आज 03.06.2025 को 'आचरण' में प्रकाशित - पुस्तक समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
स्मृतियों की सनद साहित्यकारों की भावी पीढ़ी के लिए
- समीक्षक डॉ (सुश्री) शरद सिंह
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पुस्तक - ताकि सनद रहे (संस्मरण)
लेखक - श्यामसुंदर दुबे
प्रकाशक - सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, एन-77, पहली मंजिल, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली-110001
मूल्य - 350/-
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स्मृतियों की सहेजने की प्रवृत्ति मानव में आदिकाल से रही है किन्तु सभी यह नहीं समझ पाते हैं कि वे अपनी स्मृतियों एवं अनुभवों को कैसे सहेजंे? इसीलिए अनेक स्मृतियां व्यक्ति के साथ कालकवलित हो जाती हैं और दूसरे इंसान उन्हें जान ही नहीं पाते हैं। अपनी स्मृतियों को स्थायीत्व प्रदान करने के लिए ही प्रक्मानवों ने गुफा एवं शैलचित्र बनाए। जिनके कारण हजारों वर्ष बाद भी आज हम उन प्राक्मानवों के जीवन एवं अनुभवों के बारे में जान पाते हैं। साहित्य में यही भूमिका निभाई है संस्मरण लेखन ने। स्मृतियों को लेखबद्ध कर सहेजने और उसे भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित कर देने की विधा ही है संस्मरण लेखन। इसी संदर्भ में आज की समीक्ष्य पुस्तक है डॉ. श्यामसुंदर दुबे की संस्मरण पुस्तक ‘‘ताकि सनद रहे’’।
12 दिसंबर, 1944 को हटा (दमोह) में जन्मे डॉ श्यामसुंदर दुबे कथाकार, ललित निबंधकार, कवि, समीक्षक और लोकविद् हैं। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय में एम.ए., पी-एच.डी. तक शिक्षा ग्रहण की। लगभग चालीस वर्ष तक वे उच्च शिक्षा विभाग, मध्य प्रदेश में प्रोफेसर-प्राचार्य पदों पर कार्यरत रहे। बाद में वे डायरेक्टर मुक्तिबोध सृजन पीठ, सागर विश्वविद्यालय में भी पदस्थ रहे। डॉ दुबे का एक दीर्घ जीवनानुभव है, साथ ही साहित्य जगत में भी उनका परिचय का दायरा अत्यंत विस्तृत रहा है। यूं तो उनकी पहचान लोक संस्कृति के विद्वान के रूप में स्थापित है किंतु उन्होंने विविध विधाओं में भी अपनी लेखनी चलाई है। अब तक उनके अनेक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। “ताकि सनद रहे” उनकी संस्मरण पुस्तक है। यह बहुत ही रोचक और विभिन्न व्यक्तित्वों से परिचित कराने वाली कृति है।
संस्मरण अपने आप में एक साहित्यिक इतिहास की भांति होता है। विभिन्न व्यक्तियों से संबंध अतीत के अनुभवों से न केवल उन व्यक्तियों के बारे में जानकारी मिलती है बल्कि तत्कालीन साहित्यिक दशा एवं विचारधारा का भी ज्ञान होता है। हिंदी साहित्य में बालमुकुंद गुप्त द्वारा सन् 1907 में प्रतापनारायण मिश्र पर लिखे संस्मरण को हिंदी का प्रथम संस्मरण माना जाता है। बाद में इस काल की एकमात्र संस्मरण पुस्तक ‘‘हरिऔध’’ पर केंद्रित गुप्त जी द्वारा लिखित ‘‘हरिऔध के संस्मरण’’ के नाम से प्रकाशित हुई। हिन्दी साहित्य में वास्तविक संस्मरण लेखन कार्य द्विवेदी युग से प्रारंभ हुआ। द्विवेदी की प्रेरणा से “सरस्वती” पत्रिका में अनेक संस्मरण प्रकाशित हुए। इन संस्मरणों में लेखक की आत्मानुभूति की प्रधानता रही है। संस्मरण साहित्य को समद्ध बनाने में अनेक संस्मरणकारों का योगदान मिला है। रामवृक्ष बेनीपुरी, कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’, राहुल सांकृत्यायन, महादेवी वर्मा, बाबू गुलाब राय, देवेन्द्र सत्यार्थी, इलाचन्द्र जोशी, सेठ गोविंद दास, राजेन्द्र यादव, यशपाल, भगवती चरण वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, उपेन्द्र नाथ अश्क, डॉ. नग्रेन्द्र, भदंत आनंद कौसल्यायन, विष्णु प्रभाकर तथा डॉ कांतिकुमार जैन आदि उल्लेखनीय संस्मरण लेखक हुए हैं। इसी क्रम में डॉ. श्यामसुंदर दुबे का नाम भी शामिल हो गया है।
डॉ. श्यामसुंदर दुबे की संस्मरण पुस्तक ‘‘ताकि सनद रहे’’ कुल 25 संस्मरण हैं। इनके शीर्षक क्रमानुसार इस प्रकार हैं - डॉ. विद्यानिवास मिश्र रचना से परे, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ एक स्मृति, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’: हम तो निकम्मे थे, गोपाल दास ‘नीरज’: बस सही अपराध मैं हर बार करता हूँ, महादेवी वर्मा: अमर्ष का वह एक क्षण, डॉ. भगीरथ मिश्र: सागर के श्वेत सरसिज, नईम: खतोकिताबत के मौसम फिर कब आएँगे, गिरिराज किशोर: कथा-रस के प्रणेता, प्रो. कृष्णदत्त पालीवाल: हिंदी समीक्षा के सेतु पुरुष, दमोह के उत्सव पुरूष दिनकर सोनवलकर, डॉ. रामजी उपाध्याय: संस्कृत और संस्कृति के परमहंस, गोविन्द मिश्र: मोहक मुस्कान की बेफिक्री, डॉ. रामरतन भटनागर: साहित्य की अलकापुरी के शापित यक्ष, रमेशचंद्र शाह: पाँखुरी-दर-पाँखुरी खुलता एक फूल, डॉ. शिवकुमार मिश्र: बीहड़ पर्वत से फूटता एक निर्झर, डॉ. जगदीश गुप्त: कवियों में अच्छे चित्रकार और चित्रकारों में अच्छे कवि, अशोक वाजपेयी: बहुरि अकेला, डॉ. भास्कराचार्य त्रिपाठी: संस्कृत साहित्य के वासंती रस-रंग, डॉ. प्रेम भारती: ऋषि-खग-कुल से बिछुड़े विहंग, मनोहर काजल: छाया-प्रकाश के आखेटक फोटोग्राफर, डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त बरसैयाँ: अज्ञातों के अनवरत आराधक, श्री श्यामसुंदर: सरस्वती और लक्ष्मी का अशेष आशीष, नंदकिशोर देवड़ा: धुन के पक्के कला-रसिक, डॉ. कांतिकुमार जैन: संस्मरण विधा के महाबली तथा डॉ. श्रीराम परिहार: शब्दों का पारखी।
यूं तो पुस्तक में प्रथम संस्मरण डॉ. विद्यानिवास मिश्र पर है किन्तु मैं चर्चा शुरू करूंगी ‘‘डॉ. कांतिकुमार जैन: संस्मरण विधा के महाबली’’ शीर्षक संस्मरण से। डॉ. कांतिकुमार जैन को यह श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने आधुनिक हिन्दी साहित्य में संस्मरण लेखन को पुनः जाग्रत किया। ‘‘हंस’’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने उन्हें संस्मरण लिखने को प्रोत्साहित किया था तथा ‘‘हंस’’ में उनके लिखे संस्मरणों को प्रमुखता से प्रकाशित भी किया। संस्मण लेखन ने ही डॉ. कांतिकुमार जैन को एक अलग पहचान दी। यद्यपि वे अपने संस्मरणों के कारण विवादों से भी घिरे, किन्तु इसमें कोई दो मत नहीं है कि उन्होंने संस्मरण लेखन के प्रति हिन्दी पाठकों में पुनः रुचि जगाई। डॉ. कांतिकुमार जैन के बारे में जब डाॅ श्यामसुंदर दुबे ने संस्मरण लिखा तब डाॅ जैन जीवित थे। इसलिए भी उनसे जुड़ा यह संस्मरण लेख बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इसमें डाॅ. दुबे ने उनसे जुड़े अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को निःसंकोच लेखबद्ध किया है। इस लेख में एक तटस्थता भी है। उनका यह लेख व्यक्ति के स्वभाव एवं चरित्र का तटस्थ आकलन करता है। जब डाॅ दुबे को कुछ दोषपूर्ण लगा तो उन्होंने उसे उद्धृत किया और जब उन्हें प्रशंसनीय लगा तो उसे भी रेखांकित किया। यह तटस्था ही किसी भी व्यक्ति का सही आरेख प्रस्तुत करती है। डाॅ. श्यामसुंदर दुबे भाषाई कौशल से सम्पन्न हैं, उनकी संवेदनाएं विस्तृत हैं जिसका परिचय उनकी लोक संस्कृति संबंधी पुस्तकों में तो मिलता ही है, इस संस्मरण पुस्तक में भी मौजूद है। बानगी के तौर पर डाॅ. कांतिकुमार जैन से संबंधित संस्मरण के एक अंश यहां मैं यथावत दे रही हूं-
‘‘मेरी एक शोध छात्रा के शोध प्रबंध के वे परीक्षक थे। ये शोध कार्य गुरु घासी दास विश्वविद्यालय, विलासपुर से संपन्न हुआ था। विश्वविद्यालय ने उन्हें मौखिकी के लिए आमंत्रण किया था। मौखिकी की तिथि का निर्धारण मुझे और डॉ. जैन को मिलकर करना था। यह एक औपचारिकता ही होती है, अन्यथा तिथि निर्धारण में मुख्य भूमिका तो बाह्य परीक्षक की ही होती है। डॉ. जैन के अनुसार, निर्धारित तिथि विश्वविद्यालय ने मान्य कर ली। किंतु इस तिथि का आमंत्रण न मुझे मिला, न उसकी सूचना मेरी शोध छात्रा को मिली। उस समय दूरभाष का इतना प्रचलन नहीं था। इसलिए पत्र ही सूचना के माध्यम थे। शोध छात्रा उन दिनों सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में थी। डॉ. जैन को तिथि याद थी। उन्हें शोध छात्रा का ध्यान था कि उसे जल्दी शोधोपाधि प्राप्त हो जाए। वे निर्धारित तिथि पर विश्वविद्यालय पहुँच गए किंतु वहाँ न शोध छात्रा थी और न आंतरिक मौखिकी लेनेवाला निर्देशक। डॉ. जैन बिलासपुर से लौट आए। इस घटना से डॉ. जैन मेरे ऊपर रूष्ट जरूर हुए होंगे। यह स्वाभाविक ही कहा जाएगा कि इससे उन्हें असुविधा ही हुई होगी। इसी बीच एक बहुत ही संवेदनशील प्रकरण से मुझे गुजरना पड़ा। मेरे बड़े सुपुत्र महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद के लिए लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित लिखित परीक्षा में अर्हता प्राप्त अंकों से उत्तीर्ण हो गए थे। अब उनकी मौखिकी लोक सेवा आयोग के इंदौर स्थित कार्यालय में निश्चित की गई थी। इस मौखिकी में विषय विशेषज्ञ के रूप में डॉ. कांतिकुमार जैन को बुलाया गया था। मुझे कहीं से सूचना मिल गई थी। मेरा चिंतित होना लाजिमी था। मैं चाहते हुए भी अपने पुत्र की सहायता करने में असमर्थ रहा, बल्कि मैं बहुत दिनों तक चिंता की काली छाया से घिरा रहा। डॉ. कीर्तिकाम की मौखिकी हुई। उन्होंने अपनी आश्वस्ति को प्रकट किया। उनकी मौखिकी डॉ. जैन ने ही ली थी। मानसिक उहापोह में ही बिलासपुर में शोध छात्रा की मौखिकी तिथि डॉ. जैन की सहमति से तय कर ली गई। तय यह पाया गया कि भोपाल-बिलासपुर एक्सप्रेस से ही यात्रा की जाएगी। डॉ. जैन सागर से और मैं दमोह से इस गाड़ी में बैठेंगे। ट्रेन में मैं डॉ. जैन के साथ ही हो लिया। उन्होंने ही डॉ. कीर्तिकाम की मौखिकी की चर्चा प्रारंभ कर दी। यद्यपि मैं उनसे इस संदर्भ में बात नहीं करना चाहता था। उन्होंने कहा, ‘कीर्तिकाम की मौखिकी अच्छी नहीं रही।’ मैं इस कथन से हतप्रभ जरूर हुआ, फिर भी मैंने छूटते ही कहा, ‘यही उम्मीद थी।’ वे विवरण देने समुद्यत थे और मैं उन्हें सुनना नहीं चाहता था। मैंने दृढ़तापूर्वक उनसे कहा, ‘मौखिकी के अंकों से कुछ नहीं होना है। लिखित और मौखिकी के अंक जुड़कर मैरिट बनना है। मुझे पूरा विश्वास है कि कीर्तिकाम निकल जाएँगे। और न भी निकले तो वे हायर सेकेंडरी में लेक्चरर की सरकारी नौकरी तो कर ही रहे हैं।‘ मेरे कथन ने इस चर्चा पर विराम लगा दिया। हमने अपनी यात्रा हँसी-खुशी तय की-किंतु मैं न तब समझ पाया था और न अभी समझ पाया हूँ कि डॉ. जैन को इस प्रसंग को सुनाने की क्या जरूरत थी। यद्यपि कीर्तिकाम उस चयन में उत्तीर्ण हुए। उनकी मेरिट अच्छी थी। वे असिस्टेंट प्रोफेसर बने। उनकी जब मार्क्सशीट आई तब उन्हें मौखिकी में पचास में से नौ अंक दिए गए थे। क्या संस्मरणकार कुछ-कुछ परपीड़क भी होता है? यदि ऐसा है तो संस्मरणकार सच्चाई के रास्ते पर है- वह भी इसी ईष्र्या द्वेषवाली दुनिया में रहता है-उसे भी वह सब कहने-लिखने का अधिकार है जो एक आम आदमी कहता-सुनता है।’’
डाॅ दुबे ने आगे लिखा है कि ‘‘डॉ. जैन की एक पुस्तक ‘बचपन में बैकुंठपुर’ शीर्षक से आई थी। ‘परस्पर’ पत्रिका ने मुझे यह पुस्तक समीक्षा के लिए भेजी। मैंने समीक्षा का आधार लेते हुए बचपन पर एक ललित निबंध ‘परस्पर’ में छपने भेज दिया।’’ निबंध प्रकाशित होने पर उसे पढ़ कर डाॅ कांतिकुमार जैन बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने डाॅ दुबे को फोन कर के धन्यवाद दिया। चाहते तो डाॅ दुबे समीक्षा के द्वारा विरोध जता सकते थे किन्तु उन्होंने डाॅ कांतिकुमार जैन की लेखकीय क्षमता का सम्मान किया और उनकी प्रशंसा की। यह तटस्थता किसी भी लेखकीयता के प्रति विश्वास जगाती है।
डाॅ विद्यानिवास मिश्र से जुड़ा संस्मरण मानो मिश्र जी के विराट व्यक्तित्व का परिचय देता है-‘‘स्थान था वृंदावन का अखंडानंद आश्रम और प्रसंग था ‘वत्सल निधि’ के शिविर का आयोजन । इस आयोजन में हमारे जैसे कुछ नए लोगों को आमंत्रित किया गया था। अब जब आमंत्रित थे तो कहलाए तो हम मेहमान ही, और इसी भाव से वे हमें ले भी रहे थे। ‘वत्सल भाव’ जैसे उनके भीतर से हिलुर रहा था, और हमें भिगो भी रहा था। यह एक अटूट और अपरंपार विश्वास था जिसके सहारे पंडित विद्यानिवास मिश्र ‘भाई’ के अपनापा में डूबे उनसे अभिन्न थे। यह तो मुझे बाद में पता चला कि अपने भाई अज्ञेय के लिए वे कितने तन्मय कार्यकर्ता थे। ‘वत्सल निधि’ के आयोजन में पंडितजी की भूमिका स्वनिर्धारित इंतजाम अली की थी।’’
पुस्तक में सभी संस्मरण एक से बढ़ कर एक हैं। सभी की अपनी विशिष्ट मूल्यवत्ता है। डाॅ. श्यामसुंदर दुबे एक सिद्धहस्त लेखक हैं। जिस सुंदरता, संयम और ईमानदारी से उन्होंने अपने संस्मरणों को ‘‘ताकि सनद रहे’’ में प्रस्तुत किया है, वह प्रशंसनीय है। यह पुस्तक सभी के पढ़े जाने योग्य है।विशेष रूप से साहित्यकारों की भावी पीढ़ी के लिए तो यह और भी जरूरी है ताकि उन्हें हिन्दी साहित्य जगत के पुरोधाओं के बारे में ज्ञात हो सके।
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