Friday, June 13, 2025

शून्यकाल | हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | नयादौर

दैनिक 'नयादौर' में मेरा कॉलम -शून्यकाल
 शून्यकाल
हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता
     - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह                                   
      जब से सोनम रघुवंशी कांड सामने आया है तब से सोशल मीडिया पर जिस तरह लड़कियों के बारे में विचार व्यक्त किए जा रहे हैं वह ट्रोल करने वालों की बीमार मानसिकता को बखूबी दिखाते हैं। यह सोचना कि आज की लड़कियों को क्या होता जा रहा है, बिल्कुल व्यर्थ की चिंता है। क्योंकि हर लड़की सोनम रघुवंशी नहीं होती, ठीक उसी तरह जैसे हर पति सुशील शर्मा नहीं होता जिसने अपनी पत्नी को मार कर तंदूर में जला दिया था। समाज में घटित होने वाली किसी एक घटना को लेकर सभी पर प्रश्न चिन्ह लगाना एक बीमार मानसिकता का सबूत है। सोनम रघुवंशी ने जो किया वह तो गलत है ही लेकिन सभी लड़कियों को ट्रोल किया जाना भी गलत है।

    एक लड़की अपराध करें और सभी लड़कियों को मजाक का निशाना बनाया जाए यह कहां का इंसाफ है? राक्षसी समाज में भी जहां सूर्पनखा जैसी स्त्री हुई जिसने रावण को उकसाया कि वह सीता का अपहरण कर के राम को दंडित करे, वही मंदोदरी जैसी स्त्री भी हुई जिसने सीता के सतीत्व के प्रति रावण को सदैव सचेत किया तथा सीता का पक्ष लिया। हर समाज में कुछ लोग अच्छे होते हैं तो कुछ बुरे होते हैं और कुछ बहुत बुरे होते हैं। लेकिन बहुत थोड़े से कुछ बहुत बुरे लोगों के कारण पूरे समाज पर लांछन नहीं लगाया जा सकता है।
        जो 1995 के आसपास पैदा हुए होंगे वह तो तंदूर कांड के बारे में जानते ही नहीं होंगे लेकिन जो उस समय युवा या प्रौढ़ रहे होंगे वे बखूबी उस घटना के बारे में उस समय पढ़े और सुने होंगे और आज भी याद करके सिहर उठते होंगे। अपराध की कहानियों में एक रोंगटे खड़े कर देने वाली वारदात के रूप में नैना साहनी तन्दूर कांड दर्ज़ है।  नैना साहनी की हत्या उसके पति सुशील शर्मा ने 2 जुलाई 1995 को की थी। दिल्ली युवक कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष और तत्कालीन विधायक सुशील शर्मा और उसकी पत्नी नैना साहनी दोनों मैं पहले अच्छे संबंध थे। फिर सुशील शर्मा को संदेह हुआ कि नैना के सम्बंध उसके सहपाठी करीम मतलूब से हैं। इसी संदेह के चलते यह जघन्य घटना घटी। 02 जुलाई 1995 को सुशील ने नैना को किसी से फोन पर बात करते देखा। बात खत्म होने के बाद सुशील ने फोन री-डायल किया। नैना ने   करीम मतलूब से बात किया था । वह क्या बात कर रही थी यह पूछे बिना उसने गुस्से में आकर नैना पर लाइसेंसी रिवाल्वर से ताबड़तोड़ तीन फायर कर दिए। इसमें नैना की मौत हो गई। पुलिस के अनुसार सुशील नैना के शव को लपेटकर अशोक यात्री निवास स्थित बगिया रेस्टोरेंट ले गया। वहां उसने नैना के कई टुकड़े किए और तंदूर में झोंक दिए। सुशील ने रेस्टोरेंट के मैनेजर केशव की मदद से नैना के शव को तंदूर में जलाने की कोशिश की। इसी कारण इसे तन्दूर हत्याकांड कहा जाता है।
          दूसरी घटना राजनीतिक की जमीन की नहीं बल्कि एक प्रेम कहानी से शुरू हुई जिसका रोंगटे खड़े कर देने वाला अंत हुआ। इस प्रेम कहानी की शुरुआत 2010 में हुई, जब छपरा बिहार की रहने वाली जूही के पास साजिद अली गलती से कॉल कर बैठा। रॉन्ग नंबर डॉयल होने पर दोनों में बातचीत होने लगी और बात परस्पर प्रेम तक जा पहुंची। सन 2011 में साजिद ने कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की और इसी बीच जूही ने गर्वमेंट कॉलेज से बीए आनर्स साइकोलॉजी से पढ़ाई की।
जूही और साजिद एक दूसरे से शादी करना चाहते थे किंतु परिवार वाले राजी नहीं थे। इसलिए सन 2014 में घर वालों के खिलाफ जाकर दोनों ने शादी कर ली। फिर 2016 में दोनों बिहार से दिल्ली पहुंचे और कुछ समय बाद दोनों में अनबन होने लगी। यह अनबन इतनी अधिक बढ़ी कि एक दिन साजिद ने जूही को गला दबाकर मार दिया। बात यही नहीं थमीं। इसके बाद साजिद ने अपने दो भाइयों के साथ मिलकर जूही के शव के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें बैग्स में भरकर जंगल में फेंक दिया। 
          क्या साजिद की इस हरकत पर हर लड़के या हर पति पर उंगली उठाई जा सकती है? 
    हमारे देश में दहेज हत्याएं तो दशकों से होती चली आ रही है लेकिन कभी भी इसके लिए सभी लड़कों को ट्रोल नहीं किया गया। किया भी नहीं जाना चाहिए क्योंकि हर व्यक्ति अपराधी प्रवृत्ति का नहीं होता है। समाज में अनेक ऐसे उदाहरण है जब पत्नी ने पति की जान बचाने के लिए अपनी किडनी पति को दे दी। भारतीय पत्नियां तो वैसे भी सेवा भाव के लिए सम्मान की दृष्टि से देखी जाती हैं।
       सोनम रघुवंशी कांड पर कुछ भी टिप्पणी करना या लिखना आवश्यक नहीं था किंतु जब सोशल मीडिया पर कुछ ऐसी टिप्पणियां देखी जो सभी लड़कियों को लक्ष्य करके लिखी गई थीं, तो मन विचलित हुआ। समाज में स्त्री और पुरुष दोनों समान महत्व रखते हैं, ऐसे में एक-दूसरे के प्रति संदेह को जन्म देना या एक दूसरे के प्रति भय उत्पन्न करना या किसी भी एक पक्ष को पूरा का पूरा संदेह के घेरे में खड़ा कर देना मुझे उचित नहीं लगता। मैंने सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी पढ़ी जिसमें यह कहा गया था की "इंदौर की लड़कियों को क्या हो गया है?" 
एक अन्य टिप्पणी थी -"यहां सब की सब ऐसी ही हैं।"
एक और टिप्पणी थी जिसमें यह विचार व्यक्त किया गया था कि "अब लड़के शादी करने से डरेंगे।"
       इसमें कोई संदेह नहीं की जो अपराध सोनम रघुवंशी ने किया वह क्षमा के योग्य नहीं है। यह सुनकर अवाक रह जाना स्वाभाविक है कि कोई नव विवाहिता अपने हनीमून के दौरान अपने पति को सुपारी देकर मरवा सकती है अथवा सुपारी किलर द्वारा ना मारे जाने पर स्वयं मारे जाने को ततपर हो सकती है। यदि न्यायालय की भाषा में इसे कहा जाए तो यह "रेयर ऑफ द रेयरेस्ट" केस है। ऐसी वारदात करने वाले सभी अपराधियों को यानी सोनम रघुवंशी और उसके साथियों को कठोर दंड दिया ही जाना चाहिए किंतु इस जघन्य घटना को लेकर किसी शहर विशेष की लड़कियों अथवा समाज की सभी लड़कियों अथवा सभी विवाहित स्त्रियों को लक्ष्य करके लांछित करने वाली टिप्पणियां करना अनुचित है। सोशल मीडिया पर विराजमान कथित बुद्धिजीवियों को इस तरह लांछन लगाकर चुटकुले बाजी करने के बजाय गंभीरता से यह सोचना चाहिए कि यह स्थिति बनी क्यों और कैसे? परिवार अथवा समाज में कहीं कोई ऐसी बड़ी चूक तो नहीं हो रही है जिससे अभी और सोनम रघुवंशी पैदा हो सकने की संभावना हो। सोनम रघुवंशी ने अपने  नव विवाहित पति राज रघुवंशी को मारने के बजाय विवाह के पहले ही शादी करने से मना क्यों नहीं किया? जब वह इतनी गहरी अपराधिक प्रवृत्ति की है तो वह खुलकर अपने अनचाहे (?) विवाह का विरोध क्यों नहीं कर सकी? क्या पारिवारिक दबाव था अथवा वह किसी आपराधिक रोमांच का अवसर ढूंढ रही थी? इन प्रश्नों के उत्तर धीरे-धीरे सामने आते जाएंगे। आरंभिक परिस्थितियों में तो स्वयं राज रघुवंशी के परिवार वाले सोनम को अपराधी मानने को तैयार नहीं थे। एक हंसी खुशी से किए गए विवाह उत्सव के बाद ऐसी जघन्य हत्या की कल्पना भला कौन कर सकता है? इस तरह का अपराध कोई साइको अपराधी ही अंजाम दे सकता है।
        अपराधियों का मनोविज्ञान अर्थात क्रिमिनल साइकोलॉजी अपने आप में एक अलग अध्ययन शाखा है। इसमें आपराधिक व्यवहार और उसके कारणों का अध्ययन किया जाता है। इसमें अपराधियों के विचारों, भावनाओं और व्यवहारों का विश्लेषण शामिल है। यह अपराधियों के प्रोफाइल बनाने, उनके पुन: अपराध के जोखिम का मूल्यांकन करने, और पुनर्वास कार्यक्रमों को विकसित करने में मदद करता है। डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय में क्रिमिनोलॉजी एक स्वतंत्र विभाग है जिसमें अपराध से संबंधित सभी पक्षों का अध्ययन एवं अध्यापन किया जाता है। अपनी किताब “न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां” लिखने से पूर्व मेरा क्रिमिनोलॉजी या फॉरेंसिक साइंस यानी न्यायालयिक विज्ञान से कोई नाता नहीं था। मैं इतिहास की विद्यार्थी रही तथा साहित्य में कलम चलाई। किंतु अपराध अन्वेषण ब्यूरो द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापन निकाल कर जब “न्यायालयिक विज्ञान की नई चुनौतियां” ( द न्यू चैलेंज का फॉरेंसिक साइंस) विषय पर पुस्तक लिखने के लिए स्वतंत्र लेखकों को आमंत्रित किया गया तो मुझे यह विषय एक चुनौती जैसा लगा और मैंने इस विषय पर पुस्तक लिखने की ठानी। अपराध अन्वेषण ब्यूरो नई दिल्ली द्वारा मेरी सिनॉप्सिस स्वीकार कर लिए जाने के बाद मुझे किताब लिखने की स्वीकृति प्रदान की गई। इसके बाद मैंने अपराध शास्त्र और फोरेंसिक विशेषज्ञों से चर्चाएं की। विश्वविद्यालय के जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय में बैठकर घंटों अपराध विज्ञान एवं फॉरेंसिक साइंस संबंधित पुस्तक पढ़ीं। इस दौरान मुझे क्रिमिनल साइकोलॉजी पढ़ने की भी जरूरत पड़ी। “न्यायिक विज्ञान की नई चुनौतियां” विषय पर मेरे द्वारा लिखी गई किताब को राष्ट्रीय गोविंद बल्लभ पंत पुरस्कार प्रदान किया गया। यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी बात थी क्योंकि इससे पूर्व मैं कला संकाय की एक छात्रा रही। “खजुराहो की मूर्ति कला के सौंदर्यात्मक तत्व” पर  मैं पीएचडी की थी। लेकिन इस किताब को लिखने के बाद अपराध और अपराधियों को देखने का मेरा नजरिया ही बदल गया। अब जब किसी अपराध के बारे में मैं पढ़ती हूं तो मुझे लगता है कि अपराध की तह में जाकर यह जानना भी जरूरी है कि यह घटित हुआ तो क्यों हुआ? भले ही घटना के कारण के आधार पर हर अपराधी को निर्दोष या मासूम नहीं कहा जा सकता है, यह घटना की प्रकृति पर निर्भर करता है कि अपराधी ने कितनी क्रूरता से अपराध को अंजाम दिया। लेकिन जब से सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी मिली है तब से सभी को न्यायाधीश बनने की बड़ी हड़बड़ी रहती है। किसी भी अपराध का घटनाक्रम पूरी तरह सामने आए बिना ही लोग अपराधी या निरपराध की घोषणा करने लगते हैं। संयम की यह कमी भी अपने आप में एक मानसिक अस्थिरता की परिचायक है। 
           सिर्फ सोनम रघुवंशी का मामला ही नहीं, बल्कि और भी जातिगत या धार्मिक अपराधों में भी सीधे-सीधे लोगों पर आक्षेप लगाए जाने लगता है। क्या किसी एक व्यक्ति के अपराध के आधार पर किसी समुदाय, किसी जाति या किसी लिंग के सभी लोग अपराधी प्रवृत्ति के हो सकते हैं? हर व्यक्ति की मानसिकता परस्पर दूसरे से भिन्न होती है हर कोई अपराध में प्रवृत नहीं हो सकता है। लड़ाई, झगड़ा, विवाद आदि तो हर परिवार में होते हैं लेकिन कोई किसी की जघन्य हत्या नहीं करता। इसलिए किसी एक लड़के या लड़की के अपराध को लेकर पूरे लड़कों या लड़कियों को संदेह के घेरे में खड़ा कर देना उचित नहीं है। कई ऐसे सोशल मीडिया वीर भी हैं जो तात्कालिक आवेग में आकर अनाप-शनाप टिप्पणी कर देते हैं अथवा पोस्ट डाल देते हैं और फिर जब उन्हें समझ में आता है कि वे जल्दबाजी कर बैठे हैं तो वह तत्काल अपनी टिप्पणी या पोस्ट डिलीट कर देते हैं। ऐसे लोग भी अस्थिर मानसिकता के होते हैं। ऐसे लोगों के प्रभाव में सोशल मीडिया के कृत्रिम आवेग में आकर कोई भी टिप्पणी करने से पहले यह ध्यान में रखना जरूरी है कि हर लड़की सोनम नहीं होती जैसे हर पति तंदूर कांड नहीं करता है। 
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