टक्कर देने वाला कोई बाहरी नहीं, घर का ही एक सदस्य था। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1908 में ‘बंगदर्शन’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था।’’
स्वर्णा कुमारी स्वयं एक अच्छी लेखिका थीं तथा वे चाहती थीं कि अन्य महिलाएं भी लेखन के क्षेत्र में स्वयं को अभिव्यक्त करें। इसलिए उन्होंने ‘‘भारती’’ पत्रिका में लेखिकाओं के लेख प्रकाशित करने का जो आधार तय किया था वह था कि लेख के विषय ऐसे हों जो पाठकों में नवीन चेतना का संचार कर सकें। स्वर्णा कुमारी ने स्वयं अपने एक लेख में लिखा था की जो विधवाएं पुनर्विवाह नहीं करना चाहती हों, उनके लिए शिक्षा की आवश्यक व्यवस्थाएं की जानी चाहिए। उन्होंने पंडिता रमाबाई के पुनर्जागरण से परिपूर्ण तथा चेतना को जगाने वाले लेख, भाषण और विचार भी प्रकाशित किए। इस मुद्दे पर भी रवीन्द्रनाथ का विरोधी स्वर मुखर हुआ और तब स्वर्ण कुमारी ने पंडिता रमाबाई का खुलकर पक्ष लिया। पृष्ठ 75-76 में इस विषय पर विस्तृत जानकारी दी गई है जिसका एक बहुत छोटा सा अंश इस प्रकार है - ‘‘यह चर्चा पंडिता रमाबाई के भाषण पर लिखे गए एक पत्र के सन्दर्भ में थी जो ‘भारती’ के सन 1889 के आषाढ़ अंक में प्रकाशित हुआ था। रमा बाई ने टिप्पणी की थी कि, ‘‘स्त्रियाँ हर मामले में पुरुषों के बराबर हैं, केवल शराबखोरी की आदत को छोड़कर !’’
पंडिता रमाबाई की इस टिप्पणी से रवीन्द्रनाथ टैगोर बहुत आक्रोशित हुए थे। उन्होंने पत्रिका के सम्पादक के नाम एक पत्र लिखकर इसका विरोध किया। परन्तु इस मामले में स्वर्णा कुमारी जो ‘‘भारती’’ की सम्पादक थीं, अपने भाई के विरोध में खड़ी हो गईं।’’
स्वर्णा कुमारी के अल्प चर्चित रह जाने का एक कारण यह भी रहा होगा कि वे रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्धि के वट वृक्ष के नीचे मौजूद थीं और रवीन्द्रनाथ उनके लेखन के प्रति सहयोग अथवा उदारता की भावना नहीं रखते थे। फिर भी स्वर्णा कुमारी ने जीवनपर्यंत लेखन कार्य किया। उनकी कई कृतियां अंग्रेजी, फ्रांसीसी और जर्मन में अनूदित हुईं। उन्हें अपने जीवनकाल में अपने तीन बड़े भाइयों के साथ ही पति जानकीनाथ तथा पुत्री हिरण्यमयी के निधन का भी असीम दुख सहना पड़ा। फिर भी वे अपने कर्तव्य पर डटी रहीं और महिला जागरण के पक्ष में निरंतर सक्रिय रहीं।
जीवनीकार राजगोपाल सिंह वर्मा ने एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है जो कि निश्चित रूप से विचारणीय है। पृष्ठ 160 में वे लिखते हैं कि ‘‘यह दुखद है कि राष्ट्रवादी इतिहास और स्त्रीवादी आन्दोलनों में स्वर्णकुमारी देवी का नाम बहुत उपेक्षित स्थिति में रहा है। यदि कहीं उनकी चर्चा की भी जाती है तो उसे भी उनकी ख़ुद की बेटी सरला देवी के कृतित्व के बाद में रखा जाता है जबकि ईमानदारी से देखा जाए तो उस चुनौतीपूर्ण समय में उनके लिखे गए उपन्यास और कहानियाँ उनके प्रगतिशील कथानकों के कारण पश्चिमी देशों तक में चर्चा में आए थे।’’
राजगोपाल सिंह वर्मा ‘‘स्वर्णा’’ के द्वारा अतीत के पन्ने खंगालते हुए वर्तमान की आंखें खोलने के लिए कटिबद्ध दिखाई देते हैं। उनकी लेखनी में रोचकता है, प्रवाह है और इतिहास का स्पष्ट प्रतिबिम्ब है। यह जीवनी विदुषी स्त्री की साहित्यातिहास द्वारा उपेक्षा किए जाने के सच को सामने रखती है उसके पक्ष में न्यायसंगत साक्ष्य प्रस्तुत करती है। न केवल रोचकता अपितु विगत की सच्चाई को जानने के लिए इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
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