बुंदेली कॉलम | बतकाव बिन्ना की | डॉ (सुश्री) शरद सिंह | प्रवीण प्रभात
बतकाव बिन्ना की
---------------------------
खूब खाओ, मनो तनक देख-सुन के
- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
मैं जो भैयाजी के घरे पौंची तो बे कूल्हत भए पलकां पे डरे हते। उनईं के पलकां के लिगे भौजी बैठी हतीं।
‘‘जो भैयाजी खों का हो गओ भौजी? जे काय खों कूल्ह रए? कऊं गिर-गुरा परे का? कऊं चोट-मोट लग गई का?’’ भैयाजी की दसा देख के मोय तनक घबराहट सी होन लगी।
‘‘कछू नईं! तुमने घबड़ाओ बिन्ना! कऊं गिरे-मिरे नइयां।’’ भौजी ने मोसे कई।
‘‘सो, जे कूल्ह काए रए?’’ मैंने पूछी।
‘‘इनई से पूछो।’’ भौजी तनक गुस्सा सी होत भई बोलीं।
‘‘काए भैयाजी, का हो गओ? कऊं कछू पिरा रओ का?’’ मैंने पूछी।
‘‘हऔ बिन्ना! हमाओ पेट पिरा रओ।’’ भैयाजी रोऊत सी अवाज में बोले।
‘‘अरे कैसे? का खा लओ?’’ मैंने पूछी।
‘‘अरे अब हम तुमाए लाने का बताएं...!’’ कैत भए भैयाजी चुप हो गए।
‘‘काए नईं बता रए? अब बताओ बिन्ना खों के कां से, का खा आए।’’ भौजी भैयाजी खों तनक डांटत भईं बोलीं।
‘‘ऐसो का खा लओ इन्ने?’’ मैंने अब की भौजी से पूछी।
‘‘जे पूछो के का नईं खाओ।’’ भौजी बोलीं।
‘‘मने?’’ मैंने फेर के पूछी।
‘‘मने जे के, दुफारी में आ गए रए इनके एक पुराने सगे वारे। उन्ने इने कई के चलो, हम तुमें घुमा लाएं औ संगे कछू ख्वा लाएं। जे चटोरा घांईं उनके संगे चले गए। मनो गए सो कोनऊं बात नईं। उते अच्छो सो कछू खाते तो बी कछू बात नईं हती। पर जे उनके संगे गए, दोई ने पैले तो मक्खी भिनकत वारे जामुन खाए, वा बी बिगेर धोए। फेर ऐसई कोनऊं ठिलिया पे गन्ने को रस पियो दोई ने। का जाने उते कित्ती मक्खी औ बर्रें रई हुइएं। जे ओरे गन्ने के संगे उनको जूस सोई पी आए।’’
‘‘जो का कै रईं आप?’’ मक्खी औ बर्रों को जूस सुनई के मोरो जी मचला गओ।
‘‘सई कै रए हम। सबरे ठिलिया वारे साफ-सफाई नईं रखत। कायदे से तो इन ओरन खों गन्ने को जूस निकरवाबे के पैले ऊकी मसीन खों धुलवा लेने चाइए रओ। पर जे ओरें इत्तई अकल वारे होते तो अबे पेट दुखात काय डरे होते।’’ भौजी ने फेर के भैयाजी खों तानों मारो।
‘‘सई कै रईं हो आप, जेई से भैयाजी को पेट दुख रओ हुइए।’’ मैंने कई।
‘‘अरे इत्ततोई नोंईं, अबे तो औ सुनो! जे ओरे जामुन औ जूस सूंट के गए कोनऊं चाउमिन वारे की ठिलिया पे। जे बता रए हते के,े ऊके इते सबरी सब्जियां खुल्ले में कटी धरी हतीं। अब तुमई बताओ बिन्ना के जब इन ओरन खों ऊके इते कटी सब्जियां खुल्ली डरी दिखा रई हतीं औ ऊपे रोड की धूरा-मूरा सबरी उड़-उड़ के गिर रई हती तो का जरूरत हती ऊके इते चाऊमिन खाबे की? पर नई! उते ठिलिया पे चाउमिन खाए बिना दोई के प्रान जो कढ़े जा रए हते। दोई ने उते चाउमिन सूंटो औ फेर इते-उते फिरत रए। मनो घरे आत-आत दोई के पेट पिरान लगे। तुमाए भैयाजी खों तो एक उल्टी सोई हो गई। फेर हमने बा डाक्टर आएं न, जैन साब उनको फोन करो। बे बिचारे भगत आए। बे तो देखतई समझ गए के जे कछू अल्ल-गल्ल खा आए ठैरे। सो उन्ने इने कछू दवा दी, तब से कछू अराम सो लगो आए। बाकी पूरो पेट ठीक होबे में अबे टेम लगहे। जैन साब कै रए हते के कल संकारे तक ठीक हो जैहें।’’ भौजी ने पूरी किसां बता दई।
‘‘औ बे कां गए, इनके संगवारे?’’ मैंने पूछी।
‘‘बे अपने घरे गए। बाकी हमने उनके इते अभईं कछू देर पैले फोन करी हती सो उनकी घरवारी बता रई तीं के बे सोई दवाई खा के डरे आएं।’’ भौजी ने बताई।
‘‘देखों तो, कैसी बैठे-बिठाए की सल्ल पर गई।’’ मैंने भैयाजी के लाने कई।
‘‘इनई की न्योता दई भई सल्ल आए जे। अब तुमई बताओ बिन्ना के कोऊं बच्चा होए तो ऊसे जा उमींद करी जा सकत आए के बा देखे-सुने बिगेर कऊं से बी, कछू बी खा सकत आए, मनो जे तो दोई बुढ़ापा में ने सम्हरे। मक्खियां भिनकत भओ और गंदगी वारो आइटम मसक आए औ अब आड़े डरे। हमें तो तुमाए भैयाजी पे तनकऊं दया नईं आ रई।’’ भौजी भैयाजी पे गुस्सा करत भईं बोली।
‘‘सई कै रईं भौजी। आजकाल तो जांगा-जांगा पे नरदा की सफाई सोई चल रई। जोन को गंदो गिलावा उतई साईड पे कुंढ़ेल दओ गओ आए। औ उतई जे टाईप की ठिलियां ठाड़ी रैत आएं। बे ओरें कछू ढांक-ढूंक के बी नई रखत आएं। एक दिनां तो मैं सोई बजार गई रई तो उते अच्छे नोने जामुन दिखाने। मैंने सोची के ई मौसम में जामुन खाओ चाइए। सो, मैं जैसेई जामुन की ठिलियां के लिंगे पौंची सो मोए उनपे मुतकी मक्खियां भिनकत दिखानीं। का रओ के कारे जामुन औ कारी मक्खियां, सो दूर से मोय पतो नईं परो के उते का दसा आए। बा ठिलिया वारो चेटन लगो के बड़े अच्छे जामुन आएं, ले तो लेओ। मैंने ऊसे कई के भैया, जो तुमने इने पन्नी से ढांक रखो होतो तो मैं ले लेती, मनो तुमने तो ईपे मक्खी-बाजार बना रखो आए, सो मोय नई लेनें। सो बा तुनकत भओ बोलो, हऔ सो ने लेओ! हमाए मुतके ग्राहक आएं। मोए जा सुन के भोतई गुस्सा आओ। मनो बा सांची कै रओ हतो के भौत से ग्राहक जा सब पे ध्यान दिए बिगेर खरीदत रैत आएं।’’ मैंने कई।
‘‘हऔ जैसे तुमाए भैयाजी! बा जामुनवारो इनई के जैसो के लाने कैत रओ हुइए।’’ भौजी ने फेर भैयाजी खों सुनाई।
बाकी भैयाजी ने काम ई सुनबे जोग करो हतो। भौजी सई कै रईं हतीं के कोऊ बच्चा होय तो ऊको सबई टोंकत आएं के ठिलिया को खुल्ले में रखो कछू ने खाइयो, औ भैयाजी जैसे समझदार खा-खुआ के अपनो पेट पकरे डरे।
‘‘अरे इन ओरन को मन रओ तो हमसे कई होती, हम इने चाट-पकौड़ा, चाउमिन, नूडल्स सब कछू इते घरे बना के ख्वा देते। एक तो मक्खी भिनकत कोनऊं चीज लेने नईं चाइए औ जो जामुन लेई लओ रओ तो घरे ले आते हम उनको अच्छे गरम पानी में धोके साफ कर देते। कम से कम इत्तो कष्ट तो ने होतो। अब इने संकारे लौं कछू खाबे को कोन मिलने। जैन साब ने कई आए के संकारे तनक पतरी खिचड़ी दे दइयो, औ कछू नईं। औ करो चटोरापना।’’ भौजी को गुस्सा करबो बनत्तो।
सो, भैया औ बैन हरों! मोरी आप ओरन से जेई बिन्ती आए के जे बारिस को मौसम खाबे-पीबे वारो मौसम कहाउत आए, सो आप ओरें खूब खाओ, मनो अच्छो खाओ औ खुद खों बिमारी से बचा के राखो। जे बारिस को मौसम बीमारी-सिमारी वारो सोई रैत आए। काए से के इते-उते गंदगी मची रैत आए औ अपन ओरें बोई गंदगी में खुलो बिकत कछू खा लेबी तो भैयाजी जैसे बीमार पड़ जेबी। मनो खाद्य विभाग वारों खों तो ईसे कछू लेबो-देबो नइयां। बे तो लगत आए के ऐसी तरफी ढूंकत लौं नइयां। जबके उनकी ड्यूटी रैत आए के खाबे की खराब चीजें ने बिकें औ खराब ढंग से ने बिक पाएं। मनो बे ओरें जाने का करत रैत आएं। जो कोनऊं त्योहार आऊत आए तभईं उनकी ऐरों मिलत आए, ने तो निल बटा सन्नाटा रैत आए। सो अपनो खुदई खयाल रखो। अच्छो खाओ औ सेहत बनाओ।
बाकी बतकाव हती सो बढ़ा गई, हंड़ियां हती सो चढ़ा गई। अब अगले हफ्ता करबी बतकाव, तब लौं जुगाली करो जेई की। मनो सोचियो जरूर ई बारे में के जे जो खात-पीयत को ऐसो खुलो सामान बिकत आए तो बे खाद्य विभाग वारे का पल्ली ओढ़ के सोत रैत आएं? बे इन ओरन खों काए नईं समझात?
---------------------------
#बतकावबिन्नाकी #डॉसुश्रीशरदसिंह #बुंदेली #batkavbinnaki #bundeli #DrMissSharadSingh #बुंदेलीकॉलम #bundelicolumn #प्रवीणप्रभात #praveenprabhat
No comments:
Post a Comment